काल के भाल पर विश्वनाथ धाम
प्रो.राकेश उपाध्याय
बाबा विश्वनाथ के नवीन प्रांगण को देखकर फारसी भाषा में लिखे गए कुल्लियात-ए-बरहमन नामक औरंगजेब कालीन दस्तावेज में दर्ज एक बूढ़े ब्राह्मण से जुड़ी घटना फिर से कागज़ों से बाहर झांकने लगी है। संभवतः इसका प्रामाणिक उल्लेख काशी का इतिहास नामक ग्रंथ में अथवा कुबेर शुकुल द्वारा लिखित वाराणसी इतिहास-वैभव में मिलता है। कथा के अनुसार, ईस्वी सन् 1669 में अप्रैल महीने की 18 तारीख को औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को ज़मींदोज़ करने का फरमान जारी किया। इसके पहले अविमुक्तेश्वर काशी विश्वनाथ मंदिर तोड़ने की शुरुआत मुहम्मद गोरी ने की थी। ई. सन 1194 में पहली बार कुतुबुद्दीन ऐबक ने मुहम्मद गोरी के आदेश पर विश्वनाथ जी के मंदिर समेत एक हजार से ज्यादा मंदिरों को ध्वस्त करते हुए पूरे उत्तर भारत को बरबाद कर रख दिया। लाखों लोगों का कत्लेआम हुआ। यही समय था कि पृथ्वीराज चौहान और जयचंद आपसी कटुता में खुद के साथ देश की राजनीति का सारा दांव मुस्लिम हमलावरों के सामने हार चुके थे। इस्लाम की खूनी तलवार ई. सन 1002-1024 के दरम्यान सोमनाथ मंदिर को पूरी तरह से कई बार लूट मारकर ध्वस्त कर चुकी थी। सौराष्ट्र, गुजरात में यह खूनी खेल पूरा कर चुकने के करीब 170 साल बाद गंगा के मैदान में चारों ओर रक्त ही रक्त फैल गया था। जिंदा रहने की एक आस बची, और कुछ भी तो नहीं बचा। फिर तो आने वाली हर सदी में मानो एक खेल हो गया। गणराज्य बार-बार इस्लाम की खूनी तलवार से भिड़ते रहे। कटते रहे, लड़ते रहे लेकिन गिरकर भी फिर-फिर उठने की जिजीविषा खत्म नहीं हुई। यही कारण है कि काशी में विश्वनाथ जी मौका देखते ही फिर से मौके पर अपनी जगह बना लेते थे। टूटने और बनने का सिलसिला हर सदी और दशक में चलने लगा। दिल्ली और आगरे में इंतजामों से इस्लाम की सियासी तलवार को जब भी फुरसत मिलती, वह फिर से विश्वनाथ मंदिर समेत हर मंदिर को ज़मींदोज करने में कसर नहीं छोड़ते। कुतुबुद्दीन के बाद रजिया सुल्तान, फिर खिलजी, उसके बाद फिरोज तुगलक (1351-1388), उसके बाद शरकी बादशाहों ने, फिर सिकन्दर लोदी (ई.1494) आदि ने वाराणसी समेत उत्तर भारत को तहस-नहस कर सारे बड़े केंद्रों को बरबाद कर डाला।
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वो बार-बार तोड़ते जाते थे लेकिन हार न मानने वाला समाज और उसका नेतृत्व हर बार मौका देखते ही विश्वनाथ मंदिर को मिट्टी से उठाकर फिर से उसका ध्वज आसमान तक तान देते थे। अस्तित्व बचाने के इस विकट संघर्ष में अकबर का समय ही अपवाद था। अकबर के समय ईस्वी सन 1580-85 के आस-पास राजा मान सिंह और राजा टोडरमल ने विश्वनाथ मंदिर का भव्यतम मंदिर शिखर फिर से वहीं पर खड़ा कर दिया, जहां आज ज्ञानवापी मस्जिद है। मस्जिद के पीछे के मंदिर के खंडहर मानसिंह और टोडरमल के बनाए मंदिर के प्राचीन अवशेष हैं। लेकिन यह शिखर भी लंबे समय तक मुस्लिम सूबेदारों को सहन नहीं हुआ। औरगंजेब के समय 18 अप्रैल 1669 ई. सन में मुगलिया स्टेट यानी सरकार के द्वारा दिया गया ये छठवां आदेश था कि विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त कर दिया जाए। और सूबेदार ने बेहद तेजी दिखाते हुए ध्वस्तीकरण का सारा काम फरमान के मुताबिक पूरा कर दिया। हजारों निरपराध हिन्दुओं का कत्लेआम करते हुए सूबेदार ने माधवराव का धौरहरा, काशी विश्वनाथ समेत बिन्दु माधव का धौरहरा और हरतीरथ में एक अन्य भव्य मंदिर तोड़कर आलमगीर के नाम से तीन-तीन मस्जिदों का निर्माण पूरा कर दिया। इस काम की पूरी विस्तृत खबर सूबेदार ने जहांपनाह की खिदमत में लिखकर भेज दी। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को दरबार में पूरी सूचना मिली कि सरकार के आदेशानुसार, उसके अमलों ने विश्वनाथ मंदिर समेत पूरा शहर ही नेस्तनाबूद कर दिया है। खबर सुनकर औरंगजेब खुशी से फूला न समाया। उस समय औरंगजेब के दरबार में एक बूढ़े 80-90 साल के ब्राह्मण जिनका असल नाम चंद्रभानु था और उन्हें जहांगीर, शाहजहां के समय से दरबार में फारसी शेरो शायरी और साहित्य आदि के सिलसिले में रखा गया था। औरंगजेब के समय भी वह दरबार में फारसी खतो-किताबत में जुटे रहते थे किन्तु धरम के पक्के थे। 90 साल की उम्र थी, मौत का कोई भय भी नहीं था। दरबार के कितने ही हाकिम उन्हें मुसलमान बना पाने में नाकाम थे, इसीलिए औरंगजेब हमेशा उन्हें चिढ़ाने के लिए कुछ ना कुछ व्यंग्य बोलता था। काशी विश्वनाथ की जगह मस्जिद तामीर की खबर पाते ही इन्हीं बरहमन से औरंगजेब ने उछलते हुए पूछा-’अरे बरहमन, तुम्हारे काशी विश्वनाथ की जगह अब मस्जिदें आलमगीर बन चुकी है। अपने विश्वनाथ के बारे में अब तुम्हारा क्या ख्याल है?’ उस बूढ़े ब्राह्मण ने बेधड़क उत्तर दिया-’जहांपनाह शेर हाजिर है, आपका हुक्म हो तो अर्ज कर दूं।’ औरंगजेब का हुक्म मिलते ही बरहमन फारसी भाषा में ही भरे दरबार में गरज उठे :
बेबीन करामातेबुतखान-ए-मरा ऐ शेख, कि चूं खराबशवद खान-ए-खुदा गरदद। (कुल्लियात-ए- बरहमन से उद्धृत) अर्थात, ऐ शेख, हमारे विश्वनाथ का यह कौतुक तो देखिए कि उनके हट जाने पर ही आपके खुदा की वहां तक पहुंच हो पाई। जहांपनाह ये समझ लें कि उस जमीन पर विश्वनाथ के मौजूद रहते पहुंचने की हिम्मत खुदा में है ही नहीं। बरहमन की बात सुनते ही औरगंजेब गुस्से में दांत पीसने लगा। उसके कारिंदे बरहमन को घूरने लगे। कितनों की मुट्ठियां म्यान के हत्थे से टकरा उठीं कि अब नहीं तब बादशाह का आदेश हो। बरहमन को लेकिन मौत का भय नहीं था। बोलते रहे कि-एक दिन आएगा और देख लीजिएगा कि विश्वनाथ फिर से अपनी जगह आ विराजेंगे और आपके खुदा उनकी ओर देखकर शरम से मुंह चुराते घूमेंगे। और जो तोड़ना है तो तोड़ते रहिए। मुझ बूढ़े को चिढ़ाना बंद कर दीजिए, क्योंकि आपके बापजान शाहजहां साहेब भी अक्सर मुझे ऐसे ही चिढ़ाते थे, लेकिन उनका क्या हुआ? आपसे बेहतर कौन जानता है। तब भी मैंने उनसे कहा था : मरा दिलेस्त बकुफ्रआश्ना कि सदबारश, बकाबा बर्दम व बाजश बरहमन आबुर्दम।। (कुल्लियात-ए- बरहमन) यानि कि मेरा दिल मेरे हिन्दू धर्म में इतना डूबा हुआ है कि यदि सौ बार काबा जाऊं तो भी वहां से ब्राह्मण रहकर ही लौटूंगा। मुझे मुसलमान बनाकर काबा भेजने की कोशिश मत करिए। काबा जाऊंगा तो भी जाने कब लौटकर विश्वनाथ की शरण में ही चला जाऊंगा। फिर क्या था। औरंगजेब दांत पीसता हुआ भरे दरबार से उठकर चला गया। चाहता तो एक 90 साल के बूढ़े बरहमन की गर्दन धड़ से उड़वा सकता था लेकिन संभवतः उसे अहसास हो गया था कि तलवार की धारों और अत्याचारों से यह धर्म झुकने वाला नहीं। जिस विश्वनाथ को मानने वाले ऐसे निडर आस्था से भरे लोग हैं तो फिर इस सनातन हिन्दू धर्म और इनके भगवान विश्वनाथ को तलवार की धार से मिटा पाना किसी भी भांति संभव नहीं है।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कलश में गंगाजल भरकर भगवान विश्वनाथ के भव्य प्रांगण की ओर बढ़ते सबने देखा। सबका मनआंगन आनन्द से भर उठा। गर्भगृह में पंडितों ने उन्हें इस महानतम ऐतिहासिक कार्य के लिए शुभकामनाएं दीं। प्रधानमंत्री ने भी विनत भाव से बाबा भोलेनाथ की ओर संकेत कर दिया। सब यही विश्वनाथ जी कर और करवा रहे हैं, इसमें मेरा कुछ नहीं है। प्रधानमंत्री जी का यह विचार सुनते ही मुझे महाभारत का एक बहुत ही महत्व का आख्यान याद आ गया। यह आख्यान भगवान विश्वेश्वर काशी विश्वनाथ से ही जुड़ा बताया जाता है। द्रोण पर्व में इसका वर्णन आता है। दरअसल, द्रोणाचार्य के मारे जाने के बाद आगबबूला द्रोणपुत्र महारथी अश्वत्थामा आपे में नहीं रहे। वह पाण्डवों की सेना पर वज्र बनकर बरस पड़े। उन्होंने ऐसे दिव्य आग्नेय अस्त्र अर्जुन और उनकी सेना पर फेंके जो कि अकाट्य थे, और किसी का भी जान बचा पाना मुश्किल था। अर्जुन ने किसी तरह से उस हमले में अपनी और सेना के प्रमुख योद्धाओं की जान बचाई। रात में अर्जुन जब अगले दिन के युद्ध की योजना बना रहे थे तो उन्हें बार बार दिन के युद्ध की स्मृति हो आती। वह हैरान व परेशान थे कि आखिर उनकी जान कैसे बच गई क्योंकि हमला भयानक और खतरनाक था। वह सोच में पड़े थे कि तभी महर्षि वेदव्यास मिलने आ पहुंचे। अर्जुन ने तब अश्वत्थामा के शस्त्र प्रयोग के बारे में महर्षि को जानकारी देते हुए एक आश्चर्यजनक अनुभव साझा किया। अर्जुन ने भगवान वेदव्यास को बताया कि-गुरुदेव जब मैं युद्धभूमि में चारों ओर से घिर गया था तब मैंने देखा कि एक अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष मेरे आगे आगे हाथ में जलता हुआ त्रिशूल लेकर चल रहा है। अर्जुन जैसे कोई स्वप्न सुना रहा था कि मैं जिस दिशा में कौरवों को रोकने बढ़ता कि वह ज्योतिर्मय पुरुष पहले ही मैदान साफ कर देता था। उसके पैर पृथ्वी पर नहीं थे, उसका त्रिशूल उनसे कभी अलग नहीं होता था, उनके एक त्रिशूल से हजारों त्रिशूल निकलकर शत्रू सेना पर कहर ढा रहे थे। हे व्यासजी सच कहता हूं कि लोगों को लग रहा था कि मैं शत्रुओं को मार रहा हूं लेकिन असल में तो मैं अवाक् होकर उस ज्योतिर्मय सूर्य से भी ज्यादा प्रखर उस पुरुष को ही देख रहा था, मैं तो केवल उनके पीछे पीछे चल रहा था, वह आगे आगे चलकर मेरे सारे शत्रुओं का सर्वनाश कर रहे थे। उन्होंने ही मुझे अश्वत्थामा के शस्त्रों से बचा लिया। वह कौन थे, मैं नहीं जान सका। हे भगवान व्यास जी, मुझे बताइए कि आखिर वह महापुरुष कौन थे? कहां से आए थे, क्यों आए थे? जैसे मेरे धनुष और बाणों की दिशा वही तय कर रहे थे, अरे वही तो सब कर रहे थे, वो कौन थे। अर्जुन ने जो कहा, उसे व्यासमुनि ने द्रोण पर्व में ज्यों का त्यों दर्ज किया था। अग्रतो लक्षये यान्तं पुरुषं पावकप्रभम्।…ज्वलन्तं शूलमुद्यम्य यां दिशं प्रतिपद्यते। तस्यां दिशि विदीर्यन्ते शत्रवो मे महामुने।.. अर्थात..मेरे आगे आगे वह अग्नि जैसे विराट पुरुष चल रहे थे…जिनका जलता त्रिशूल जिधर जाता, उधर ही शत्रू सेना साफ हो जाती थी… को वै स पुरुषोत्तमः। शूलपाणिर्मया दृष्टस्तेजसा सूर्यसंनिभः। न पदभ्यां स्पृशते भूमिं न च शूलं विमुञ्चति…।। आखिर वह महापुरुष कौन थे। हे व्यासजी, मैंने उस अग्निमय महापुरुष के हाथ में में जलता त्रिशूल देखा था, उनके पैर भूमि पर नहीं थे, त्रिशूल से हजारों त्रिशूल निकलकर शत्रुओँ को समाप्त कर रहे थे…वह मेरे आगे थे, मैं तो कुछ कर ही नहीं रहा था, सब कुछ वही कर रहे थे, आखिर वो कौन थे।
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भगवान वेदव्यास ने बड़े भाव से हैरान हुए अर्जुन को देखा, मन ही मन बुदबुदाने लगे, अरे तुमने नहीं पहचाना, वही तो विश्वनाथ थे। कुछ देर तक अर्जुन की आंखों में झांककर फिर व्यासजी बोलने लगे कि अर्जुन, रणभूमि में जो तुम्हारे आगे आगे चलकर शत्रुओं का नाश कर रहे थे, वह साक्षात हर हर महादेव थे…। वह वही विश्वेश्वर महादेव थे…।..वह साक्षात वही शंकर थे जो श्मशानभूमि काशीपुरी में निवास करते हैं…। महादेवं हरं स्थाणु वरदं…।.विश्वेश्वरम् विश्वनरं कर्मणामीश्वरं प्रभुम…। स महादेवः पूज्यमानो महेश्वरः…। दृष्टवानसि शंकरम्..।..एष चैव श्मशानेषु देवो वसति नित्यशः।। हरहर महादेव हैं वो, विश्वेश्वर विश्वनाथ, सब कर्मों के ईश्वर मेरे प्रभु वही महादेव, सब देवों के देव, पूज्य वही महेश्वर जिन्हें यह संसार शंकर के नाम से देखता और जानता है, वही जो काशीपुरी के महाश्मशान में निवास करते हैं।…अर्जुन समझ लो कि कौन तुम्हारे साथ युद्धभूमि में खड़ा था। भगवान वेदव्यास ने अर्जुन को बताया कि तुम्हारी विजय के लिए भोलेनाथ साक्षात रणभूमि में उतर पड़े हैं। इस संग्राम में जो तुम्हारे सामने शत्रुओँ का कोई वश नहीं चल पा रहा है तो ये पिनाकधारी भगवान महादेव ही तुम्हारे आगे आगे चल रहे हैं। एष देवो महादेवो योअसौ पार्थ तवाग्रतः। संग्रामे शात्रवान् निघ्नंस्त्वया दृष्टः पिनाकधृक्।।। अरे, वह महादेव तेरे आगे आगे चल रहे हैं अर्जुन। वही पिनाक धनुष को धारण करने वाले, संग्राम में सारे शत्रुओं का विनाश करने वाले, उन्हीं महादेव की अर्चना करो अर्जुन। काशी विश्वेश्वर महादेव विश्वनाथ की महिमा का यह संकेत भगवान वेदव्यास ने महाभारत के द्रोणपर्व में संकेतों में किया है। वेदव्यास ने अर्जुन को कहा कि जहां धर्म है वहीं महादेव हैं, श्रीकृष्ण तो है हीं, जो साक्षात तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। तुम निर्भीक होकर रणभूमि में पराक्रम करो। गच्छ युद्धयस्व कौन्तेय न तवास्ति पराजयः। यस्य मन्त्री च गोप्ता च पार्श्वस्थो हि जनार्दनः।। जाओ कुन्तीपुत्र, जाकर युद्ध करो, अब तुम्हारी पराजय नहीं हो सकेगी क्योंकि साक्षात श्रीकृष्ण तुम्हारे साथ विराजमान है…और महादेव शिव तुम्हारे आगे आगे चल ही रहे हैं जो चराचर जगत के कारण और स्वामी हैं…। चराचरस्य जगतः प्रभुः स भगवान हरः।। नमस्कुरुष्व कौन्तेय तस्मै शान्ताय वै सदा..।
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स्पष्ट है कि काशी विश्वनाथ जब चाहते हैं, अपनी इच्छा से हर खेल पलट देते हैं। जैसे कि वह स्वयं अर्जुन के आगे आगे चलकर महाभारत का युद्ध लड़ रहे थे। अब किसी को अगर यही गलतफहमी है कि काशी विश्वनाथ केवल जीवन के अन्तकाल में ही याद किए जाते हैं तो उसे तत्काल अपनी बुद्धि दुरुस्त कर लेनी चाहिए। और जिन्होंने हिन्दू और हिन्दुत्व के वामपाठ को ही हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व का पैमाना मान रखा है, उन्हें क्या कहें? कहीं सचमुच ही तो शिव ने पहले ही बुद्धि विपरीतकर युद्ध एकतरफा तो नहीं कर दिया है? खैर, रणनीति ही महत्वपूर्ण होती है, वही पार लगाती है या फिर डुबा डालती है। किन्तु यहां सवाल चुनावी रण में राजनीतिक लिहाज से सफलता के स्वप्न देखते हुए कुछ भी अंटशंट बकने का नहीं है, सवाल है कि सांस्कृतिक विषयों को राजनीतिक विषवमन से अलग क्यों नहीं रखा जा सकता? सदबुद्धि और विवेक क्यों इसी वक्त हमारे नेताओं का साथ छोड़कर दूर चला जाता है? जाहिर तौर पर ऐसे तत्वों को शिव के सम्मुख जाकर अपने पिताई और खुद की गलतबयानी और तीर्थ की अवहेलना पर पश्चाताप अवश्य प्रकट करना चाहिए ताकि सम्मानजनक हार मिल सके। गलतियों के लिए क्षमा याचना करनी चाहिए। लेकिन क्या शिव मानेंगे और क्षमा प्रदान करेंगे? यह तो शिव ही जाने और सचमुच शिव ही जानते हैं क्योंकि वह तो सबके नाथ और विश्वनाथ हैं। कर्मों के अनुसार वह जीव के साथ रहते या उसका साथ छोड़ते हैं। और क्षमायाचना करने का समय भी तो अब कहां शेष है? चुनाव तो सर्वोपरि है ना। जो भी हो, संकेत समझिए कि ज्योतिर्मय शिव तो अपने जलते त्रिशूल को लेकर आगे आगे चलने का संकेत दे रहे हैं। 2022, 2024, 2027 और 2029 का अब सवाल ही कहां है। इससे भी बड़ा सवाल हमारे सामने खड़ा है जिसमें उत्तर बनकर एक बीज पड़ा है। यह तो अपने मन-आंगन में 2047 में स्वतंत्रता के 100 सालों की तस्वीर लेकर उग रहा और निरंतर बढ़ रहा यह भारत है। जितने घाव विगत एक हजार साल में शरीर पर लगे हैं, सबका परिमार्जन करते हुए सभी कुटिल चालों को ध्वस्त करने के लिए अग्निपथ पर निकल पड़ा यह भारत है। किसी को भ्रम नहीं रहना चाहिए। आज से ठीक एक हजार साल पहले 1002 से 1024 तक आतंकी हमलावरों की जिहादी रक्तरंजित तलवार सोमनाथ से लेकर विश्वनाथ तक कहर ढा रही थी, तब शिव शांत भाव से सब सह रहे थे। लेकिन अब इतिहास की धारा उलट चुकी है, 2019 से 2021 के दो सालों में ही शिव भी काशी से कश्मीर तक कुछ करवट ले चुके हैं और कुछ अभी लेने वाले हैं। जाहिर है, इसके नतीजे कुछ ही वर्षों में काल के भाल पर भारत के उज्जवलतम रूप के साक्षी बनेंगे। जब तक शिव की आंखें बंद और ध्यानमग्न थीं, जिसे जो करना व कहना था वो कर और कह रहा था, किन्तु अब आंखे खुल चुकी हैं, अब जो होगा, होने जा रहा है, समय चक्र ने ऐसी तस्वीर न देखी होगी। 13 दिसंबर 2021 की तारीख इतिहास में दर्ज हो चुकी है।
(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)
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