काश, हम उपवास को सही अर्थों में लेते!
पं. गौरव कृष्ण शास्त्री
संबत सहस मूल फल खाए।
सागु खाइ सत बरष गंवाए।
कछु दिन भोजन बारि बतासा।
किए कठिन कछु दिन उपवासा।
पार्वती जी शिव जी को प्रसन्न करने हेतु तपस्या के क्रम में सर्वप्रथम भोग विलासिता का त्याग करती हैं…पति पद सुमिरि तजेउ सब भोगू। फिर एकाग्रता बनाकर स्वयं को तपस्या के अनुकूल बनाईं और परिणाम यह हुआ कि मन शरीर जनित मोह से परे तपस्या पर केन्द्रित हो गया…बिसरि देह तपहिं मनु लागा। अधिकांशतः हम यहीं इसी क्रम में अटक जाते हैं क्योंकि भले ही स्पष्ट रूप से स्वीकार न करें पर हम चंचल मन, मोह से मुक्त नहीं हो पाते हैं। परंतु पार्वती जी इससे आगे बढ़कर तपस्या को गति प्रदान करती हैं… संबत सहस मूल फल खाए। एक हजार वर्ष तक वन में मिलने वाले कंद मूल फल खाकर तपस्या करती हैं। सागु खाइ सत बरष गंवाए। उन्होंने सौ वर्ष साग-पात खाकर व्यतीत किया, और उन्हें सफलता नहीं मिली इसलिए उन्हें लगा कि तपस्या इस प्रकार से चली तो दुराराध्य महेश्वर प्रसन्न नहीं होंगे। और जिस तपस्या से शिव जी प्रसन्न ही नहीं होंगे, वह व्यर्थ ही है, हमने कुल ग्यारह सौ वर्ष व्यर्थ में ही गंवा दिए। यह कैसी तपस्या है कि ग्यारह सौ वर्ष का समय कंद मूल फल, साग आदि लाने, खाने आदि में ही व्यतीत हो गया। इसलिए पार्वती जी तपस्या के क्रम में अब भोजन में कुछ दिन केवल जल ग्रहण करतीं हैं… कछु दिन भोजन बारि…।
जल को भी भोजन मानती हैं पार्वती जी। और इसके बाद कुछ दिन के बाद वे जल भी लेना बंद कर दीं… बतासा।
वायु का त्याग हम साधारण मनुष्यों के कल्पना से परे है क्योंकि हम किसी को तभी तक जीवित मानते हैं जब तक उसका स्वांस चल रहा हो। पर यह पूर्ण सत्य नहीं है कि श्वास बंद तो जीवन समाप्त हो गया, क्योंकि हमें कई बार समाचार पत्रों, टीवी माध्यमों से यह पता चलता है कि अमुक व्यक्ति अर्थी पर से जीवित हो गया। उठ कर बैठ गया आदि। ऐसा क्यों होता है कि कभी-कभी चिकित्सकों द्वारा मृत घोषित व्यक्ति भी जीवित हो जाता है? क्योंकि चिकित्सकों का मृत घोषित करने का जो पैमाना है वह ब्रह्म रंध्र में स्थित प्राण का आकलन नहीं कर पाता है। बल्कि वह तो हृदय गति देखकर, नाड़ी स्पंदन से ही ज्ञात करते हैं। और हमारे विज्ञान की जहां तक पहुंच है, हम उसे ही सत्य मानते हैं। अतः ऐसे तपस्या जिसमें वायु भी ग्रहण नहीं करना, हमारे लिए कपोल कल्पना मात्र है। पार्वती जी आगे जल त्याग कर फिर वायु का भी त्याग करती हैं और वास्तविक उपवास करने लगीं। प्राण तत्व ईशत्व के सामीप्य लाभ को प्राप्त किया और जरा गोस्वामी जी के शब्दों के प्रयोग करने की कला देखिए कि जब तक पार्वती जी कंद मूल फल खा रहीं थीं वे उसे उपवास नहीं कहते हैं। जब तक पार्वती जी साग खा कर रही थीं, तब तक गोस्वामी जी उसे तपस्या नहीं कहते हैं।
और आज के जमाने में क्या होता है? अजी सुनते हैं? क्या? आप बाजार जाकर दो दर्जन केले, एक किलो अंगूर, और एक किलो सेब लेते आइएगा! पति देव पूछ लिए कि क्यों? इतने सारे फल क्यों चाहिए? श्रीमती जी ने कहा कि आपको मालूम नहीं है कि कल सोमवार है और उस दिन मैं उपवास करती हूं? पतिदेव बाजार जाते हुए अपनी जेब टटोलते हुए मन ही मन कहते हैं कि ऐसी उपवास से बढ़िया था कि चावल दाल रोटी ही खाती तो एक दिन में पांच सौ रुपए का बिल नहीं न बनता। बीस रुपए के भोजन के बदले पांच सौ रुपए के फल चट कर गए और उपवास? अरे श्रीमती जी! पार्वती जी पतिदेव के चरणों को स्मरण कर सभी भोगों को त्याग देती हैं…पतिपद सुमिरि तजेउ सब भोगू। तो पति के चरणों को छोड़िए कम से कम अपने पतिदेव के पॉकेट का भी स्मरण करतीं? हम जल और वायु त्यागने की इच्छा नहीं करते पर उपवास के दिन के बाजार से लाने वाले सामानों के लंबी लिस्ट में संशोधन अवश्य चाहते हैं…
(छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बाल बचन मन लाई।)
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