वे सच जानते हैं …!
राज खन्ना
विरोध और असहमति में तो लोकतंत्र के प्राण बसते हैं। पर इसे लेकर मौके-बेमौके सत्ता का धैर्य टूटने का इतिहास पुराना है। चीन से लेकर चल रहे तनाव का ही संदर्भ लें। पण्डित जवाहर लाल नेहरु सरकार के विरोध-आलोचना और उसमे विपक्ष की भूमिका को हमेशा महत्व देते रहे। लेकिन 1962 के चीनी हमले और पराजय ने उन्हें विचलित कर दिया। चौतरफा आलोचनाओं से घिरे पंडितजी की 15 जून 1963 की प्रेस कांफ्रेंस याद की जाती है। डेढ़ घण्टे के सम्बोधन में पंडित जी चीन पर खूब बरसे। फिर उनके निशाने पर देश का विपक्ष आ गया। उन्होंने कहा, “उन पर व्यक्तिगत तौर पर हमला करके चीनियों ने वैसा ही प्रदर्शन किया है, जैसा हमारे देश के कुछ विपक्षी नेता करते हैं। हमारे विपक्षी नेताओं की आदत है कि वे बिना किसी सिद्धांत के किसी से भी बल्कि हर किसी से गठजोड़ कर सकते हैं और ऐसा भी वक्त आ सकता है कि वे इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनमें से कुछ चीनियों से ही गठजोड़ कर लें।“
22 अगस्त 1963 को आचार्य जे.बी. कृपलानी ने पण्डित नेहरु की सरकार के विरोध में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। भारतीय संसद के लिए यह नया अनुभव था। आजादी के 16 वर्षों में यह पहला अवसर था, जब विपक्ष ने सरकार को अविश्वास प्रस्ताव के जरिये चुनौती दी थी। पण्डित जी ने विपक्ष को उसके इस प्रयास को निरर्थक बताया था। कहा था कि अविश्वास प्रस्ताव सरकार बदलने के लिए होता है। क्या विपक्ष के पास इसके लिए जरुरी संख्या है? यदि नही तो इसका कोई अर्थ नही है। अविश्वास प्रस्ताव की बहस का उन्होंने स्वागत करते हुए इसे लाभकारी बताया था, पर जोड़ा था, “जब देश के भविष्य का प्रश्न हो तो निम्न स्तर पर उतरकर व्यक्तिगत आरोपों और अपशब्दों का प्रयोग अनुचित है।“ इसी लोकसभा के कार्यकाल में 4 अगस्त 1966 को कम्युनिस्ट पार्टी के प्रोफेसर हीरेन मुखर्जी ने इंदिरा सरकार के खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था। हालांकि ये दोनों प्रस्ताव कांग्रेस के विपुल बहुमत के कारण भारी अंतर से गिरे थे, लेकिन सरकार की कमजोरियों-नाकामियों को उजागर करने के लिए विपक्ष ने इस संसदीय अस्त्र का काफी प्रभावी इस्तेमाल किया था।
संविधान सभा (विधायी) की प्रथम बैठक 17 नवम्बर 1947 को हुई थी। 26 जनवरी 1950 को यही संविधान सभा अस्थायी संसद के रुप में परिवर्तित हो गई। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने “भारतीय राजनीति और संसद : विपक्ष की भूमिका“ में लिखा है, “अस्थायी संसद की एक प्रमुख विशेषता किसी संगठित विपक्ष की अनुपस्थिति थी। सुविधा के लिए सदस्यों को सम्बद्ध और असम्बद्ध नामों से पहचाना जाता था। अध्यक्ष के निर्णय के अनुसार उन सब सदस्यों को जो कांग्रेस के नहीं थे, असम्बद्ध माना गया। 1950 में 22 असम्बद्ध सदस्य थे। 1951 में इनकी संख्या 28 हो गई थी। इन असम्बद्ध सदस्यों की राजनीतिक सम्बद्धता अस्पष्ट थी। वे विपक्ष की तरह सरकार की नीतियों और कार्यों की निन्दा नहीं करते थे। वे किसी एक विधायी समूह के सदस्य भी नहीं थे। किसी एक राजनीतिक दल के साथ भी नहीं थे, किन्तु वे सभी सरकार की आलोचना करने के लिए अपने को स्वतन्त्र मानते थे।“ दिलचस्प यह है कि अस्थायी संसद की लगभग एक दलीय जैसी संरचना में कांग्रेस के कई ऐसे सदस्य थे, जो अपनी ही सरकार को घेरते रहते थे। आचार्य कृपलानी, महावीर त्यागी और आर.के. सिधवा जैसे कुछ नाम इनमें खास थे। पण्डित जी खुद भी सरकार की आलोचना को सहर्ष सुनते थे। एक अवसर पर सदन में उन्होंने कहा, “मैं अक्सर ताज्जुब करता हूँ कि पिछले कुछ महीनों में जो कुछ हुआ है, उसके बाद हिंदुस्तान के लोग मुझ जैसे आदमी को कैसे बर्दाश्त करते हैं? मैं खुद यकीन के साथ नहीं कह सकता कि अगर मैं सरकार में न होता तो क्या मैं इस सरकार को बर्दाश्त कर सकता था?“ इस अस्थायी संसद के कार्यकाल में कई अन्य दल जन्मे। पर संसद में प्रतिनिधित्व आचार्य कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा पार्टी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अगुवाई में गठित जनसंघ का ही था।
1952 की लोकसभा के नतीजे विपक्ष के लिए बहुत उत्साहप्रद नहीं थे। कांग्रेस को 364 सीटें मिलीं। कम्युनिस्ट पार्टी 16, सोशलिस्ट पार्टी 12, किसान मजदूर प्रजा पार्टी 9, जनसंघ को 3, तथा अन्य दलों के हिस्से में 19 सीटें आईं। निर्दलीय 85 थे। 1957 में कांग्रेस 371 पर पहुंच गई। कम्युनिस्ट पार्टी को 27, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 19, जनसंघ को 4, अन्य दलों को 15 और निर्दलीयों को 72 सीटों पर जीत हासिल हुई। 1962 की तीसरी लोकसभा में कांग्रेस को 361, कम्युनिस्ट पार्टी को 29, स्वतंत्र पार्टी को 22, जनसंघ को 14 और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 12 सीटें मिलीं। 1967 की चौथी लोकसभा में कांग्रेस 283 पर सिमटी। स्वतंत्र पार्टी 42, जनसंघ 35, सीपीएम 19, सीपीआई 23, डीएमके 25, संसोपा 23 और प्रसोपा 13, अन्य दल 15 और निर्दलीय 42 सीटों पर जीते थे। ये लगातार चौथा लोकसभा चुनाव था, जब कोई विपक्षी दल लोकसभा की कुल सीटों के दस प्रतिशत पर जीत हासिल करने में विफल रहा। नतीजन नेता विपक्ष की शर्त पूरी नहीं हो सकी। जरुरी संख्या बल नहीं था, तो किसी विपक्षी दल ने न ही इसकी मांग की और न ही इसे लेकर सत्ता दल से कोई शिकायत ही रखी। पर इसी लोकसभा के कार्यकाल में 1969 की कांग्रेस की टूट ने यह मौका दे दिया। इंदिरा जी की अगुवाई में कांग्रेस के एक धड़े की सत्ता बरकरार रही। दूसरे धड़े कांग्रेस (ओ) के 55 सदस्य विपक्षी सीटों पर पहुंचे। लोकसभा अध्यक्ष गुरु दयाल सिंह ढिल्लो ने कांग्रेस (ओ) के राम सुभग सिंह को नेता विपक्ष की मान्यता दी। आजादी के 22 वर्ष बाद लोकसभा में पहली बार औपचारिक रुप से किसी दल को मान्यता प्राप्त विपक्षी दल का दर्जा मिल सका। दिलचस्प है कि मतदाता ने इसके सदस्यों को सत्ता के लिए चुना था। पार्टी विभाजन ने उन्हें विपक्ष में पहुंचा दिया। नेता विपक्ष के लिए वेतन-भत्ते की व्यवस्था 1977 में जनता पार्टी शासन के दौरान एक विधेयक के जरिये हुई। 1990 में वी पी सिंह की सरकार के समय इसमें कैबिनेट मंत्रिपद की सभी सुविधाएं जोड़ी गईं।
पर कम सीटें जीतकर भी विपक्ष कितनी प्रभावी चुनौती बन सकता है, इसके लिए तीसरी लोकसभा (1962-67) खासतौर पर याद की जाती है। उपचुनाव की जीत के जरिये डॉक्टर राम मनोहर लोहिया, आचार्य कृपलानी और मीनू मसानी जैसे दिग्गज लोकसभा पहुंचे। पहले से ही मौजूद प्रकाशवीर शास्त्री, मधु लिमये, प्रोफेसर एन जी रंगा, हीरेन मुखर्जी, ए के गोपालन, सुरेन्द्र नाथ द्विवेदी, राम सेवक यादव, त्रिदव कुमार चौधरी, रेणु चौधरी जैसे नेताओं ने इस दौर में अपने संसदीय कौशल, संविधान पर पकड़ और धारदार वक्तृता से सत्ता पक्ष को लगातार सांसत में डाले रखा। लोकसभा के इसी कार्यकाल में विपक्ष के भारी दबाव के चलते न चाहने के बावजूद पण्डित नेहरु को अपने भरोसेमंद साथी रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन की मन्त्रिमण्डल से छुट्टी करनी पड़ी। पेट्रोलियम मंत्री केशव देव मालवीय की उच्चतम न्यायालय के जज से जांच हुई और मंत्रिपद गया। वित्त मंत्री टीटी कृष्नमाचारी को भी पद के दुरुपयोग के आरोप में मंत्रिपद छोड़ना पड़ा। गोहत्या विरोधी आंदोलन के समय कानून व्यवस्था संभालने में विफ़ल रहने के कारण गृहमंत्री गुलजारी नंदा भी इसी दौर में सरकार से बाहर हुए।
1962 की पराजय ने केवल देश की सीमाओं और जनमानस पर ही प्रभाव नही छोड़ा। इस पराजय ने सदन में जबरदस्त संख्या बल के बल के बाद भी सत्ता पक्ष और उसके नेतृत्व को कमजोर किया। विपक्ष कम संख्या में था। पर सत्ता की कमजोरी और जनरोष ने उसे नई ताकत देकर आक्रामक किया। डॉक्टर लोहिया ने सिर्फ सरकार को नही घेरा। उन्होंने तमाम फौजी अफसरों को भी लपेटा। कहा, “फौजी कमान के यूँ बिखर जाने की जड़ में एक तो अफसर वर्ग का चरित्र है, दूसरे सरकारी नीतियों का रुप। कुछ सम्माननीय अपवादों को छोड़कर अफसर वर्ग कायर और दुर्बल साबित हुआ है। मध्यम वर्ग बल्कि उच्च मध्य वर्ग के लोग तड़क-भड़क की जिंदगी के लिए पलटन में भर गए हैं। इस आशा और विश्वास में कि लड़ाई नही होगी। मेरा सुझाव है कि पचहत्तर फीसदी अफसर नीचे से तरक्की देकर बनाये जायें और बाकी पच्चीस फीसदी सैनिक कालेजों के छात्रों में से।“ पण्डित नेहरु पर सीधा हमला करते हए लोहिया ने कहा, “सरकारी नेतृत्व का चरित्र सबसे अच्छी तरह प्रधानमंत्री के रुख से जाहिर है। अगस्त-सितम्बर 62 चीन से कोई बात नही, यानी कोई ठोस बात नही, जब तक लद्दाख सहित चीन के कब्जे का सारा इलाका नही खाली होता। 12 अक्टूबर चीनियों को निकालने का पलटन को आदेश अखबारों को बताया गया। 8 नवम्बर, रोना-आंसू बहाना। 21 नवम्बर को लड़ाई रुकने पर झलकती खुशियां और आठ सितम्बर की स्थिति या उससे भी कम पर बात करने का प्रस्ताव। इस नेतृत्व में बिल्कुल दम नहीं। बातें युद्ध की और पहली ही चोट पर हथियार डाल देना। इस दुविधा का असर पलटनी कमान पर भी पड़ा होगा।“
1962 वह बिंदु था, जहां से सत्ता और विपक्ष की टकराहट तेज हुई। सुर तीखे-तल्ख़ हुए। जब-तब असंयमित भी हुए और फिर यह सिलसिला कडुवाहट में भी बदला। विपक्ष को किसी दौर में मुस्कुराते हुए सुनने वाले पण्डित नेहरु को पराजय की खीझ ने इतना कटु किया कि वह विपक्ष पर किसी दिन चीन से भी गठजोड़ कर लेने की शंका कर बैठे। यही युद्ध था, जब तमाम कम्युनिस्ट नेता चीन के प्रति सहानुभूति के आरोप में जेल भेजे गए थे। बदलते राजनीतिक घटनाक्रम और सत्ता की चाहत या उसे कायम रखने के लिए सत्ता और विपक्ष के बीच दूरियां कटुता की हद तक बढ़ती गईं। आरोप-प्रत्यारोप और घटिया शब्दावली कहाँ थमेगी, इसका पता नहीं। सिलसिले का एक खतरनाक पड़ाव इमरजेंसी थी, जब सत्ता से असहमति-विरोध की मतलब जेल थी। इमरजेंसी का एक दूसरा पहलू है, कि वह कांग्रेस का वर्चस्व टूटने का कारण बनी। उसके बाद के गुजरे पैंतालीस सालों में सत्ता में आने वाले दल-गठजोड़ और चेहरे बदलते रहे हैं। पर बदलती सत्ताओं के बीच एक बात समान है। हर सत्ता पर विरोध और असहमति के स्वर दबाने और विपक्षियों से निपटने के लिए सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल का आरोप है। हर सत्ता को माफ़िक मीडिया और प्रतिबद्ध लोकतांत्रिक संस्थान चाहिए। फिर विपक्ष में पहुंचते ही उसे असहमति-विरोध के स्वर दबाने और मीडिया के पालतू होने की फ़िक्र सताती है। बढ़ती असहिष्णुता बेचैन करती है। भूमिकाएं बदलने के साथ भाषा-सुर और प्राथमिकताएं बदलती हैं। दलों से जुड़े लोगों की अपनी जरूरतें हैं। उनकी मजबूरियां हैं। पर उनसे इतर जो पक्षकार नही हैं। अन्ध समर्थक नही हैं। अन्ध विरोधी भी नही हैं। वे इस खेल को समझते हैं। सच को जानते हैं। उसे खोज-परख लेते हैं।