जनसंख्या वृद्धि खुशी के साथ चिंता भी !
प्रमोद भार्गव
भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां दुविधा और विरोधाभास प्रगति के समानान्तर चलते हैं। अतैव जनसंख्या बल जहां शक्ति का प्रतीक है, वहीं उपलब्ध संसाधनों पर बोझ भी है। इसलिए अनेक समस्याएं भी सुरसामुख बन खड़ी होती रहती हैं। हालात तब और कठिन हो जाते हैं, जब संसाधनों के बंटवारे में विसंगति बढ़ती चली जा रही हो? गोया कहा जा सकता है कि बढ़ती आबादी वरदान नहीं बोझ है। नतीजतन ‘संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष’ की रिपोर्ट ने जब ये आंकड़े जारी किए कि भारत की आबादी चीन से अधिक बढ़ गई है, तो चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। हालांकि यह संभावना बहुत पहले से जताई जा रही थी कि भारत आबादी के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा।
वर्तमान में दुनिया की आबादी आठ अरब की संख्या पार कर चुकी है। भारतीय आबादी के ताजा आंकड़ों के अनुसार इसमें प्रत्येक पांचवें व्यक्ति में से एक भारतीय है, क्योंकि भारत 142.86 करोड़ जनसंख्या के साथ विश्व का सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन गया है। चीन की आबादी इस समय 142.57 करोड़ है। हमारी आबादी उससे 29 लाख अधिक है। भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश को जहां यह बड़ी चुनौती है, वहीं उसे वरदान बनाने की जरूरत है। हालांकि जागरुकता और परिवार नियोजन के उपायों के चलते दुनिया में जन्मदर घटी है।
भारत दुनिया का ऐसा पहला देश है, जिसने आबादी पर नियंत्रण के लिए 1952 में परिवार नियोजन कार्यक्रम आरंभ किया था। बावजूद जनसंख्या वृद्धि होती रही है। जनसांख्यिकीय विश्लेषण का निष्कर्ष बताता है कि 1950 के बाद वर्तमान में जन्मदर सबसे कम है। यहां सवाल उठता है कि फिर आबादी का घनत्व क्यों बढ़ रहा है ? दरअसल चिकित्सा सुविधाओं और एक वर्ग विशेष की माली हैसियत बढ़ने से औसत उम्र बड़ी है। इस दायरे में आने वाले लोग उत्पादकता से जुड़े नहीं रहने के बावजूद उच्च श्रेणी का जीवन जी रहे हैं। नतीजतन यह आबादी जापान, चीन और दक्षिण कोरिया की तरह भारत के युवाओं को रोजगार में बाधा बन रही है। भारत में सबसे अधिक बेरोजगारी 15 से 36 आयु वर्ग के युवाओं में है।
अब जबकि हम आबादी में चीन से आगे हैं, तब हमें चीन से यह सबक लेने की जरूरत है कि उसने अपने मानव संसाधन को किस तरह से श्रम और उत्पादकता से जोड़ा और दुनिया के बाजारों को अपने उत्पादों से पाट दिया। क्योंकि चीन में बड़ी आबादी के बावजूद रोजगार का संकट भारत की तरह नहीं गहराया। जाहिर है, चीन की उन्नति और उत्पादकता में इसी आबादी का रचनात्मक योगदान रहा है। सस्ते कुशल एवं अर्द्धकुशल लोगों से उत्पादन कराकर चीन ने अपना माल दुनिया के बाजारों में भर दिया है। जबकि भारत बड़ी कंपनियों को सब्सिडी देने के बावजूद स्वदेशी उत्पादन में आबादी के अनुपात में उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर पाया।
मेक इन इंडिया के नाम पर हाल ही में दो कंपनियों हीरो इलेक्ट्रिक और ओकीनावा की 370 करोड़ रुपये की सब्सिडी की राशि देने पर भारत सरकार ने रोक लगा दी है। सरकार ने फास्टर एडाॅप्सन एंड मैन्यू फैक्चरिंग ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (फेम)-2 योजना के तहत दोपहिया इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री को प्रोत्साहित करने के लिए 10,000 करोड़ रुपये का बजट तय किया है। भारी उद्योग मंत्रालय की तरफ से प्रत्येक इलेक्ट्रिक वाहन को सब्सिडी दी जाती है। इलेक्ट्रिक स्कूटर पर 15,000 रुपये प्रति किलोवाट के हिसाब से सब्सिडी दी जाती है। लेकिन यह सस्सिडी तभी दी जाएगी, जब उत्पादन स्वदेशी के स्तर पर किया जाए।
यदि हम चीन में ज्ञान-परंपरा से दीक्षित लोगों को रोजगार देने की बात करें तो वहां सरकार या कंपनी द्वारा गांव-गांव कच्चा माल पहुंचाया जाता है। जब वस्तु का निर्माण हो जाता है, तो उस माल को लाने और मौके पर ही भुगतान करने की जबावदेही संस्थागत है। इसका फायदा यह होता है कि ग्रामीण अपने घर में ही वस्तु का उत्पादन कर लेता है। नतीजतन वस्तु की लागत न्यूनतम होती है। यदि यही व्यक्ति शहर में जाकर उत्पादकता से जुड़े तो उसे कमाई की बड़ी राशि रहने, खाने-पीने और यातायात में खर्च करनी पड़ जाती है। भारत में उत्पादन के छोटे-बड़े कारखाने शहरों में हैं। लिहाजा वस्तु की लागत अधिक आती है। चीन में होली, दीपावली और रक्षाबंधन से जुड़ी जो वस्तुएं आयात होती हैं, उनका उत्पादन चीन के गांवों में ही होता है। जाहिर है, यदि बड़ी जनसंख्या उत्पादन से जुड़ जाए तो बेरोजगारी की समस्या से एक हद तक छुटकारा मिल सकता है।
यह बात लोगों को रोजगार से जोड़ने की हुई, लेकिन जनसंख्या वृद्धि पर नीति बनाए बिना बात बनने वाली नहीं है। दो बच्चों की यह नीति सभी धर्म एवं समुदायों के लोगों पर समान रूप से लागू हो, क्योंकि जनसंख्या एक समस्या भी है और एक साधन भी है। लेकिन जिस तरह से देश के सीमांत प्रांतों और कश्मीर में जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ रहा है, उस संदर्भ में जरूरी हो जाता है कि जनसंख्या नियंत्रण कानून जल्द वजूद में आए। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ हिंदुओं की आबादी घटने पर कई बार चिंता जता चुका है। कश्मीर, केरल समेत अन्य सीमांत प्रदेशों में बिगड़ते जनसंख्यात्मक अनुपात के दुष्परिणाम कुछ समय से प्रत्यक्ष रूप में देखने में आ रहे हैं।
कश्मीर में पुश्तैनी धरती से पांच लाख विस्थापित हिंदुओं का पुनर्वास अनुच्छेद-370 हटने के बाद भी आतंकी घटनाओं के चलते नहीं हो पाया है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के चलते असम व अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में बदलते जनसंख्यात्मक घनत्व के कारण दंगों के हालात उत्पन्न हो जाते हैं। यही हालात पश्चिम बंगाल के हैं। जबरिया धर्मांतरण पूर्वोत्तर और केरल राज्यों में बढ़ता ईसाई वर्चस्व ऐसी बड़ी वजह बन रही है, जो देश के मौजूदा मानचित्र की शक्ल बदल सकती है ? चंद तथाकथित बौद्धिक जन जनसंख्या नियंत्रण के नीतिगत उपायों में बड़ी बाधा हैं और ये तर्क से ज्यादा कहीं कुतर्क करते हैं। लिहाजा परिवार नियोजन के एकांगी उपायों को खारिज करते हुए आबादी नियंत्रण के उचित उपायों पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)