UP News : वह गांव जहां पढ़ने की ललक ने बनाया आज़ादी के आंदोलन का प्रमुख केन्द्र

– कभी आज़ादी की लड़ाई का गवाह अब है बदहाल 

रजनीश पाण्डेय

रायबरेली, 06दिसम्बर (हि.स.)। आजादी के संघर्ष में छात्रों व शिक्षित युवाओं ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उस दौर में विश्वविद्यालय व कॉलेज आंदोलन का केंद्र बन चुके थे और पढ़ने की ललक में आये युवा आजादी के आंदोलन से जुड़ रहे थे। उन सबके बीच रायबरेली के एक गांव में भी युवाओं के पढ़ने का जोश उन्हें आजादी के लिए प्रेरित कर रहा था। किताबों के बहाने यहां आजादी की रणनीति बनाई जाने लगी, जिससे दूरदराज के इस गांव को ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा। 
शिक्षित और जागरूक करने के लिए पुस्तकालय की स्थापना
 रायबरेली जिले के राजमऊ गांव में लोगों को शिक्षित और जागरूक करने के लिए रायबरेली के गांधी कहे जाने वाले मुंशी चंद्रिका प्रसाद ने 1925 में एक पुस्तकालय की स्थापना की। शुरुआत में गांववालों की किताबों में रुचि पैदा करने के लिए इससे जोड़ा गया। लोगों का रुझान इस ओर बढ़ा और बड़ी मात्रा में इस पुस्तकालय में किताबें हो गई और आसापास के गांव के लोग भी यहां पढ़ने आने लगे। 
पुस्तकालय को मिला एक भवन का दान
मुंशी चंद्रिका प्रसाद के अथक प्रयास से राजकुमारी कुवंरि साहिबा ने पुस्तकालय को एक भवन और एक गांव राती दान में दे दिया। धीरे—धीरे जब इस पुस्तकालय की आय बढ़ी तो यहां हजारों की संख्या में पुस्तकों का संग्रह हो गया और बड़ी संख्या में गांव के लोग पढ़ने के लिए पुस्तकालय आने लगे। पुस्तकालय में विभिन्न तरह के साहित्य के साथ आजादी पर केंद्रित किताबें बड़ी संख्या में थी जो लोगों के मन पर गहरा प्रभाव डाल रही थी।
पुस्तकालय बना आजादी के आंदोलन का केन्द्र
 पुस्तकालय में आने वाले युवा ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से वाक़िफ़ थे और उन्होंने इस पुस्तकालय के माध्यम से लोगों को सरकार खिलाफ तैयार किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य पुस्तकालय के माध्यम से लोगों के सामने आए। जालियांवाला बाग में अंग्रेजों के अत्याचार से संबंधित साहित्य बड़ी मात्रा में इसी पुस्तकालय के माध्यम से लोगों में बाटे गए। 1928 में पुस्तकालय द्वारा एक हस्तलिखित पत्र ‘विजय’ निकाला जाने लगा। गांव के ही युवा इसे तैयार कर लोगों में बाटते थे। इसके संपादक अवध बिहारी व संरक्षक मुंशी चंद्रिका प्रसाद थे। ब्रिटिश सरकार की नजर इसपर थी और यहां कई बार छापा पड़ा जिसमें बड़ी संख्या में किताबों को जब्त कर जला दिया गया। गांव वालों पर भी उत्पीड़न की कारवाई की गई। हालांकि पुस्तकालय से जुड़े युवाओं ने बड़ी संख्या में किताबों को सुरक्षित कर लिया था और उनका काम बदस्तूर जारी रहा। कभी आज़ादी की लड़ाई का गवाह अब है बदहाल 
राजमऊ का विशेश्वर पुस्तकालय आज़ादी के आंदोलन का प्रमुख केंद्र था। यहां उस दौर की किताबें जेल में स्वतंत्रता सेनानियों को भी भेजी जाती थी। प्रताप,सनेही, सुकवि, सरस्वती, हरिजन, आर्यावर्त, हंस, वीणा, माधुरी जैसी पत्रिकाएं नियमित तौर पर उपलब्ध रहती थी। आजादी के बाद भी उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी सहित कई बड़ी हस्तियां ने यहां कई कार्यक्रमों में शिरकत किया। कुछ सालों तक यह पुस्तकालय अच्छे ढंग से काम कर रहा था और सरकारी सहायता भी मिलती रहती थी लेकिन अब बुरी तरह बदहाल है। 15 वर्षो से तो यहां का ताला ही नहीं खुला।पुस्तकालय का भवन भी जीर्ण शीर्ण हो गया है। कमरे में रखी किताबें ख़राब हो चुकी हैं। बावजूद इसके किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं है। शासन-प्रशासन से लेकर नेता और समाजसेवी सब इस ओर आंख बंद किये हुए हैं। 
बौद्धिक विचार मंच के संयोजक रतिपाल शुक्ल के अनुसार यह स्थिति बहुत दुःखद है और सरकार के अलावा समाज को भी इस ओर ध्यान देना चाहिए जिससे इस आज़ादी के धरोहर को बचाया जा सके।

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