ऑनलाइन गेम का मकड़जाल
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
ऑनलाइन गेम के प्रति बढ़ती दुनिया की दीवानगी चिंतनीय है। आज ऑनलाइन गेमिंग की ग्रोथ रेट यानी कि इसके प्रति लोगों का रुझान 12 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रहा है। नित नए गेम मार्केट में आ रहे हैं। दिन प्रतिदिन नए लोग इनके मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं। बच्चे तो बच्चे अब तो महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। लुमिकाई की हालिया रिपोर्ट के अनुसार आनॅनलाइन गेमिंग में महिलाओं के हिस्सेदारी बढ़ते-बढ़ते 43 फीसदी का आंकड़ा छू गई है। दरअसर ऑनलाइन गेमिंग के जहां बुद्धि कौशल विकास के फायदे बताए जा रहे हैं, वहीं नुकसानों की गिनती की जाए तो वह कहीं ज्यादा है। यहां तक कि गेमिंग के चक्कर में कई बच्चे और युवा जिंदगी तक दांव पर लगा रहे हैं। यह वास्तव में चिंतनीय और गंभीर हो जाता है।
साठ के दशक में रुडोल्फ हेनरिक बेयर ने ऑनलाइन गेमिंग की दिशा में कदम बढ़ाते हुए पहला गेम बनाया था। तब शायद ही यह बात उनके जेहन में आई होगी कि कुछ ही समय में यह गेमिंग का सिलसिला इतना लोकप्रिय हो जाएगा कि पूरी तरह से बिजनेस का आकार ले लेगा। देखा जाए तो ऑनालाइन गेमिंग की सहज एक्सिबिलिटी ने भी इसे लोकप्रिय बना दिया। गेम कंसोल की बात करें तो प्लेस्टेशन, एक्सबॉक्स, निंटेंडों, पीसी, लेपटॉप, मोबाइल आदि में सहजता से खेलने की सुविधा होने से गेमों के प्रति लोगों की लोकप्रियता भी बढ़ी है। जानकारों का मानना है कि ऑनलाइन गेमिंग की दुनिया में आज कुछ सौ या हजार नहीं अपितु आठ लाख 31 हजार गेम प्रचलन में बताए जा रहे हैं। ऑनलाइन गेमिंग का यह कारोबार 2025 तक पांच बिलियन डालर तक पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। विशेषज्ञ 28 से 30 प्रतिशत सालाना ग्रोथ रेट के साथ इस कारोबार में बढ़ोतरी की संभावना व्यक्त जता रहे हैं। दर असल ऑनलाइन गेमिंग से अवैध गतिविधियों को भी बढ़ावा मिला है।
चिंता का विषय यह है कि अब तक ऑनलाइन गेमिंग के जाल में बच्चे और युवाओं को ही पिसते हुए देखा जा रहा था। अब तो महिलाएं भी इस जंजाल में फंस रही हैं। भारत में करीब 50 करोड़ लोग इसकी जद में आ गए हैं। इनमें 55 फीसदी पुरुष, 43 फीसदी महिलाएं है और केवल 2 प्रतिशत लोग ही अन्य हैं। दिक्कत यह है कि भले ही कुछ गेम मानसिक तनाव को कम करने या बुद्धि कौशल बढ़ाने में सहायक हों पर बहुत से गेम ऐसे भी है जो संवेदनशील बच्चों-युवाओं को मौत के मुंह में धकेल रहे हैं। कुछ गेम पूरी तरह से जुआ पर आधारित हैं। इनमें ठगी और छलावा भी तेजी से हो रहा है। एक तरह से इस तरह के गेम जुआ या लॉटरी जैसे ही हैं। इसमें गेम जीतने वालों को भारी भरकम राशि मिलने का सपना दिखाया जाता है। जीतने के बाद भी लोग अपने को ठगा महसूस करते हैं। कुछ गेमों में टास्क दर टास्क इस कदर हावी हो जाता है कि गेम खेलने वाले सबकुछ भूल कर उसी में खो जाते हैं।
ऑनलाइन गेमिंग में महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी को लैंगिंक असमानता के रूप में नहीं देखते हुए इससे होने वाले नुकसान या दुष्प्रभाव के आईने में देखना होगा। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बहुत सारे इस तरह के गेम भी बाजार में आ रहे हैं जो मन पर विपरीत प्रभाव ड़ालते हुए मनोदशा को प्रभावित करते हैं। यहां तक कि आक्रोश, हिंसा, कुंठा, संवेदनहीनता, कू्रता जैसी भावनाएं बढ़ाते हैं। देखा जाए तो यह एक तरह का नशा है और इस तरह का नशा कहीं न कहीं मनोदशा को बुरी तरह से प्रभावित करता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कुछ गेम रिलैक्स कराने या बुद्धिकौशल बढ़ाने में सहायक हैं पर बाकी तनाव ही बढ़ाते हैं। इसलिए इन पर नजर रखने के लिए नियामक संस्था का होना जरूरी है। गुण-दोष के आधार पर गेम को बाजार में उतरने का अधिकार मिलना चाहिए।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)