यदि आप लेखक होते तो पत्नी को क्या जवाब देते?
सरन घई
प्रिय साहित्यकार मित्रों, पिछले लेख में हमने कवियों की कवि सम्मेलनों के माध्यम से कुछ भी न होने वाली कमाई का मुद्दा उठाया था। आइये, इस बार बात करते हैं साहित्यकारों द्वारा पुस्तकों के सप्रेम भेंट करने की। अपनी कविताओं की, लेखों की, कहानियों की किताब छपना, उपन्यास छपना और जीवन यात्रा के संस्मरण छपना हर साहित्यकार का पहला सपना होता है। यह केवल कोई सपना नहीं है। अक्सर आसानी से हक़ीकत बन भी जाता है, जब किताब छप कर लेखक के हाथ में आती है। वह फूला नहीं समाता। उसे लगता है वह साहित्य जगत शिरोमणि बन गया है। जोश ही जोश में दो-तीन बार अपनी किताब पढ़ जाता है, उसे मुख पृष्ठ पर चुंबन तक दाग देता है और इस कोशिश में लग जाता है कि किस प्रकार और कितनी जल्दी मैं इस पुस्तक का लोकार्पण करवाऊँ ताकि लोग इसे पढ़ें, सराहें, इसकी विवेचनाएं प्रकाशित हों और यह किताब दुकानों पर, रेलवे बुक स्टाल्स पर और मित्रों के माध्यम से इतनी बिके कि अगले ही माह इसका दूसरा एडीशन निकालना पड़े। यह सपना हर साहित्यकार जिसकी पुस्तक प्रकाशित होती है, अवश्य ही देखता है, लेकिन बस देखता रह जाता है। वह लोकार्पण के लिये किसी नामी गिरामी साहित्यकार, साहित्य क्षेत्र के कुछ बड़े नाम, पुस्तक के प्रकाशक, कवि मित्र व अनेकों असाहित्यकारों को एक निश्चित तिथि व निश्चित जगह पर एकत्रित कर फूला न समाता पुस्तकों को बिकता हुआ महसूस करता है। चाय और समोसों के साथ मिठाई का तो इंतजाम करना ही पड़ता है। चलो, थोड़ा खर्च और करते हैं। बड़े नाम वाले साहित्यकारों को एक-एक फूलों का गुलदस्ता देना तो बनता है। और हाँ, काफ़ी सारे गेदे के फूलों के हार और एक बड़ा सा बैनर बनाना तो भूल ही गये, वह खर्च भी तो सिर पर रहता है। चलो, खैर-खैर करके सब तैयारियां हो गयीं। मुख्य अतिथि, जाने-माने और अन्जाने सभी साहित्यकार, कवि-अकवि मंच पर व मंच के सामने कुर्सियों पर विराजमान हो गये। प्रकाशक जी भी आ गये। उन्हें तो वैसे भी आना ही था। लेखक महोदय ने उन्हें वादा जो किया था कि लोकार्पण दिवस पर जितनी प्रतियां बिकेंगी, उन सबका पैसा प्रकाशक महोदय को देकर छपाई का सारा हिसाब चुकता कर देंगे। पुस्तकें मंच के एक ओर सजा दी गईं। माइक वक्ताओं के शब्दों को श्रोताओं तक पहुँचाने के लिये मुस्तैदी से खड़ा हो गया। हालांकि इस प्रयास में तीन-चार बार माइक की चीं और टूं करके चीखें निकल गईं जिसका सभी आमंत्रित श्रोताओं ने भरपूर आनंद लिया।
चलो, लोकार्पण कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। तारीफ़ों के गोले फिंकने लगे। पुस्तक के लेखक महोदय को तो स्वयं को भी पता नहीं था कि उनके लेखनी इतनी चमत्कारिक है कि उनकी यह पुस्तक साहित्य को एक नयी दिशा दे देगी। एक-एक करके सबने तारीफ़ों की रस्म अदाई की। लेखक महोदय ने सिर से पांव तक गदगद होते हुए सभी का शुक्रिया अदा किया। फिर पुस्तक की प्रति सबने अपने-अपने हाथों में लेकर एक समूह चित्र खिंचवाया। कुछ ने और अधिक आत्मीयता से भरा चित्र लेखक महोदय को साथ खड़ा करके खिंचवाया। बहुतों ने मुबारक दी, सप्रेम भेंट स्वीकार की और लपक लिये उधर जहां चाय के प्याले, समोसों की ट्रे और गुलाब जामुन का थाल उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। इस बात का भी तो भय रहता है कि कहीं समोसे या गुलाब जामुन हमारी बारी आने से पहले ही समाप्त न हो जांय। सब लोग जलपान करके मुबारक देकर निकल लिये। मुख्य अतिथि महोदय को तो कार तक छोड़ने जाना पड़ा। साथ ही दो और प्रतियां और सप्रेम भेंट करनी पड़ीं। सब निकल लिये। रह गये शेष तो कुछ मित्र जिनका काम बैनर उतारना और मेज-कुर्सियां सही जगह लगाना था। कुछ पेमेंट मांगने वाले, प्रकाशक महोदय और मंच के एक ओर सजी पुस्तकों की प्रतियां। और हां वो माइक जिसने मुख्य अतिथीय भाषण के दौरान भी चीं और टूं करने में कोताही नहीं की, गुलदस्ते और फूलों के हारों के अवशेष और चाय के पिये-अधपिये कप। पेमेंट मांगने वालों को तो किसी तरह से पेमेंट निकाल कर विदा किया लेकिन प्रकाशक महोदय अड़ गये कि बाकी पैसे तो वायदानुसार आज ही देने होंगे। बहुत अनुनय-विनय की लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात। खैर, मित्रों की प्रार्थना करके आधे पैसे इकट्ठे कर के प्रकाशक महोदय को विदा किया, पुस्तकें समेटीं, मीटिंग हाल का शेष किराया देकर लेखक महोदय ने उन तालियों को याद किया जो उनके सम्मान में बजी थीं और एक रिक्शा करके घर की ओर रवाना हो गये। घर जाकर किताबें गिनीं तो वो भी कम निकलीं। शायद कुछ लोग अपना हक समझ कर स्वयमेव अपनी सप्रेम भेंट ले गये। प्रकाशक, बैनर वाला, फूल वाला, हाल के किराये वाला, माइक वाला, यानि के सब लेने वाले अपना-अपना पैसा लेकर चले गये, रह गया तो केवल किताब लिखने वाला और उसका परिवार। इस लेखक के साथ भी यही हुआ। घर पहुँचने पर पत्नी और बच्चे पास आकर खड़े हो गये, किताबें और दूसरा सामान उतरवाने लगे। पत्नी ने धीरे से पूछ लिया कि कितनी किताबें बिकीं? आगे क्या हुआ, मैं नहीं बोलूंगा, उत्तर खुद सोचो इस बारे में भी और अपनी अगली किताब छपवाने के बारे में भी। साथ ही इस बारे में भी कि जब पत्नी पूछेगी कि कितनी किताबें बिकीं तो क्या जवाब दोगे।
(लेखक विश्व हिंदी संस्थान कनाडा के संस्थापक हैं।)