बुन्देलखण्ड की अनूठी परंपरा है दीपावली में मौन चराना

बांदा (हि.स.)। बुन्देलखण्ड की माटी में अभी भी पुरातन परम्पराओं की महक रची-बसी है। व्रत, पर्व त्योहार हो या लोक संस्कृति के अन्य उत्सव, यहां परम्पराओं के निर्वाह को छोड़ा नहीं गया है। दीवाली का पर्व देश में अलग-अलग स्थानों पर चाहे जिस ढंग से मनाया जाता हो। लेकिन, बुन्देलखण्ड की दिवारी अब भी समूचे देश में अनूठी है। इसमें गोवंश की सुरक्षा, संरक्षण व संवर्धन पालन के संकल्प मौन चराने का कठिन व्रत लिया जाता है।

बांदा के दीवारी नृत्य कलकार रमेशपाल बताते हैं कि मौन चराने वाला व्यक्ति एक दिन के लिए न खाना खाता है और न ही पैर में जूते पहनता है। मौनिया व्रत की शुरुआत सुबह गो (बछिया) पूजन से होती है। इसके बाद वे गो-माता व श्रीकृष्ण भगवान का जयकारा लगाकर मौन धारण कर लेते हैं फिर गोधूलि बेला में गायों को चराते हुए वापस नगर-गांव पहुंचते हैं। यहां विपरीत दिशा से आ रहे गांव, नगर के ही मौनियों के दूसरे समूहों से भेंट करते हैं और फिर सभी को लाई-दाना व गरी, बताशा-गट्टा का प्रसाद वितरित करते हैं। इसी प्रकार यह मौन व्रत लगातार 12 वर्ष तक किया जाता है और एक वर्ष का ब्याज में किया जाता है इस प्रकार कुल 13 वर्ष का व्रत किया जाता है।
पहले वर्ष पांच मोर पंख लेने पड़ते हैं। इसके बाद आने वाले वर्षों में प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता है। परम्परा के अनुसार मौन चराने वाले लोग दीपावली के दिन नदी में स्नान करते हैं। कुछ लोग यमुना—बेतवा के संगम स्थल में स्नान करने जाते हैं फिर विधि पूर्वक पूजन कर पूरे नगर में ढोल नगाड़ों की थाप पर दिवारी गाते, नृत्य करते हुए उछलते-घूमते वापस लौटते हैं। 
इस दिन मौनिया श्वेत धोती ही पहनते हैं और मोर पंख के साथ-साथ बांसुरी भी लिए रहते हैं। मौनिया बारह वर्षों तक मांस व शराब आदि का सेवन नहीं करते हैं। मौनियों का एक गुरु होता है जो इन्हें अनुशासन में रखता है।
इस तरह से किया जाने वाला यह व्रत द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के संदेश को प्रसारित करता है कि जो व्यक्ति 13 वर्ष तक मन, वाणी और कर्म से मौन चरायेगा, वह सांसारिक माया-मोह के बंधनों से छुटकारा पाकर परम धाम को प्राप्त करेगा। इन्हीं अनूठी परम्पराओं के चलते बुन्देलखण्ड की दिवारी का पूरे देश में विशिष्ट स्थान व अनूठी पहचान है।

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