यौनकर्मियों को कानूनी राहत कब तक?
के. विक्रम राव
वेश्यावृत्ति तथा राजनीति केवल दो ऐसे वृत्तियां हैं जहां अनुभवहीनता ही अर्हता मानी जाती हैं। यूं तो मिस्त्री और शल्य-चिकित्सक में सादृश्य हैं, पर समानता नहीं। मसला है कि यदि नारी के पास जीविकोपार्जन हेतु साधन ना होता? “तो वह भूखों मरे? अथवा वेश्यागिरी अपनाएं या फिर पुल से कूद जाए।” ऐसी राय थी कनायन कवियित्री मार्गिरेट एटवूड की। हताशा इस हद तक! इस तीखे तथ्य पर साहिर लुधियानवी ने लिखा था: “औरत ने जनम दिया मर्दाे को, मर्दों ने उसे बाजार दिया।” इन विचारों का यहाँ संदर्भ है कि गत सप्ताह (17 नवंबर 2022) सन फ्रांसिस्को में लेखिका और फिल्मकार कैरोल लीड का निधन। वे यौनकर्मियों के संगठन की पुरोधा रहीं। उनके आधिकारों तथा कल्याण हेतु संघर्षशील। कैरोल लीड, 71 वर्षीय, वेश्यावृत्ति को यौनकर्म मानती थी, एक प्रकार का रोजगार। अतः उन्होने श्रमिक अधिकार की मांग रखी थी। उनके पास ख्यात बास्टन विश्वविद्यालय की स्नातक डिग्री (1974) थी। उनकी दृष्टि से यह गणिका कार्य एक उद्योग है। अतः संसदें इस पर कल्याणकारी कानून गढ़ें।
पश्चिमी विकसित राष्ट्रों की तुलना में यौनकर्मियों के मसले पर भारत काफी अग्रगामी रहा हैं। सर्वाेच्च न्यायालय ने (इस वर्ष 25 मई) यौनकर्म को वृत्ति माना था। पुलिस को निर्दिष्ट किया था कि इन कर्मियों के मामले में बेजा हस्तक्षेप न करें। इसके ठीक साल भर पूर्व मोदी सरकार ने (30 नवंबर 2021) प्रस्तावित किया था कि यौनकर्मियों के पुनर्वास का विधेयक संसद में पेश होगा। यह जानकारी सर्वाेच्च न्यायालय की खंडपीठ (29 नवंबर 2021) के न्यायमूर्ति द्वय एल. नागेश्वर राव तथा बीआर गवई को दी गयी थी, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल आरएस सूरी के द्वारा। तब केंद्र शासन ने संसद के जारी शीतकालीन सत्र के दौरान यौनकर्मियों की तस्करी रोकने और पुनर्वास के लिए कानून लाने की योजना बनाई गयी थी। इसी सिलसिले में भारत सरकार ने खंडपीठ को बताया था कि इन कर्मियों को आधार कार्ड भी दिया जाएगा। सर्वाेच्च न्यायालय की भिन्न खंडपीठ (न्यायमूर्ति-द्वय दलवीर भण्डारी तथा एके पटनायक 16 जनवरी 2010) का आदेश था कि देश में जिस्म बेचकर जीविका कमाने वालों में 70 फीसदी नाबालिक लड़कियां हैं। बच्चों के इस पेशे लिप्त होने पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता व्यक्त की थी। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से कहा था कि वह बाल वेश्यावृत्ति रोके। कोर्ट ने कहा कि इसके लिए सभी जरूरी कदम उठाए जाएं और कड़ाई से पाबंदी लगाई जाए। वेश्याओं के विषय पर भारतीय साहित्यकारों ने खासकर अभियान चलाया था। वेश्या-हित हेतु। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास की नायिका “सुमन” एक ऐसी नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती है जो हजार आपत्तियों का सामना स्वयं ही करती है और अपने द्वारा किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगने के लिए तैयार भी रहती है। सुमन वेश्या जीवन ग्रहण करने के बाद समाज में तिरस्कृत होने का मार भी सहन करती है। बाबू भगवती चरण वर्मा की “चित्रलेखा” और आचार्य चतुरसेन शास्त्री की वैशाली की नगर वधू का उल्लेख समीचीन होगा। रूसी साहित्यकार दोतोवोस्की (क्राइम एंड पनिशमेंट) मे वेश्या सोनिया के संघर्ष की वीरगाथा है। लियो ताल्स्ताय तो इस वृति को शहरी गरीबी की उपज मानते हैं। भारत में हिंदू धर्म के प्रतिपादकों में विशेषकर मोरारी बापू का, योगदान बहुत बड़ा रहा। मुंबई के कामाठीपुरा (वेश्याओं की बस्ती) में भी स्वयं गए थे। और उन सबको अयोध्या मे अपने प्रवचन में आमंत्रित भी किया था। अयोध्या के महंतों ने जमकर विरोध किया था। उन लोगों ने कहा था कि सनातन धर्म की हानि होगी। पर मोरारी बापू का सटीक जवाब था: “संत तुलसीदास ने गणिका (वारंगनाओं) का मानस में उल्लेख किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम स्वयं पतित पावन रहे थे।”
वेश्यावृत्ति पर लोकनीति रचने मे बॉलीवुड वालों ने अभूतपूर्व सहयोग किया। इस विषय पर पहली फिल्म 1955 में आई थी। बिमल रॉय द्वारा निर्देशित “देवदास” का किरदार दिलीप कुमार ने निभाया था। इसके 47 साल बाद (2002 में) संजय लीला भंसाली की “देवदास” रिलीज हुई थी, जिसमें ऐश्वर्या राय, शाहरुख खान और माधुरी दीक्षित मुख्य भूमिका में थे। फिल्म कथानक शीर्षक “देवदास” को शरतचंद्र चटोपाध्याय ने 1917 मे लिखा था। उस वक्त उन की उम्र सिर्फ 17 साल थी। इतनी कम उम्र में उन्होंने इस जादूगरी से देवदास को उपन्यास में रचा कि पिछले दशकों में कई बार कई लोगों ने उसे अपनी कल्पना का आधार बनाया। पूरे आठ बार फिल्में बनी हैं। ये शायद भारत में एकमात्र ऐसा उपन्यास है, जिस पर इतनी फिल्में बनीं। पहली बार सन् 1928 में बनी थी। शक्ति सामंत से लेकर संजय लीला भंसाली और पी.सी.बरुआ से लेकर बिमल रॉय तक देवदास जब भी सामने आया है, उसने लोगों को बेचौन भी किया है, रुलाया भी है। और रिझाया भी। मेरी मातृभाषा तेलुगू में “देवदासु” बनाया वेदांतम राघवैया ने इस फिल्म में देवदास का रोल निभाने वाले ए. नागेश्वर राव के करियर के लिए भी ये फिल्म मील का पत्थर साबित हुई थी। अंततः आज आवश्यकता यह है कि कोर्ट आश्वासनों की जगह ठोस। कार्यनीति बने तभी समाज के इस दलित वर्ग को राहत मिलेगी। इस मसले पर बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने (सोमवार, 21 अप्रैल 2008) के दिन “जनता दरबार” (पटना) में कुछ यौन कर्मियों का दर्द सुना था। मुख्यमंत्री ने स्वास्थ्य, मानव संसाधन, और कल्याण विभागों के प्रमुख सचिवों को निर्दिष्ट किया था। एक कार्य योजना के तहत इन पीड़िताओं हेतु कार्यक्रम बने (दैनिक हिंदू: 22 अप्रैल 2008)। मुख्यमंत्री का स्वयं आदेश था कि सीतामढ़ी के साथ मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज अस्थान पर खास योजना बने। इसी के ठीक साल भर बाद हमारे इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट का प्रतिनिधि अधिवेशन राजगीर (बिहार) में हुआ था। वहां नीतीश कुमार के जनकल्याणकारी कार्यक्रम की चर्चा भी हुई थी। उद्घाटन उन्होने किया था। मगर प्रश्न यहां रह जाता है कि शासक लोग और मीडिया कितना जनसमर्थन जुटा पाती है? तभी इस अनवरत संघर्षशील पुरोधा कैरोल लिड को असली श्रद्धांजलि हो पाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आइएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)
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