डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
देश से डॉक्टर्स का ब्रेन ड्रेन यानी प्रतिभा पलायन इस मायने में महत्वपूर्ण और गंभीर हो जाता है कि देश में चिकित्सकों की आज भी बेहद कमी का सामना करना पड़ रहा है। देश के करीब 75 हजार डॉक्टर्स ओईसीडी यानी कि आर्थिक सहयोग व विकास संगठन से जुड़े देशों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। ताजातरीन उदाहरण देश के सबसे बड़े दिल्ली के एम्स का ही देखा जा सकता है, जहां पिछले दस माह में सात विशेषज्ञ डॉक्टर्स ने किसी न किसी कारण से सेवाएं देना बंद कर दिया है। आज दस हजार से अधिक लोगों को प्रतिदिन सेवाएं देने वाले एम्स में ही 200 डॉक्टर्स की कमी चल रही है। यह तो एक मिसाल मात्र है। इसमें कोई दोराय नहीं कि हमारे चिकित्सकों की काबिलीयत और विशेषज्ञता के कारण ही विदेशों में अपनी पहचान बनाए हुए हैं । एक मोटे अनुमान के अनुसार ओईसीडी देशों में रह रहे 75 हजार डॉक्टर्स में से करीब दो तिहाई तो अमेरिका में ही अपनी सेवाएं दे रहे हैं। यह तो मानना पड़ेगा कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं में उल्लेखनीय सुधार हुआ है पर अभी बहुत कुछ किया जाना है।
यदि हम ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण करें तो देश में शहरी क्षेत्र में तो कमी है ही पर ग्रामीण क्षेत्र के हालात अधिक ही चिंताजनक है। ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2021-22 की माने तो देश में ग्रामीण इलाकों की डिस्पेंसरियों में 81.6 प्रतिशत बाल रोग विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं है। और तो और सामान्य फिजिशियनों की ही बात करें तो ग्रामीण क्षेत्र की डिस्पेंसरियों में 79 प्रतिशत फिजिशियन की कमी है। 72 प्रतिशत से कुछ अधिक कमी प्रसूति रोग विशेषज्ञों की है। यह तो सरकारी आंकड़ों में दर्शाए गए हालात है। हालांकि नवीनतम रिपोर्ट में हालात में कुछ सुधार देखने को मिल सकते हैं पर अधिक सुधार की आशा करना बेमानी होगा। दरअसल हमारे यहां दस हजार की आबादी पर केवल सात डॉक्टर उपलब्ध हैं जबकि क्यूबा जैसा देश दुनिया के देशों में मेडिकल चिकित्सकीय सेवा में लीड कर रहा है और वहां दस हजार की आबादी पर 84 डॉक्टर उपलब्ध है, अमेरिका में यह संख्या 35 तो चीन में 23 है।
ब्रेन ड्रेन शब्द सबसे पहली बार विश्वयुद्ध के समय उभर कर आया जब भारतीय इंजीनियर व अन्य विशेषज्ञ अपनी काबिलीयत को लोहा मनवाने विदेशों में जाने लगे और वहां अपनी पहचान बनाई। 1950 से 1960 के दशक में यूके, कनाडा और यूएसए में प्रतिभा पलायन का दौर चला और इसे ब्रिटिश रॉयल सोसायटी ने ब्रेन ड्रेन कहा तो अब विदेशों में प्रतिभा पलायन चाहे वह किसी भी देश की हो उसे ब्रेन ड्रेन के नाम से पुकारा जाने लगा है। ब्रेन ड्रेन को एक तरह से अच्छा भी माना जा सकता है क्योंकि हमारी प्रतिभा को वहां स्थान मिल रहा है पर जब तक घर के हालात तंदुरुस्त नहीं हो तब तक इसे ज्यादा अच्छा नहीं कहा जा सकता।
वैसे भी हमारे यहां से ही नहीं अपितु दुनिया के लगभग अधिकांश देशों से प्रतिभाएं किसी न किसी कारण से पलायन करती है। विदेशों में प्रतिभा पलायन को ही ब्रेन ड्रेन कहा जाने लगा है। हालांकि अब ब्रेन ड्रेन को ब्रेन गेन कह कर भी पुकारा जाने लगा है तो दूसरी और रिवर्स ब्रेन ड्रेन भी होने लगा है। सवाल यह है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और डॉक्टर्स की जरुरतों को देश में पूरा करना समय की मांग है। आज हम देश में आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। बावजूद इसके ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति खासतौर से चिकित्सकों और पैरामेडिकल स्टॉफ की कमी निश्चित रूप से चिंता का विषय है। खासतौर से कोरोना के बाद तो सरकार को और अधिक गंभीर होने की आवश्यकता हो जाती है।
सवाल अभी भी कायम है कि चिकित्सकों के ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए भी सरकार को ठोस प्रयास करने होंगे। डॉक्टर्स की सेवा शर्तों में सुधार के साथ ही इस क्षेत्र में निजी और सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा देना होगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत बनाना होगा। आज भी चिकित्सा क्षेत्र में निवेश की जो तस्वीर देखने को मिल रही है वह यही है कि करीब 90 फीसदी निवेश निजी क्षेत्र में आ रहा है। लाख टके का सवाल है कि लाख सरकारी व्यवस्थाओं के बावजूद निजी चिकित्सालयों तक अधिकांश लोगों की पहुंच लगभग नहीं के बराबर ही है और आने वाले समय में कोई बड़ा बदलाव होगा यह लगता भी नहीं है।
हमारे लिए एक अच्छी बात यह है कि देश में मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा मिलने लगा है। देश के नामी अस्पतालों की साख व अपनी पहचान का ही कारण है कि विदेशी यहां इलाज के लिए आने लगे हैं। अब यदि विदेशों में बेहतर सुविधाओं और नाम कमाने के लिए युवा डॉक्टर्स पलायन का रास्ता अपनाते हैं तो इसे रोकने के भी प्रयास करने होंगे। कहा जा सकता है कि इतने बड़े देश से 75 हजार डॉक्टर्स ब्रेन ड्रेन पर चले भी जाते हैं तो क्या फर्क पड़ने वाला है। हालात में फिर भी सुधार होने से रहा तो यह हमारी निगेटिव सोच ही होगी। 75 हजार कोई छोटी संख्या नहीं है। इससे कुछ मायने में तो सुधार होगा ही। अन्य युवाओं को विदेश की राह अपनाने से तो हतोत्साहित किया जा सकेगा। युवा व अनुभवी विशेषज्ञ चिकित्सकों की अंतरराष्ट्रीय मंच पर मार्केटिंग की जाती है। देश में मेडिकल रिसर्च से जुड़े विश्वस्तरीय सेमिनार, वर्कशाप और इसी तरह की गतिविधियों का वार्षिक केरिकुलम बनाकर प्रचारित किया जाता है तो देश में ही सेवा दे रहे चिकित्सकों को विश्वस्तरीय पहचान बनेगी।
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