जलवायु वार्ता का प्रमुख एजेंडा बने क्लाइमेट फाइनेंस

निशांत

विशेषज्ञों की मानें तो मिस्र में आयोजित होने वाले जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन सीओपी27 में उन लक्ष्यों और पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की जानी चाहिए, जिनका जलवायु परिवर्तन की रोक थाम से गहरा सरोकार है। भारत जी20 देशों की बैठक की मेजबानी कर रहा है और अंतरराष्ट्रीय जलवायु कूटनीति में भारत की स्थिति बदल रही है। ऐसे में भारत ने विकसित देशों से जलवायु वित्त के लिये अतिरिक्त धनराशि हासिल किए जाने की जरूरत का जिक्र किया है। इस बारे में टेरी के फेलो आर. आर. रश्मि ने कहा कि जलवायु वित्त के तौर पर 100 अरब डॉलर जुटाये जाने का सवाल दिलचस्प है। इस पर लंबे समय से चर्चा हो रही है और यह मुद्दा पिछले साल ग्लास्गो में हुई सीओपी26 शिखर बैठक के भी प्रमुख मुद्दों में शामिल था और विकसित देशों ने स्वीकार किया था कि वे 100 अरब डॉलर जुटाने में नाकाम रहे हैं। बेशक फंड जुटाने के काम में निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय पूंजी बाजार के संसाधन को भी इस्तेमाल में लिया जाना शामिल है।
रश्मि ने कहा ’हमने नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशंस (एनडीसी) और काफी हद तक प्रदूषण उत्सर्जन के सवालों के जवाब दे दिए हैं। हर देश ग्लोबल वार्मिंग को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए रजामंद हो गया है। बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने अपने नेटजीरो संबंधी लक्ष्य भी घोषित कर दिए हैं लेकिन यह 100 मिलियन डॉलर का मसला अब भी नहीं सुलझा है। ऐसे में प्रयासों और उत्साह की कमी तथा संसाधनों को जुटाने का सवाल है तो मेरा मानना है कि हम इसे शर्म अल शेख में सुलझा सकते हैं।’ उन्होंने कहा कि जहां तक 100 अरब डॉलर जुटाने का सवाल है तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत को इसका फायदा नहीं मिला है। अगर आप ग्रीन क्लाइमेट फंड में धन के प्रवाह को देखें तो यह बहुत थोड़ा सा है। कुल ग्रीन क्लाइमेट फंड 10 से 12 अरब डॉलर से ज्यादा नहीं है। भारत में केवल 6 परियोजनाएं ही जीसीएफ फंडिंग से लागू हुई है और यह फंड बहुत छोटे हैं। जीसीएफ द्वारा वित्त पोषित परियोजनाओं का 96 फीसद हिस्सा दूसरे देशों के पास गया है, इसलिए मैं यह बात पूरी निश्चिंता के साथ कह सकता हूं कि यह 100 बिलियन बिलियन डॉलर भारत के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। मगर यह विकसित हो रही दुनिया के लिए निश्चित रूप से अहम है। यह बहुत महत्वपूर्ण संकेत है। रश्मि ने कहा ‘हमें अब दीर्घकालिक प्रक्रिया की तरफ देखने की जरूरत है। दो वर्षों के अंदर फाइनैंशल मोबिलाइजेशन के लिए नया और सामूहिक लक्ष्य शर्म अल शेख में संपन्न नहीं हो पाएगा क्योंकि अभी इस पर काम चल रहा है, मगर सीओपी27 के दौरान मंच पर कुछ नए विचार जरूर सामने आएंगे। वे विचार 100 बिलियन डॉलर जुटाने और नए तथा सामूहिक लक्ष्य के लिहाज से निश्चित रूप से प्रासंगिक होंगे। इससे पहले मसला यह होगा कि संसाधनों की बढ़ी हुई प्रिडिक्टिबिलिटी और ट्रांसपेरेंसी के मसले को सुलझाना होगा। इस मामले को पारदर्शी और आकलन योग्य कैसे बनाया जाए, यह सबसे बड़ा सवाल होगा। यह तब तक नहीं सुलझेगा, जब तक हम इससे जुड़े मूलभूत मुद्दों का समाधान नहीं निकालेंगे। क्लाइमेट पॉलिसी इनीशिएटिव के निदेशक ध्रुव पुरकायस्थ ने क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर 100 बिलियन डॉलर जुटाने के प्रयासों की आलोचना करते हुए इसे बेहद नाकाफी बताया। उन्होंने कहा ‘कागज पर 100 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष की बात लिखी गई है और इसकी शुरुआत वर्ष 2009 में कोपनहेगन में आयोजित सीओपी15 से हुई थी और ग्लास्गो में भी यह आंकड़ा कुल 100 अरब डॉलर ही था।’
उन्होंने कहा कि वर्तमान में हम देख रहे हैं कि जलवायु में 630 बिलियन डॉलर का निवेश हो रहा है, मगर हमें आधा ट्रिलियन से तीन ट्रिलियन तक के निवेश की जरूरत है इसलिए यह अंतर बहुत बड़ा है। निवेश के लिहाज से देखें तो आंकड़े बहुत हल्के हैं। हमें एक नेटजीरो ग्रिड की जरूरत है। इसके बगैर नेट जीरो का संभवतरू कोई मतलब नहीं रहेगा। यहां मैं भारत की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की बात कर रहा हूं। हमें हर साल 4.3 ट्रिलियन डॉलर की जरूरत है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का कहना है कि इसके लिए निवेश सभी देशों की जीडीपी का चार प्रतिशत होना चाहिए। मगर वर्तमान हालात में यह संभव नहीं दिखता कि हर देश में जीडीपी में निवेश में चार फीसद की बढ़ोत्तरी हो जाए। टेरी के फेलो दीपक दास गुप्ता ने कहा कि सीओपी एक बहुपक्षीय मंच है। यह एक सामूहिक लक्ष्य निर्धारित करने के लिए राजनीतिक चर्चा का मंच है। सीओपी सभी पक्षों को एक साथ लाकर उन्हें विचार-विमर्श में शामिल करने का मंत्र उपलब्ध कराता है। दुनिया के पास अब गलती की कोई गुंजाइश नहीं बची है। कुछ मैक्रो इकोनॉमिक चक्र जारी रहने चाहिए। सीओपी 27 को इस दीर्घकालिक सामूहिक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि आखिर वित्त पोषण का वह कौन सा स्तर है जो हमें जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी नतीजों से बचा सके। इसके अलावा वे कौन से तरीके हैं जिनसे हम बचाव के इस लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं, लिहाजा शमन के लिए दीर्घकालिक वित्त का आकार और पैमाना ही यह बताता है कि हम एक ट्रिलियन डॉलर क्लाइमेट फाइनेंसिंग के आंकड़े से बहुत पीछे हैं, जबकि आईपीसीसी की रिपोर्ट यह इशारा करती है कि हमें हर साल पांच से सात ट्रिलियन डॉलर की जरूरत है। ऐसे में पहला सवाल यह है कि क्या यह संभव है कि वैश्विक वित्त प्रणाली कोशिश करके इस लक्ष्य तक पहुंचेगी। उन्होंने कहा कि यह निश्चित रूप से संभव है। यूएनईपी की एमिशंस गैप रिपोर्ट में एक पूरा अध्याय इसी बात को समर्पित है कि हम उस स्तर तक पहुंचने के लिए चीजों को किस तरह से बढ़ा सकते हैं। हमारे पास इस लक्ष्य तक पहुंचने की उम्मीद इस कारण से जुड़ी है कि ग्लोबल फाइनेंस अकूत है। अगर हम ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम के क्रेडिट का आकार देखें तो यह 225 ट्रिलियन डॉलर है। ऐसे में सवाल यह है कि आप किस तरह का रवैया अपनाते हैं। बैंक, संस्थागत वित्त पोषक पुर्नआवंटन शुरू करते हैं या नहीं। सीओपी27 में इस पहलू पर ध्यान केंद्रित करते हुए सार्थक चर्चा कराई जानी चाहिए कि आप किस तरह से वित्त प्रणाली को उस दिशा में ले जाने की योजना बनाते हैं जहां होने की दुनिया को जरूरत है।

(लेखक सोसियो-पॉलिटिकल एनालिस्ट और क्लाइमेट साइंस कम्युनिकेटर के रूप में सक्रिय हैं।)

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