अश्लीलता क्या है? कौन तय करेगा? पुलिस!
के. विक्रम राव
कलात्मक कृतियों में अश्लीलता का ताजा तरीन मामला बंबई उच्च न्यायालय में आया। मामला गंभीर था क्योंकि अभियुक्त द्वय शीर्ष के शिल्पी हैं। फ्रांसिस डीसूजा और अकबर पदमसी। दोनों की नग्न शिल्प कृतियों को मुंबई के सीमा कर अधिकारियों ने जब्त कर लिया। मसला हाईकोर्ट में उठा। नैतिकता का मुद्दा था। न्यायमूर्ति द्वय महेश सोनक और जितेंद्र जैन ने सरकार को फटकार लगाकर पूछा “इस मंजर में आप कोणार्क और खजुराहो की मूर्तियों को भी जब्त करेंगे?“ कला की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अदालत ने कहा कि “यह विवेकहीन कदम है।“ प्रश्न फिर उठता है कि कला की अभिव्यक्ति की सीमाएं क्या हैं? प्रतिबंध की मर्यादा कहां तक उचित है? प्रमुखता से विचारणीय बिंदु यह है कि अश्लीलता की परिभाषा करने से क्या सरकारी एजेंसी सक्षम हैं? वहीं जो फिल्म सेंसर बोर्ड के विषय में भी उठता है। मूलतः बेहूदापन की झलक दिखनी चाहिए। अर्थात अश्लीलता कोई भी कथन या कार्य है जो उस समय की प्रचलित नैतिकता को अपमानित करता है, और इस प्रकार अनैतिकता को प्रदर्शित करता है। यह शब्द लैटिन ऑब्सेनस, ऑब्सकेनस, ’बुरा संकेत, घृणित, अभद्र’ से लिया गया है, जिसकी व्युत्पत्ति अनिश्चित है।
अमेरिका में “मिलर बनाम कैलिफोर्निया“ में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के 1973 के फैसले ने यह निर्धारित करने के लिए क्या अश्लील था? एक त्रि-स्तरीय परीक्षण हुआ। कृति क्या केवल कामुक थी? न्यायालय की राय देते हुए, मुख्य न्यायाधीश वॉरेन बर्गर ने लिखा : तथ्यों के आधार पर बुनियादी दिशा-निर्देश ये होने चाहिए : (1) क्या औसत व्यक्ति, समकालीन सामुदायिक मानकों को लागू करते हुए, यह पाएगा कि कला का कार्य कामुक रुचि को आकर्षित करता है? (2) क्या कार्य स्पष्ट रूप से आपत्तिजनक तरीके से यौन आचरण को दर्शाता या वर्णित करता है, और (3) क्या कार्य में गंभीर साहित्यिक, कलात्मक, राजनीतिक या वैज्ञानिक मूल्य का अभाव है? इस बहस के संदर्भ में एक पुराना चर्चित किस्सा भी हम याद कर लें। तब चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने हिंदू देवी का नग्न चित्र रचा था। एक कला प्रदर्शिनी (आरूषि आर्टस का ‘‘हार्वेस्ट’’) से मकबूल फिदा हुसैन का चर्चित अरबी घोड़े वाला चित्र दिखाया नहीं गया। इसे हटाने का कारण था कि आयोजकों को गुमनाम फोन आये थे कि हंगामा बरपाया जाएगा। क्यों हो ऐसा? ऐसी असहिष्णुता की जड़ में तथ्य यही है कि चित्रकार हुसैन के प्रशंसक और हमलावर लोग बस प्रवाह के मुताबिक बहते रहे। उनका कोई सम्यक आकलन करने की कोशिश नहीं की गई। राग द्वेश से परे रहकर। हुसैन भी अपने स्वधर्मी सलमान रश्दी से एक हद तक साम्य रखते है। रश्दी को कुरान और पैगम्बर का मखौल उड़ाने में नैसर्गिक लुत्फ मिलता है। किताब बेचने का सरल तरीका है। हुसैन को केवल हिन्दु देवी देवताओं की नंगी तसवीर बनाने का फितूर है। इस तरह वे चर्चा में आते रहे और लाभान्वित भी रहे। एक इंटरव्यू में सम्पादक ने दिसम्बर 2006 ने हुसैन से पूछा कि “आप पैगम्बर को भी उसी तरह चित्रित क्यों नहीं करते?“ वे खामोश रहे। तो क्या इस्लामी कट्टरपंथियों का खौफ था? मौन के मायने स्वीकृति होती है।
ऐसा ही एक वाकया था। तब जनता दल के सांसद प्रो. मधु दण्डवते ने अपने साथी सैय्यद शहाबुद्दीन से पूछा कि “पन्द्रह सौ साल पहले कहीं गई बातें आज भी कैसे तर्कसम्मत मानी जा सकती है?“ इस पर शहाबुद्दीन जो बाबरी समिति के नेता भी थे, ने कहा कि कुरान मे जो लिखा है वह अपरिवर्तनीय है। तो क्या हुसैन के भीतर का चित्रकार भी ऐसा ही है? अब एक वैचारिक अन्तर होगा हिन्दुओं की सोच में। जब सलमान रश्दी की विवादित पुस्तक “सेटानिक वर्सेज“ पर लखनऊ प्रेस क्लब में कांची कामकोटी के शंकराचार्य जगतगुरू जयेन्द्र सरस्वती से तक पत्रकार ने सवाल किया तो उनका जवाब सीधा था ‘‘करोड़ों की लोक आस्था से खिलवाड़ करने का हक सलमान रश्दी को नहीं दिया जा सकता है।’’ मगर कुछ तथाकथित प्रगतिशील हिन्दुओं ने हुसैन द्वारा भारतमाता, देवी दुर्गा आदि को निर्वस्त्र चित्रित करने को कलात्मक बताया। भले ही बहुसंख्यकों की धार्मिक भावना आहत हो। कूचीकर्मी मकबूल फिदा हुसैन और साहित्यकर्मी तस्लीमा नसरीन के मुद्दों में काफी साम्य है। तस्लीमा इस्लामी मतांधता की शिकार रहीं। त्रासदी यह है कि जो प्रगतिशील जन हुसैन की पैरोकारी चिंघाड़ कर करते थे, तस्लीमा के मसले पर दुम दबा लेते हैं। ये दोनों असहिष्णुता तथा अतिवादिता के शिकार हुए।
हुसैन के इन्तकाल पर उनकी प्रशंसा करते तस्लीमा ने कहा भी कि हुसैन को देश नहीं छोड़ना चाहिए था। फर्क दोनो में यह रहा कि तस्लीमा को इस्लामी बांग्लादेश ने भगा दिया। हुसैन स्वेच्छा से सेक्यलर भारत छोड़कर इस्लामी कतर देश के नागरिक बन गये। मगर विडम्बना यह रही कि हुसैन के कतर नागरिक बनने पर भी उनके चहेतों की कतार बनती रही। उन्होंने भारत लाने के लिए केन्द्रीय मंत्री से अपने को प्रगतिशील कहने वाले हिन्दू तक जुटे रहे। किन्तु तस्लीमा बेचारी गिड़गिड़ाती रही भारत में पनाह के खातिर। कोई नहीं पसीजा एक अबला की पुकार से। गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने तस्लीमा को सीमित वीजा दिया, नागरिकता देने से साफ मना कर दिया। सरदार मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी भी वक्ती वीजा देकर चुप हो गये। कही वोट बैंक न कट जाये। इतना वैचारिक दोगलापन भारत के इतिहास में कभी नही दिखा। एक मजहबी मुसलमान बनाम एक सेक्युलर मुसलमान। भारत ने मजहबी का साथ दिया। हुसैन के बारे में समग्रता से गौर करना आवश्यक है ताकि तस्वीर निखालिस उकेरी जा सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं आइएफडब्लूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)
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