अमेठी और संजय गांधी
राज खन्ना
मई का सूरज तप रहा था। सत्ता का भी। संविधान ताख पर था। उसकी बात करने वाले जेल में। ये इमरजेंसी के अंधियारे दिन थे। आजादी बाद पहली बार देश “संविधानेतर सत्ता“ के अधीन था। ये सत्ता संजय गांधी की थी। उन्होंने आगे के सत्ता सफर के लिए अमेठी को चुना। 1मई 1976 को संजय गांधी पहली बार अमेठी आये। मुख्यमंत्री एन डी तिवारी सहित तमाम नेता साथ थे। अमेठी क्यों? बगल की रायबरेली लोकसभा सीट से 1952 और 1957 में उनके पिता फिरोज गांधी निर्वाचित हुए थे। वह फिरोज गांधी जो सत्ता दल के सांसद रहते सदन में विपक्ष की आवाज थे। विचाराभिव्यक्ति स्वतंत्रता के तगड़े पैरोकार। 1967 से इसी क्षेत्र की नुमाइंदगी मां इंदिरा जी के हाथ में थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली से उनके 1971 के निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया। अपनी सत्ता बचाने के लिए उन्होंने 25 जून 1975 को देश पर इमरजेंसी थोप दी। सभी नागरिक अधिकार निलंबित। राजनीतिक विरोधी जेल में और जनता के मुँह पर ताला। संजय गांधी का पांच सूत्री कार्यक्रम था। परिवार नियोजन, श्रमदान, वृक्षारोपण, प्रौढ़ शिक्षा और दहेज उन्मूलन। देश भर में सत्ता के उपकरण अपने तरीकों से उसे जमीन और कागजों पर उतार रहे थे। अमेठी की प्रयोगशाला में संजय गांधी खुद मौजूद थे। वहां पहली मई 1976 से एक महीने का युवक कांग्रेस का श्रमदान शिविर लगा। देश के विभिन्न प्रान्तों के सैकड़ों युवक पहुंचे। रणवीर रणंजय डिग्री कालेज उनका बसेरा था। पूरा सरकारी अमला खिदमत में। खेरौना, विराहिन पुर और मालिक मोहम्मद जायसी की मजार के कच्चे रास्ते बनाने के लिए फावड़े-कुदाल चले। इंदिरा-संजय के नारों के साथ एक और नारे का शोर था,
गुरवत से लड़ो संग्राम जवानों,
छोड़ो अब आराम जवानों।
पांच सूत्र ही महामंत्र हैं
करना है कुछ काम जवानों।
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परिवार नियोजन का अभियान यहां भी जोर-शोर से चला। इमरजेंसी के दौर में ही अमेठी से तकरीबन बीस किलोमीटर के फासले पर रनकेडीह की जमीन नसबंदी का विरोध करने वालों के खून से लाल हुई। तब खबरों पर पाबंदी थी। पुलिस की फायरिंग के बाद वहां जाने पर रोक थी। इसलिए मरने वालों की संख्या को लेकर अफवाहों का जोर था। बाद में जनता पार्टी के शासन में निगम कमीशन की जांच में पुलिस गोली से नौ मौतों की पुष्टि हुई थी। छोटा सा दौर था संजय गांधी का। इमरजेंसी ने उनके साथ खलनायक का तमगा स्थाई रूप जोड़ दिया। अमेठी-सुल्तानपुर उनके जलवे की गवाह है। जाड़े में भी सिर्फ कुर्ते-पैजामे और कंधे पर एक शॉल में नज़र आने वाले संजय हर समय जल्दी में नजर आते। सभाओं में चंद वाक्यों के संबोधन। काम सिर्फ काम। अधिकारियों से भी यही अपेक्षा और वर्कर से भी यही। एक सभा में बैरिकेडिंग देखी। नाराजगी जताई। अगली सभा में पहुंचने तक पुलिस-प्रशासन बांस-बल्ली उखाड़ नजरों से ओझल कर देता। गाड़ी में सहयोगी के रूप में चलने वाले मंत्री वीर बहादुर सिंह रास्ता भटके। सवाल हुआ नक्शा साथ है। न के जबाब में निगाहें झुकी और भरी दोपहरी उलरा-शाहगढ़ के बीच वीरान में अपने हाल पर छोड़ दिये गए। मुख्यमंत्री एन डी तिवारी। उन्हें और तमाम मंत्रियों को आगे-पीछे भागते। खुश रखने की किसी कोशिश से परहेज न करते, दिलचस्प नजारों की साक्षी है अमेठी। अमेठी का श्रमदान शिविर तो बहाना था। पर उसने अमेठी से गांधी परिवार को जोड़ दिया। इस शिविर ने स्थानीय-बाहरी युवाओं की एक टीम खड़ी की। वे 1977-80 बीच की लड़ाई में सड़कों से अदालतों तक संजय गांधी के साथ थे। उससे जुड़े तमाम नेता आगे राजनीति में स्थापित हुए।
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महेश जोशी (मध्यप्रदेश) शिविर के इंचार्ज थे। मंत्री बने। शिव प्रताप मिश्र “बाबा“ उनके सहयोग में थे। राज्यसभा पहुंचे। बाद में केंद्र की कैबिनेट में शामिल अम्बिका सोनी तब युवक कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष थीं। राजेन्द्र सिंह सोलंकी युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे। अशोक गहलोत, कमलनाथ, गुंडू राव, अकबर अहमद डम्पी, जनार्दन रेड्डी, संजय सिंह, राम सिंह, अशोक पांडेय, जगदंबिका पाल, निर्मल खत्री, जफर अली नकवी, गुफरान आजम, एफएम खान, जगदीश टाइटलर, अरुण कुमार सिंह मुन्ना, सतीश अजमानी, जय नारायण तिवारी, भोला पांडेय, देवेंद्र पांडेय, शिव नारायण मिश्र, राम दुलारे यादव सहित शिविर और उस दौर की अमेठी से जुड़ने वाले अनेक नाम राजनीति में चर्चित हुए। मार्च 1977 में आश्वस्त संजय गांधी अमेठी के चुनाव मैदान में थे। गुजरे 21 महीनों में बिना अधिकार देश पर हुकुम चलाने वाले अब जनता की मोहर के लिए उसके द्वार पर थे। देश के तमाम हिस्सों से अपने नेता की हर हाल में जीत पक्की करने के लिए समर्थकों का हुजूम अमेठी पहुंचा था। हथियारों से लैस बाहुबली थे। जीत की गारंटी देने वाला प्रशासन था। मुकाबले में आपातकाल की यातनाएं भुगत कर निकले तेजतर्रार स्व. रवीन्द्र प्रताप सिंह थे। 1967 में अमेठी के जनसंघ के विधायक रह चुके थे। उस दौर में संजय गांधी के मुकाबले के लिए बड़े जिगरे की जरूरत थी। वह उनके पास था। वह जनता पार्टी के उम्मीदवार थे। पार्टी तो नाम की थी। सच में यह चुनाव जनता ही लड़ रही थी। संजय गांधी के बड़े नाम, अकूत संसाधन और शासन-सत्ता की साझा ताकत के खिलाफ़ जनता मुखर थी।गांव के प्रचार से सभाओं तक इसके नजारे थे। गौरीगंज में स्व. जगजीवन राम की सभा विफल करने के लिए कांग्रेस की ओर से नजदीक में फिल्मी पहलवान दारा सिंह की सभा रखी गई। विरोध के शोर से नाराज दारा सिंह ने गुस्से में नजदीक खड़े एक सिपाही का डंडा छीन चला दिया। पर भीड़ के गुस्से-बल के आगे रुस्तमे हिन्द दारा सिंह कमजोर थे। कुछ घंटे उन्हें थाने में भी बिताने पड़े। सहानुभूति बटोरने के लिए गौरीगंज-बनी के बीच संजय गांधी की गाड़ी पर गोली चलाये जाने का नाटक फुस्स हुआ। मतदान के दिन पहली बार अमेठी संगठित बूथ लूट से परिचित हुई। अगले कई चुनावों में अमेठी में बार-बार इसे दोहराया गया। तैयारी तो मतगणना तक के लिए थी। पर जब जनता सामने हो तब सब तिकड़म बेकार। रवीन्द्र प्रताप सिंह के 1,76,359 के मुकाबले संजय गांधी के वोट 1,00,503 वोट थे। बीच मतगणना के संजय गांधी सुल्तानपुर की कलेक्ट्रेट से निराश निकले। इमरजेंसी के इक्कीस महीने उनकी ताबेदारी में लगे अधिकारी मुँह मोड़ चुके थे। इस दौर में डर से सहमे-खामोश लोग खिलाफ नारेबाजी-हूटिंग की हिम्मत वापस पा चुके थे। रवीन्द्र प्रताप सिंह नायक बन चुके थे। घर से दिल्ली तक। लोग उस शख्स को पास से देखना-छूना चाहते थे जिसने संजय गांधी को पराजित किया था। उनका इंटरव्यू करने वालों में मेनका गांधी की पत्रिका “सूर्या“ भी शामिल थीं। कई पेजों में रवीन्द्र प्रताप सिंह की कई तस्वीरों साथ छपे फैले इस इंटरव्यू का दिलचस्प शीर्षक था, ‘अमेठी की उमेठी मूंछें।’
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ढ़ाई साल के जनता पार्टी शासन में संजय गांधी की सड़क से अदालतों तक की लड़ाई में अमेठी-सुल्तानपुर के युवकों की जबरदस्त भागीदारी थी। 1977 में कांग्रेस की दुर्गति के अगर वह सूत्रधार थे। तो 1980 में उसकी वापसी के शिल्पी। अमेठी में फिर से वह मैदान में थे। हार के सबक और सत्ता से दूर संघर्षों के अनुभवों से परिपक्व। जनता से बेहतर संवाद। खुशामदियों और कार्यकर्ताओं में वह फर्क समझने लगे थे। इस बार उन्हें 1,86,990 और रवीन्द्र प्रताप सिंह को सिर्फ 58,445 वोट मिले थे। पत्रकारिता से राजनीति में आये राम मूर्ति शुक्ल 1980 में उनके चुनाव एजेंट थे। बेहद खास और पास। चुनाव बाद 12 विलिंग्डन क्रीसेंट में चुनाव दफ्तर में दाखिल किए जाने वाले खर्च ब्यौरों को तैयार करते समय वहां कमलनाथ पहुंच गए थे। संजय गांधी उनसे कह रहे थे, “वर्कर्स को उनकी मेहनत-योग्यता के मुताबिक काम दिलाइये। अब किसी प्रकार का हुड़दंग नही होना चाहिए।“ लखनऊ-दिल्ली में सरकारों की वापसी के बाद उन्होंने अमेठी के विकास का खाका खींचना शुरू कर दिया। अपने मिजाज के मुताबिक वह जल्दी नतीजे चाहते थे। शायद इसलिए कि उनके पास वक्त कम था। 23 जून 1980 को विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। अमेठी उनके अग्रज राजीव गांधी। फिर सोनिया गांधी और बाद में राहुल गांधी को संसद में भेजती रही। 45 साल पहले अमेठी से संजय गांधी ने अमेठी से परिवार का नाता जोड़ा था। 2019 तक भावनाओं का ज्वार उतार पर था और रिश्ते कमजोर पड़ चुके थे। अमेठी ने राहुल गांधी को ठुकरा दिया। पराजय के बाद सिर्फ एक बार राहुल अमेठी आये थे और अपने नए निर्वाचन क्षेत्र वायनाड के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का जिक्र कर गए थे। आगे वह या प्रियंका अमेठी को परिवार की राजनीतिक कर्मभूमि बनाए रखना चाहेंगे कि नहीं, इसे लेकर सिर्फ और सिर्फ अटकलें हैं?
(लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता व सम-सामयिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं।)
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