जैविक खेती को बढ़ावा : चालीस केंचुओं से शुरू कर बनाईं 35 से अधिक वर्मी कम्पोस्ट उत्पादन इकाई

महराजगंज (हि.स)। रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से बेजान हो रही खेतों की मिट्टी को नया जीवन देने और फसलों को जहरीले प्रभाव से मुक्त करने के लिए जैविक खाद अपनाने का संदेश देते हुए एक ग्रामीण युवा ने ऐसा व्यावसायिक नवाचार किया है, जो क्षेत्र के लिए एक मिसाल बन गया है। 

महराजगंज जनपद के नन्दना ग्राम के नागेन्द्र पांडेय ने वर्मी कम्पोस्ट (केंचुआ खाद) उत्पादन को व्यवसाय के रूप अपनाकर लाखों का कारोबार वाली आर्गेनिक फर्म के रूप में स्थापित कर दिया है। इसके माध्यम से वे कई लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं। 
नागेन्द्र पांडेय बताते हैं कि सन् 2000 में महज 40 केंचुओं के साथ वर्मी इकाई की शुरुआत की। सन् 2014 तक 35 वर्मी कम्पोस्ट इकाई तैयार हो गई। आज 35 से ज्यादा वर्मी कम्पोस्ट की इकाईयां हैं जो किसानों को जैविक खाद उपलब्ध भी कराती हैं और उन्हें जैविक क़ृषि के लिए जागरूक भी करती हैं। इस कार्य को मैंने स्व-प्रेरणा से किया। आज यह आर्थिक आय का बड़ा श्रोत होने के साथ ही लोगों को रोजगार भी मुहैया करा रहा है।उन्होंने बताया कि मेहनत-लगन के साथ-साथ उत्पाद की गुणवत्ता भी व्यवसाय में कामयाबी का मुख्य कारक है। महज कुछ केंचुओं से वर्मी कंपोस्ट का काम शुरू किया। गुणवत्ता से समझौता नहीं किया, लिहाजा बाजार में पकड़ बन गई। 
जैविक कृषि को प्रोत्साहन के इस दौर में जैविक खाद की मांग देश ही नहीं दुनिया में भी दिनोंदिन बढ़ती जाएगी। 
क्या है जैविक खाद जैविक खाद मूल रूप से एक व्यवस्थित कीट-पोषण प्रक्रिया है जिसमें मिट्टी के भीतर विद्यमान अन्य जैविक पदार्थों का अवशोषण कर मिट्टी को उपजाऊ बनाया जाता है। खाद बनाने संबंधी, यूएसडीए के दिशानिर्देशों के अनुसार (21 अक्टूबर 2002 से प्रभावी) जैविक खाद में घास-फूस अथवा पशुओं का अपशिष्ट होता है जिसमें मुख्य रूप से छोटे-छोटे केंचुओं का जैविक मिश्रण होता है। चूंकि यह पदार्थ केंचुओं के आंत से होकर गुजरता है, अतः यह जैविक पदार्थों का बायोआक्सीडेशन एवं स्टेबिलाइज़ेशन कर वायु में उपलब्ध माइक्रो आर्गनिज़्म और केंचुओं के संगम से गैर-थर्मोफिलिकल विधि से तैयार किया जाता है। 
जैविक खाद विधि से बहुत कम समय में सामान्य तापक्रम के अंतर्गत अच्छी गुणवत्ता वाली खाद तैयार की जा सकती है। जिसमें केंचुओं की समूचत प्रजातियों का उपयोग होता है। इसमें केंचुओं की आंतों में विद्यमान सेल्लुलाज तथा माइक्रो आर्गनिज़्म मिलकर निगले हुए जैविक पदार्थों का बड़ी तेजी से विघटन करते हैं। ये केंचुए अपनी पाचन क्रिया और जैव पदार्थों के संयुक्त मिश्रण के प्रभाव से एक अपशिष्ट पदार्थ बाहर छोड़ते हैं जिसे वर्मिकंपोस्टिंग कहा जाता है और यह खाद के गड्ढों में बिना केंचुओं के नहीं पाया जाता है। 
केंचुआ बहुत आदिक मात्रा में खाना खाने वाले होते हैं, वे बायोडिग्रेडबल पदार्थ का अक्षण करते हैं और उसका कुछ भाग अपशिष्ट पदार्थ या वर्मिकास्टिंग्स के रूप में बाहर छोड़ते हैं। पोषक तत्वों से युक्त वर्मी-कास्टिंग पौधों के लिए एक पौष्टिक खाद है। यह कृमि खाद, पोषक तत्वों की आपूर्ति एवं पौधों में हार्मोन्स को बढ़ाने के अलावा, मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार लाता है जिससे मिट्टी द्वारा पानी और पोषक तत्व धारण करने की क्षमता में वृद्धि होती है। जिन फल, फूल और सब्जियों तथा पौधों के अन्य उत्पादों में वर्मी-कम्पोस्ट का (केंचुआ) के उत्पादन में रुचि ले रहे हैं। इसकी लागत प्रति किग्रा दो रुपए से भी कम होने के कारण, इसे चार से से  साढ़े चार रु. प्रति किग्रा तक बेचने से भी काफी लाभप्रद है। 
प्रक्रिया उथली सतहों में कृषि कचरे और गाय के गोबर तथा फसलों के अवशेष इत्यादि के साथ केंचुओं का उपयोग कर खाद बनाने की प्रक्रिया धीरे-धीरे फैलती जा रही है। केंचुओं को गर्मी से बचाने के लिए गड्ढों को उथला रखा जाता है, ताकि केंचुओं को बनने वाली ऊष्मा से बचाया जा सके अन्यथा वे मर सकते हैं। उनके द्वारा अपशिष्ट पदार्थ को तीव्रता से बाहर छोड़ने के लिए सामान्य तापक्रम लगभग 30 डिग्री सेंटीग्रेड के आसपास रखा जाता है। अंततः इस प्रक्रिया ट्वारा उत्पन्न उत्पाद को वर्मीकम्पोस्ट कहा जाता है जो केंचुओं द्वारा खाये गए जैविक पदार्थों के अपशिष्ट से बनता है। इस प्रक्रिया में चारों तरफ से खुला एक शेड के अंदर ईंटों से बना 0.9 से 1.5 मीटर तक चौड़ा तथा 0.25 से 0.3 तक ऊंची एक क्यारी बनाई जाती है। 
वाणिज्यिक उत्पादन के लिए, यह हौदा (Bed) समानरूप से 15 मीटर तक लंबा, 1.5 मीटर तक चौड़ा तथा 0.6 मीटर तक ऊंची बनाई जा सकती है। क्यारी की लंबाई सुविधानुसार बनायी जा सकती है, परंतु उसकी चौड़ाई तथा ऊंचाई नहीं बढ़ाई जा सकती है क्योंकि चौड़ाई अधिक रखने से संचालन सुविधा प्रभावित होती है तथा ऊंचाई अधिक रखने से गमों के कारण तापक्रम बढ़ सकता है। 2.2 गोबर तथा खेत के कचरों को परतों में लगाया जा सकता है जिससे कि 0.6 मीटर से 0.9 मीटर तक ऊंचा ढेर लग जाए। 
परतों के बीच प्रति घनमीटर कयारी आयतन में 350 केंचुओं को रखा जा सकता है जिसका वजन लगभग 1 किलोग्राम होता है। क्यारी पर पानी का छिड़काव कर 40-50 प्रतिशत तक नमी और 20-30 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम रखा जाता है। 2.3 जब उत्पादन का लक्ष्य व्यावसायिक पैमाने पर हो तो आरंभ में उत्पाटन लागत के अतिरिक्त पूंजीगत वस्तुओं में निवेश की ज्यादा जरूरत होती है। 
प्रति टन उत्पादन क्षमता के लिए पूंजीगत लागत लगभग पांच हाजर से छह हजार रुपए तक आती है। पूंजीगत लागत अधिक इसलिए होती है क्योंकि बड़ी इकाइयों के स्थापन में वर्मी-क्यारियां तैयार करने तथा उनके शेल्टर एवं मशीनरी के लिए शेड बनाने पर खर्च ज्यादा होता है, हालांकि यह व्यय केवल एक बार ही होता है। 
2.4 परिचालन लागत के तहत कच्चे एवं तैयार माल की ढुलाई प्रमुख गतिविधियां हैं। जब जैविक कचरे एवं गोबर का स्रोत उत्पादन स्थल से दूर हो तथा तैयार माल को कहीं दूर मार्केट तक पहुंचाने के लिए परिवहन की आवश्यकता हो, तो परिचालन लागत बढ़ भी सकती है। 2.5 यद्यपि, अधिकांश मामलों में वर्मी-कम्पोस्ट का उत्पादन आर्थिक रूप से व्यवहार्य तथा बैंक साध्य है। फिर भी इसका उत्पादन इकाई स्थापित करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। 
केंचुएं की प्रजातियां अपने विविध प्रकार के आहार एवं बिल बनाने की आदतों के कारण भारत की मिट्टी में रहने वाले केंचुओं की लगभग 350 विभिन्न प्रजातियों में से एसनेसिया फेटिडा, एड्रिलस यूजीनिया और पेरिनोक्स एक्स्कैवाटस नामक कुछ ऐसी प्रजातियां हैं जो जैविक कचरों को बड़ी तेजी से खाद में बदल देती हैं। इसके अतिरिक्त, केंचुओं के संयुक्त रूप (जैसे एपिजिक प्रजातियाँ जो अपना स्थायी बिल नहीं बनाती हैं और मिट्टी के सतह पर रहती हैं, एनेकिक प्रजातियाँ जो अस्थायी एवं सतह से लम्बवत बिल बनाती हैं तथा एंडोजिक प्रजातियाँ जो हमेशा मिट्टी के गहरे सतह में रहती हैं) के उत्पादन पर भी विचार किया जा सकता है। किसी भी अवशोषित हो सकने वाले पदार्थ और वर्मिकंपोस्टिंग इकाई में केंचुओं के आहार के लिए वह जगह, इकाई उपयुक्त होती है जहां पर्याप्त मात्र में जैविक कचरों का उत्पादन होता है। 
एक केंचुआ लगभग 6 हफ्तों में प्रजनन के लिए तैयार हो जाता है जो हर 7-10 दिनों में अंडा-कैप्सूल के रूप में एक अंडा देता है। जिसमें 7 श्रूण रहते हैं। प्रत्येक कैप्सुल में से लगभग 3-7 केंचुए निकलते हैं। इस तरह, अनुकूलतम परिस्थितियों में केंचुओं की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ती है। केंचुए लगभग 2 वर्ष तक जीते हैं। पूरी तरह से विकसित केंचुओं को अलग किया जा सकता है और उन्हें एक ओवन में सुखाकर कृमि-आहार के रूप में तैयार किया जा सकता है। जिसमें 70 प्रतिशत तक प्रोटीन का समृद्ध स्रोत पाया जाता है जिसे पशु-आहार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। 
उपयुक्त स्थान कच्चे माल की उपलब्धता एवं उत्पादों की मार्केटिंग को ध्यान में रखते हुए बड़े पैमाने की वर्मिकम्पोज़ इकाइयों की स्थापना कृषि प्रधान ग्रामीण क्षेत्रों, शहरों, उपनगरीय क्षेत्रों और गांवों की बाहरी परिधि में सबसे उपयुक्त मानी जाती है। चूंकि फलों, सब्जियों, पौधों तथा सजावटी फसलों के विकास में खाद को अत्यंत उपयोगी माना जाता है, अतः वर्मिकम्पोज़ इकाइयों की स्थापना के लिए ऐसी जगहों को उपयुक्त माना जाता है जहां पर अधिक मात्र में फल-फूल तथा सब्जियां उगाई जाती हरें। इसके अलावा यदि पास में कोई व्यावसायिक डेयरी इकाई अथवा जहां पर अधिक संख्या में पशुओं की गौशाला हो वहां पर सस्ते कच्चे माल यानी गाय के गोबर की आसान उपलब्धता का अतिरिक्त लाभ होगा वर्मी कम्पोस्ट इकाई लगागर जैविक खेती को बढ़ावा देने के साथ रोजगार के अवसर और आर्थिक स्थिति में भी सुधार लाया जा सकता है। 

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