गोवा मुक्ति का ऐतिहासिक सच!
के. विक्रम राव
पुर्तगाली दासता से गोवा को मुक्त हुए (19 दिसम्बर 1961) छह दशक हो गए। मगर श्रेय गया भारतीय सेना को, न कि स्वाधीनता-संग्राम सेनानियों को। अतः संदेह भी व्यक्त किया जाता रहा कि महात्मा गांधी ने तीन दशकों में बत्तीस लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल के समूचे भारत को स्वतंत्र करा लिया, मगर पौने चार सौ वर्ग किलोमीटर के गोवा से यूरोपीय साम्राज्यवादियों को खदेड़ने में सत्तासीन जवाहरलाल नेहरू ने इतने साल क्यों लगा दिए? वह भी प्रधानमंत्री द्वारा बार-बार ऐलान करने के बावजूद भी कि गोवा में भारत सैनिक कार्यवाही कदापि नहीं करेगा। मगर वहीं बल प्रयोग किया गया। तीसरी लोकसभा के मतदान के ठीक दो माह पूर्व ही फौजी कार्यवाही क्यों? लोहिया पर शोधकर्ताओं, जिनमे संयोजक अभिरंजन सिंह प्रमुख हैं, के दस्तावेजी प्रमाणों के आधार पर अब सच की खोज हुई है। तब वीके कृष्ण मेनन, भारत के रक्षा मंत्री और नेहरू के अनन्य सखा, उत्तर बम्बई से कांग्रेस के प्रत्याशी थे। उनके प्रतिद्वंदी थे आचार्य जेबी कृपलानी, स्वाधीनता सेनानी और पूर्व राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष। वे निर्दलीय उम्मीदवार थे। उनकी जीत तय थी। प्रथम और द्वितीय (1952 तथा 1957) लोकसभा के मतदान की तुलना में तीसरी लोकसभा का चुनाव नेहरु-कांग्रेस हेतु काफी दुविधाजनक तथा आशंकामय भी हो गया था। उस वक्त स्वयं अपने फूलपुर (प्रयागराज) लोकसभा निर्वाचन में प्रधानमंत्री का सोशलिस्ट प्रतिद्वंद्वी डा. लोहिया से मुकाबला था। बाद में मतगणना में दिखा कि नेहरु के मिले हर दो वोट की तुलना में लोहिया को एक वोट मिला था। नेहरु ने नामांकन के दिन ही जनसभा में घोषणा की थी कि वे फिर चुनाव अभियान में इलाहाबाद नहीं आ पायेंगे। मगर तीन बार आये। लोहिया की चुनौती इतनी गंभीर थी। उसी वक्त बम्बई में भी आभास हो रहा था कि कृपलानी से संघर्ष में मेनन पराजित हो जायेंगे। उनकी छवि तब तक पूर्णतया कम्युनिस्ट चीन-समर्थक वाली हो गयी थी। उसी दौर में पाकिस्तानी राष्ट्रपति मार्शल मोहम्मद अयूब खान ने नेहरु के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि संयुक्त सैनिक संधि बने ताकि दोनों राष्ट्रों की सुरक्षा हो सके। इस पर नेहरु का व्यंग था, ‘संयुक्त सैनिक संधि! किसके विरुद्ध?’ क्योंकि मेनन ने ऐसा माहौल बना दिया था कि भारत पर आक्रमण का खतरा माओवादी चीन से नहीं, वरन अमेरिका-समर्थित इस्लामी पाकिस्तान से है। वरिष्ठ कांग्रेसी पुरोधाओं (एसके पाटिल, मोराजी देसाई आदि) ने नेहरु को कम्युनिस्ट-प्रेमी मेनन के विरुद्ध सचेत भी किया था। पर कोई असर नहीं पड़ा।
इन सारे संवेदनशील विदेश एवं सेना के विषयों पर नेहरु काबीना के वरिष्ठ मंत्री मोरारजी देसाई ने अपनी आत्मकथा, ‘स्टोरी आफ माई लाइफ’ (भाग दो, प्रकाशक: मैकमिलन, दिल्ली, बम्बई, 1974 पृष्ठ 175) में लिखा था: “राज्यपालों के सम्मेलन में अपने उद्घाटन भाषण में राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा भी था कि “गोवा को स्वतंत्र कराने हेतु हमारी (नेहरु) सरकार शांतिपूर्ण प्रयास कर रही है।” मगर आश्चर्य व्यक्त करते हुये मोरारजी ने आगे लिखा कि उसी वक्त उन्हें सरकारी सूचना मिली थी कि रेल मंत्री को बताया गया कि “गुलाम गोवा से लगे बेलगाम (अब बेल्गावी) रेलवे स्टेशन से विशेष रेलों में भारतीय सैनिक को सीमा पार ले ले जाने की व्यवस्था की जाये।’ इस विषय की सूचना केवल रक्षामंत्री वीके कृष्णमेनन को ही थी। जब मोरारजी को सैन्य कार्यवाही का पता चला तो उन्होंने विरोध किया, ‘गांधीवादी भारत कई बार ऐलानिया तौर पर विश्व को बता चुका है कि इन पुर्तगाली उपनिवेश को अहिंसक तरीके से मुक्त कराया जायेगा।’ मोरारजी देसाई ने स्पष्ट लिखा, ‘चौदह वर्षों से हम देश दुनिया को यही बताते रहे कि गोवा को वार्ता द्वारा स्वाधीन करायेंगे।’ तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष यूएन धेबर ने भी देसाई की राय का अनुमोदन किया था। देसाई के विचार में मेनन ने अपनी लोकसभा सीट जीतने हेतु ऐसे सैन्य कदम की ताइद करायी थी। उनका सुझाव था कि यदि अपरिहार्य हो तो, तीसरी लोकसभा के मतदान के बाद ऐसी सैन्य कार्रवाही की जाये। ताकि मौकापरस्ती का आरोप न लगे। मगर मेनन की जिद के सामने नेहरु झुक गये। फिर सेना गोवा गयी। पुर्तगाली भागे। और मेनन चुनाव जीत गये। पर नियति का खेल था। सात माह बाद (अक्टूबर 1962) लाल चीन की सेनाओं ने पूर्वाेत्तर भारत पर हमला किया। जनाक्रोश के परिणाम स्वरुप रक्षा मंत्री मेनन को नेहरु ने बर्खास्त कर दिया। तभी संसद में एक प्रश्न पूछा गया था, ‘कितनी सीमावर्ती भूमि चीन के कब्जे में है? कितनी मुक्त करा ली गयी है?’ नये रक्षामंत्री यशवंतराव बलवंतराव चह्वान का उत्तर था, ‘यथास्थिति बनी है।’ अर्थात 43180 वर्ग किलोमीटर भूमि चीन ने हथिया ली है। विपक्ष के किसी सांसद ने पूछा भी कि खाली कराने के क्या प्रयास किये जा रहे हैं?’ कांग्रेसी सांसद ने ही तंज कसा कि पूर्व मंत्री मेनन के अनधिकृत कब्जे से उनका नयी दिल्ली स्थित बंगला राज्य सम्पत्ति विभाग खाली नहीं करा पायी? मेनन चुनाव जीत गये। गोवा आया, किन्तु अरुणाचल और लद्दाख की भूमि चीन ले गया। आज भी उसी का है।
‘लोहिया एक जीवनी’ में उल्लिखित है कि है, ‘फ़रवरी 1947 में नेहरू ने यहां तक कह दिया कि गोवा का प्रश्न महत्वहीन है। उन्होंने इस पर भी संदेह जताया कि गोवा के लोग भारत के साथ आना चाहते हैं। इसके बाद गोवा की स्वतंत्रता का आंदोलन मुरझाने लगा। लेकिन गोवा के लोगों का मन बदल चुका था, उनकी स्वतंत्र आत्मा के प्रतीक बन चुके थे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया।’ यूं तो गोवा मुक्ति संग्राम एक सदी से अधिक पुराना है। उसमे तेजी आई 18 जून 1946 को जब डॉ राममनोहर लोहिया, प्रथम सत्याग्राही को पुर्तगाली सरकार ने जेल में डाला था। गोवा को पुर्तगालियों की ग़ुलामी से निजात दिलाने के लिए 1946 से लेकर 1961 के बीच अनगिनत हिन्दुस्तानियों ने अपनी जान की क़ुर्बानियां दीं। बहुत सारे लोग बरसों पुर्तगाली जेलों में रहे और उनकी यातनायें सहीं उनमें से एक वीर का नाम रहे लोहिया के अनन्य शिष्य मधु लिमये है। गोवा आज भारत का हिस्सा है तो इसका एक बड़ा श्रेय डा लोहिया और उनके मधु लिमये को जाता है। कृपलानी जी बनाम कृष्ण मेनन चुनाव के दौरान रिपोर्टर के नाते मेरा निजी सामीप्य दादा से हुआ। तभी बम्बई “टाइम्स आफ इंडिया” के प्रथम प्रशिक्षण बैच में मैं भर्ती हुआ था। दादा का कृष्ण मेनन से मुकाबला जबरदस्त था। मेनन की बर्खास्तगी ही नहीं, तीसरी लोकसभा के परिणामों से भी यह स्पष्ट हो गया था। नेहरू कांग्रेस की दशा खराब थी। पिछले लोकसभा (1957) में उन्हें 488 सीटें मिली थी। कांग्रेस इसमें से 157 लोकसभा सीटें हार गई। कारण रहा कि प्रधानमंत्री के दामाद सांसद फिरोज गांधी ने वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी के विरुद्ध उद्योगपति मूंदड़ा काण्ड में लिप्त होने का अभियान चलाया था। प्रतिरक्षा मंत्रालय की चीनपरस्ती से भी कांग्रेस बदनाम होती जा रही थी। जनाक्रोश (1957-62) का सामना नेहरू-मेनन द्वय को करना पड़ रहा था। नेहरूवाला नारा “हिंदी-चीनी भाई भाई” फिर “बाई-बाई” में तब्दील हो गया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आइएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)
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