यदि राजनेता भी “न” कहने की आदत डाल लें!
के. विक्रम राव
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के उपरोक्त कथन में इतिहास समाहित है। इसी के दायरे में निषेध (अस्वीकृति) भी निहित है। मगर अफसर की भांति महिला की जीभ की नोक पर सदैव “नहीं” ही रहता है। ब्रिटिश सियासत में एक कहावत है। राजनेता और नारी में केवल एक ही विषमता है : यदि राजनेता “हां” कहता है तो मायने हैं “शायद”। वह “शायद” कहे तो अर्थ है “नहीं”। वह व्यक्ति कभी राजनेता हो ही नहीं सकता जो सीधे “ना” कह डाले। ठीक विपरीत है महिला का उदाहरण। वह “ना” कहे तो मतलब है “शायद”। और “शायद” कहे तो है “हां”। वह नारी नहीं जो सीधा “हां” कह दे। लेकिन एक और शब्द है इसी परिवेश में। “अन्यथा” जिसके मतलब हैं : “नहीं तो” तथा “विपरीत” भी। अर्थात एक के अभाव में दूसरे की संभावना बनती है। अब अफसर तो मंत्री की “हां” में “जी” जोड़ेगा ही (हांजी)। तब खुशामद होगी। बॉस की “हां” में “हां” मिलाना तो चापलूसी कहलाएगी। यही इन नौकरशाह की विलक्षण अदा होती है। मगर राजनाथ सिंह के भावार्थ में शब्द “अन्यथा” का आशय निकालें तो फिर इतिहास ही बन जाएगा। कई दृष्टांत हैं जब किसी प्रस्ताव अथवा सुझाव पर हां या नहीं कहने से घटनायें गजब की हुई हैं। मसलन पांडव दूत श्रीकृष्ण के निजी सुलहनामा कि (“पांच गांव दे दें तो पांडव संतुष्ट हो जाएंगे।”) पर यदि दुर्योधन इस “हां” कह देता तो? आज का भारत परमाणु (ब्रह्मास्त्र) संपन्न महाबली राष्ट्र होता। मगर विधि को बदा था कि मुसलमान और अंग्रेजों के दासत्व को भारतवर्ष भुगतेगा। गत सदी के इतिहास की घटनाओं को वर्तमान संदर्भ से जोड़ें। अगर युवती इंदिरा नेहरू की एक पारसी फिरोज घांडी से आनंदभवन में पाणिग्रहण पर उनके पिता जवाहरलाल नेहरू “ना” कह देते तो? अन्यथा क्या होता? इंदिरा की शादी किसी कश्मीरी विप्र किचलू, कौल, मुंशी, भट, धर, परिमु, रैना आदि से हो जाती। वह श्रीनगर घाटी में बस जाती। इस नकली गांधी के कुल की आलोचना से तो बचाव हो जाता। कुछ विगत वर्षों की कल्पना करें। यदि रावी तट (लाहौर) में (दिसंबर 1929) तब महात्मा गांधी स्वयं राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बन जाते और अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू की राय न स्वीकारते कि उनके पुत्र जवाहर लाल को अध्यक्ष नामित कर दें। तो दुनिया करवट ले लेती। मगर बापू “ना” नहीं सके। न जाने क्या विवशता रही होगी। पिता की जिद थी, जवाहरलाल को बापू नकार न सके।
फिर आया 1945 जब मौलाना अबुल कलाम आजाद राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। वे 1940 से इस पद पर थे क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के कारण पार्टी चुनाव नहीं हो पाये थे। तब 1946 में नए पार्टी मुखिया के चुनाव होना था। कांग्रेस कार्यकारिणी ने चुनाव का फैसला लिया। बैठक में बापू ने बताया : “अधिकांश नामांकन सरदार पटेल के पक्ष में हैं।” एकाध अन्य के लिए। फिर बापू बोले : “जवाहर तुम्हारे नाम का प्रस्ताव किसी भी प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने नहीं भेजा है।” और अंत में बापू ने पटेल से कहा : “सरदार मैं चाहता हूं कि तुम जवाहर के पक्ष में अपना नाम वापस ले लो।” केवल दो शब्द बोले पटेल : “जी बापू।” बस नेहरू पार्टी मुखिया बन गए और प्रधानमंत्री भी। विभाजन भी स्वीकार कर लिया। अगर सरदार ने सिर्फ एक ही शब्द सिर्फ “नहीं” कह दिया होता तो स्वतंत्र भारत का इतिहास ही भिन्न होता। नेहरू न होते तो आज उनका वंश ही न होता। बांसुरी न होती, जब बांस ही न रहता। मगर 10 जनवरी 1966 को तो गजब ही हो गया। सोवियत कम्युनिस्टों (खाकर रूसी प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिजिन) के दबाव में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ताशकंद संधि पर मार्शल अयूब खान के साथ हस्ताक्षर कर दिया। भारत को युद्ध में मिला लाभ तब पराजित पाकिस्तान ने ले लिया। शास्त्री जी विक्षिप्त थे। उसी रात चल बसे। शव दिल्ली लाया गया। यदि अपने साथियों की बात मान कर शास्त्री जी संधि प्रस्ताव पर “ना” कह देते तो लाहौर का जीता भूभाग भारत का ही हो जाता। उसके एवज में पाकिस्तान से उसका 1948 में कब्जियाया कश्मीर का भूभाग वापस ले सकते थे। पर छोटे कद के प्रधानमंत्री रुसियों को “ना” नहीं कह पाए। ऐसी ही नौबत आई थी 25 जून की आधी रात को 1975 में। यदि आज्ञाकारी राष्ट्रपति फरुखद्दीन अली अहमद तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जिद को नकार देते और कहते कि इलाहाबाद का हाईकोर्ट का फैसला मानो। “त्यागपत्र दे दो। दूसरे को प्रधानमंत्री बनवा दो।” फिर आपातकाल न थोपा जाता। विश्व इतिहास में भारत ही सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता। यह काला धब्बा न लगता। हम सब जेल में बंद न किए जाते। एक और हादसा अप्रैल 1999 का। केवल अटल विहारी वाजपेई यदि “ना” कह देते। यदि अटल बिहारी बाजपेई लोकसभा अध्यक्ष से कहते कि उड़ीसा के मुख्यमंत्री गिरधर गोमांगो का वोट अस्वीकार कर दें तो उनकी राजग की सरकार एक वोट से न गिरती। मध्यावर्ती निर्वाचन न होता। सोनिया गांधी तब तो तोड़फोड़ कर प्रधानमंत्री बनने का असफल प्रयास न करती। बस अटल बिहारी बाजपेई तब अध्यक्ष (पीए संगमा) से इस उड़ीसा के कांग्रेसी नेता के वोट के प्रस्ताव को खारिज करा देते। ताजातरीन वाकया तो गोवा का है। तब नरेंद्र मोदी का त्यागपत्र भाजपा के नेता अटल बिहारी बाजपेई ने मांगा था। मगर लालचंद किशनचंद आडवाणी ने “ना” कह दिया। मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने रहे। फिर मोदी का प्रधानमंत्री बनना तो आज का इतिहास ही है। किन्तु गोवा में मोदी के लिए “हां” कहना आडवाणी के लिए हितकारी नहीं हुआ। वे आज तक अधूरी अभिलाषा संजोए हुए हैं प्रधानमंत्री बनने की। केवल एक “हां” करने के कारण। मोदी के लिए आडवाणी की “हां” बड़ा भाग्यकारक रहा। अर्थात हमेशा हां नहीं कहना चाहिए। यदाकदा “ना” कहने की आदत भी डालनी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आइएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)
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