तुलसीदास ने क्यों नहीं की हनुमान जी के चरणों की वंदना
वीर विक्रम बहादुर मिश्र
आज ज्येष्ठ माह का तीसरा मंगलवार है। आइए जानने की चेष्टा करें कि जिनकी कृपा से गोस्वामी तुलसीदास जी को श्रीराम लक्ष्मण समेत चारों भाइयों के दर्शन हुए। उन हनुमान जी के श्री चरणों की वंदना उन्होंने श्रीमद् रामचरितमानस में क्यों नहीं की? गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालकांड के प्रारंभ में श्री राम सीता लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न सुग्रीव जामवंत विभीषण तथा समस्त बंदरों के चरणों की वंदना का पृथक-पृथक उल्लेख किया है। परंतु हनुमान जी को केवल प्रणाम किया है। उनके चरणों की वंदना नहीं की है। गोस्वामी जी सबसे पहले भरत के चरणों को प्रणाम करते हैं, फिर लक्ष्मण और शत्रुघ्न के चरणों को प्रणाम करते हैं :
’प्रनवउं प्रथम भरत के चरना।
जासु नेम व्रत जाइ न बरना।
बंदउं लछिमन पद जलजाता।
सीतल सुभग भगत सुखदाता।
रिपुसूदन पदकमल नमामी।
सूर सुसील भरत अनुगामी।’
अब आगे देखिए दूसरे सबके चरण छू रहे हैं :
’कपिपति रीछ निसाचर राजा
अंगदादि जे कीस समाजा
बंदउं सबके चरन सुहाए
अधम सरीर राम जिन्ह पाए
रघुपति चरन उपासक जेते
खग मृग सुर नर असुर समेते
बंदउं पद सरोज सब केरे
जे बिनु काम राम के चेरे’
यही नहीं नारदादिक ऋषियों को प्रणाम करने के लिए गोस्वामी जी सिर को धरती पर रख देते हैं. पढ़िए
’सुकसनकादि भगत मुनि नारद।
जे मुनिवर विग्यान विसारद।
प्रनवउं सबहिं धरनि धरि सीसा।
करहु कृपा जन जानि मुनीसा।’
यही नहीं गोस्वामी जी ने संतों के साथ-साथ असंतों के भी चरण कमलों की वंदना की :
’बंदउं संत असज्जन चरना
दुख प्रद उभयबीच कछु हरना।’
गोस्वामी जी ने रामायण के रचयिता बाल्मीकि के भी चरण कमलों की वंदना की :
’बंदउं मुनिपदकंज रामायन जेहि निरमयउ।’ उन्होंने ब्रह्मा जी की भी चरण रज ली ’बंदउं विधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जंह।’ फिर श्री सीताराम जी के चरणकमलों की भी वंदना की :
’गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
बंदउं सीताराम पद जिन्हहिं परमप्रिय खिन्न।।
इतने श्री चरणों की बंदना के बाद गोस्वामीजी हनुमान जी के चरण कमलों की वंदना में पीछे क्यों रह गये? यह स्थिति बड़ी अटपटी लगती है क्योंकि हनुमान जी की वंदना में गोस्वामी जी ने उनके चरण कमलों का नाम ही नहीं लिया। उन्होंने लिखा :
’महाबीर विनवउं हनुमाना।
राम जासु जस आप बखाना।।
फिर उन्होंने लिखा :
’प्रनवउं पवनकुमार खलबल पावक ज्ञानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।
यही नहीं सुंदरकांड के प्रारंभ में हनुमान जी की लोकप्रिय स्तुति में भी उन्होने ’रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि’ कहा। चरण कमलों में प्रणाम नहीं किया। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा नहीं कि तुलसीदास जी से कोई चूक हो गयी। मुझे लगता है ऐसा उन्होने जान बूझकर नहीं किया, क्योंकि तुलसीदास की भूमिका में हनुमानजी का साक्षात् आवेश था। संभवतः तुलसी का मस्तक हनुमान जी के चरणों पर इसलिए नहीं गिरा क्योंकि ऐसा होने पर हनुमान जी के हृदय में विराजमान श्री राम का विग्रह ओझल हो जाता। वस्तुतः तुलसी का रामचरित मानस किसी सांसारिक बुद्धि का कथानक नहीं है। यह अलौकिक रचना है जिसे स्वयं शंकरावतार हनुमान ने प्रस्तुत की है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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