जानें ‘त्रिया चरित्रम् पुरुषस्य भाग्यम्’ श्लोक की कहानी

जानकी शरण द्विवेदी

एक बहुत अधिक प्रसिद्ध श्लोक है जिसे आप सबने अवश्य सुना होगा। यदि नहीं सुना है तो उसे मैं बता देता हूं। वह श्लोक इस तरह है-‘त्रिया चरित्रम् पुरुषस्य भाग्यम्, देवो न जानाति, कुतो मनुष्यः।’ इसका शाब्दिक अर्थ है कि स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य को देवता भी नहीं जानते हैं, तो फिर इन्हें जानना मनुष्य के बस में कहां है? शायद आप में से बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि इस श्लोक की रचना उज्जैन के प्रख्यात राजा भर्तृहरि ने की थी। राजा भर्तृहरि न केवल जन कल्याण करने वाले राजा थे, बल्कि वे उच्च कोटि के विद्वान भी थे। वे कवि, साहित्यकार और दार्शनिक थे। उन्होंने इस श्लोक में स्त्री के चरित्र को बहुत “जटिल“ बताया है। वस्तुतः इसमें उनका कोई दोष भी नहीं है। प्यार में धोखा खाने वाला हर व्यक्ति ऐसा ही सोचेगा, जैसा उन्होंने लिखा है। तो आइ आज आपको इस श्लोक के बनने की कहानी बताते हैं।
कहा जाता है कि आज से लगभग 1500 वर्ष पहले उज्जैन नगरी के राजा थे भर्तृहरि महाराज। बहुत प्रतापी, विद्वान, कला के पारखी और साहित्यकार। पूरे राज्य में सुख समृद्धि अमन चैन था। धन धान्य सब कुछ था। प्रजा खुश थी। उनकी एक पत्नी थी जिसका नाम था रानी पिंगला। रानी पिंगला अभूतपूर्व रूपवती, लावण्य की प्रतिमूर्ति और कामदेव की पत्नी रति को भी लजाने वाली अनिंद्य सुंदरी थीं। यद्यपि राजा भर्तृहरि बहुत विद्वान थे, शास्त्रों के ज्ञाता और दार्शनिक व्यक्ति थे। वे शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता को जानते थे, लेकिन उनकी एक कमजोरी थी कि वे अपनी पत्नी रानी पिंगला पर जान छिड़कते थे। खुद से ज्यादा रानी पिंगला से प्यार करते थे वे। सौन्दर्य है ही ऐसी चीज जिसकी ओर ऋषि, मुनि, साधु, संत, देव, यक्ष, गंधर्व सब आकर्षित होते हैं तो फिर साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है? संसार और शरीर की नश्वरता जानने के पश्चात भी किसी शरीर के प्रति ऐसी दीवानगी आश्चर्य जनक है।
उन दिनों “नाथ संप्रदाय“ के प्रणेता गुरु गोरखनाथ ने बहुत कठिन तपस्या की। उस तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें एक चमत्कारिक फल दिया और कहा कि इस फल को जो व्यक्ति खायेगा वह अमर हो जाएगा। इस फल को देने के पश्चात ब्रह्मा जी अन्तर्धान हो गये। “अमर फल“ पाकर गुरु गोरखनाथ ने सोचा कि इस फल को यदि वे खा लेंगे, तो निश्चित रूप से अमर हो जाएंगे, लेकिन आम जनता को इससे क्या फायदा होगा? यदि इस फल को कोई ऐसा व्यक्ति खाए, जिससे जनता को फायदा हो, तब तो इस फल की उपयोगिता है अन्यथा यह फल बेकार है। संतों का हर कदम परमार्थ के लिए होता ही है। इस बारे में वे सोच विचार करते रहे। अचानक उन्हें ध्यान आया कि उज्जैन के राजा राजा भर्तृहरि एक जन हितैषी, लोक कल्याणकारी और लोकप्रिय राजा हैं। यदि वे इस फल को खाएंगे तो वे अमर हो जाएंगे। यदि राजा भर्तृहरि अमर हो जाएंगे तो इस राज्य का बेड़ा पार हो जाएगा और जनता सदा-सदा के लिए सुखी हो जाएगी। ऐसा सोचकर गुरु गोरखनाथ राजा भर्तृहरि के दरबार में पधारे। राजा ने उनका यथोचित आदर सत्कार किया और आने का प्रयोजन पूछा। गुरु गोरखनाथ ने वह अमर फल राजा भर्तृहरि को दे दिया और उसकी महिमा का सारा वृत्तांत कह सुनाया। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यह फल उन्हें (राजा भर्तृहरि) ही खाना है। इसे किसी और को नहीं देना है।
राजा भर्तृहरि ने वह अमर फल ले लिया और गुरु गोरखनाथ को सम्मानपूर्वक विदा किया। उन्होंने मन ही मन सोचा कि वे इस फल को खाकर क्या करेंगे? उनके अमर होने से क्या लाभ होगा? रानी पिंगला से कितना प्यार करते हैं वे। रानी पिंगला कितनी सुन्दर हैं? यदि उनका रूप लावण्य इस नश्वर संसार में अमर हो जाए तो उनका प्यार भी अमर हो जाएगा। यदि यह फल रानी पिंगला खाएं तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? प्रेमी हमेशा प्रेमिका के भले के लिए ही सोचता है। इसलिए उन्होंने वह अमर फल रानी पिंगला को दे दिया। उधर रानी पिंगला को अपने राज्य के बलिष्ठ सेनापति से प्रेम था। उसने सोचा कि यदि यह अमर फल सेनापति खा लेगा, तो वह अमर हो जाएगा और वह सेनापति उसकी कामेच्छाओं की पूर्ति भी करता रहेगा। इसलिए उसने वह अमर फल सेनापति को दे दिया। सेनापति उस राज्य की सर्वश्रेष्ठ वेश्या से सच्चा प्यार करता था। उसने भी अपना प्रेमी धर्म निभाते हुए वह अमर फल उस वेश्या को दे दिया। वेश्या उस अमर फल को पाकर सोचने लगी कि वह अमर होकर क्या करेगी? यही गंदा काम? यदि यही गंदा काम करना है, तो फिर अमर होना तो उसके लिए एक अभिशाप होगा। फिर अमर फल क्यों खाना? इससे अच्छा है कि यह अमर फल वह व्यक्ति खाए, जिसकी इस देश और समाज को बहुत आवश्यकता हो। और इसके लिए राजा भर्तृहरि से अच्छा और कौन व्यक्ति हो सकता है भला?
घूम फिर कर वह अमर फल दुबारा राजा भर्तृहरि के पास आ गया। राजा भर्तृहरि उस अमर फल को देखकर चौंके। उन्होंने वेश्या से पूछा कि वह अमर फल उसके पास कहां से आया? वेश्या ने सेनापति का नाम बता दिया। राजा ने सेनापति को बुलवाया और अमर फल दिखाकर कहा कि तुमने इसे इस वेश्या को दिया? सेनापति ने हां कहा। तब राजा भर्तृहरि ने सेनापति से पूछा कि यह फल तुम्हें कहां से मिला? तो सेनापति ने रानी पिंगला का नाम ले लिया। रानी पिंगला का नाम सुनकर राजा भर्तृहरि का दिल टूट गया। राजा जिसे अपनी जान से ज्यादा प्यार करते थे, वह किसी और को प्यार करती थी? यह सोचकर राजा पागल होने लगा। लेकिन वे बहुत ही बुद्धिमान, धैर्यवान और नीति कुशल थे। वह पागलपन में कोई गलत काम नहीं करना चाहते थे। इसलिए वे सीधे अपने रनिवास में गए और रानी पिंगला से पूछा कि उसने वह अमर फल खा लिया था या नहीं? तब रानी पिंगला ने कहा ‘खा लिया।’
फिर राजा भर्तृहरि ने अपने पास से वह अमर फल निकाला और उसे रानी पिंगला को दिखाया। रानी पिंगला उस अमर फल को देखकर सब माजरा समझ गई और चोरी खुलने के डर से राजा भर्तृहरि के चरणों में गिर पड़ी। राजा को इस घटना के कारण इस संसार, नाते रिश्ते, प्यार वगैरह सबसे वैराग्य हो गया। वह अपने छोटे भाई विक्रमादित्य जो कि इतिहास प्रसिद्ध है, जिनकी विक्रम बैताल की कहानियां प्रसिद्ध हैं, को राज सौंपकर वैराग्य हेतु गुरु गोरखनाथ की शरण में चले गए। गुरु गोरखनाथ जी ने कहा, “वैराग्य धारण करना आसान काम नहीं है। जो वैराग्य लेता है, उसकी किसी भी वस्तु, प्राणी, पेड़ पौधे में आसक्ति नहीं होनी चाहिए। तभी वैराग्य हो सकता है। तुम अपनी सबसे प्रिय रानी पिंगला से माता कहकर भिक्षा लेकर आओगे, तब मैं तुम्हें वैराग्य में दीक्षा दूंगा।’
राजा भर्तृहरि साधु वेश में रानी पिंगला के समक्ष उपस्थित हुए और उनसे माता कहकर भिक्षा मांगी। रानी पिंगला अपने अपराध पर बहुत लज्जित हुईं लेकिन राजा भर्तृहरि टस से मस नहीं हुए और भिक्षा लेकर ही लौटे। सच्चा साधु वही है, जो नारी को छोटे से लेकर बड़े रूप में माता की तरह देखे, किसी के प्रति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या नहीं रखे। न मान, न अपमान की चिंता हो। इन पैमानों पर खरा उतरने वाला व्यक्ति ही सच्चा साधु होता है अन्यथा वह लम्पट ही होता है। इसके पश्चात राजा भर्तृहरि ने घोर तपस्या की और उज्जैन के पास में कंदराओं में रहने लगे। वे कंदराएं आज भी उज्जैन में स्थित हैं। वैराग्य काल में उन्होंने तीन महान् ग्रंथों की रचना की, जिनके नाम हैं नीति शतक, श्रृंगार शतक और वैराग्य शतक। शतक मतलब सौ। प्रत्येक ग्रंथ में सौ श्लोक हैं जो उस विषय से संबंधित हैं। अगर पढ़ने को मिलें तो अवश्य पढ़िएगा। रानी पिंगला से मिले विश्वासघात के कारण उन्होंने इस श्लोक की रचना की थी। पूरा श्लोक इस प्रकार है :
नृपस्य चित्तं, कृपणस्य वित्तं; मनोरथाः दुर्जन मानवानाम्।
त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम्; देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।।

कलमकारों से ..

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