Bihar Election :दलित मतदाताओं पर नज़र

मुरली मनोहर श्रीवास्तव

बिहार विधानसभा चुनाव में दलित वोटबैंक सभी दलों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसे साधने के लिए सभी पार्टियां पुरजोर कोशिश कर रही हैं। बिहार की 243 विधानसभा सीटों में 38 एससी और 02 एसटी के लिए सुरक्षित हैं। 22 अलग-अलग जातियों के महादलित, राज्य के कुल मतदाताओं के लगभग 16 प्रतिशत हैं लेकिन दलित वोटों का प्रभाव इन सीटों से कहीं ज्यादा आंकी जाती है।

चुनाव करीब आते ही दलितों को रिझाने के लिए सभी दल अपने-अपने तरीके से लगी हुई हैं। मगर अफसोस कि दलितों के सहयोग से बनने वाली सरकारों ने कभी दलित उत्पीड़न के लिए कोई कारगर उपाय नहीं निकाला। हालांकि बिहार के मुखिया नीतीश कुमार, इस समुदाय से मुख्यमंत्री बनाने से लेकर महादलितों के लिए कई योजनाओं की घोषणा कर दलित नेताओं पर भी बिहार में भारी पड़ रहे हैं। एक तरफ कोरोना वायरस के प्रकोप की वजह से जहां चुनाव आयोग चुनाव नहीं टालने के पक्ष में था, नीतीश कुमार ने सबसे पहले बिहार में महादलित कार्ड खेलकर राजनीतिक चाल पहले ही चल दी। विकास के मामले में भी नीतीश कुमार के कार्यों को दरकिनार करना आसान नहीं है। इन्हीं कार्यों और राजनीतिक महारत के बूते नीतीश कुमार चौथी बार सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं।

विकास और महादलित कार्ड

नीतीश ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (उत्‍पीड़न रोकथाम) अधिनियम 1995 के तहत गठित राज्य स्तरीय सतर्कता और निगरानी समिति की बैठक में अधिकारियों से कहा, “उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए हम समुदाय के उत्थान के लिए कई योजनाएं चला रहे हैं। दूसरी योजनाओं और परियोजनाओं के बारे में भी आपलोग सोचिए। उनकी सहायता के लिए जो भी आवश्यक होगा हम करेंगे।” इतना ही नहीं नीतीश ने 20 सितंबर तक अधिकारियों से लंबित मामलों को निपटाने का भी निर्देश दिया था। साथ ही एससी/एसटी समुदाय के किसी व्यक्ति की हत्या होती है तो उस स्थिति में अनुकंपा के आधार पर परिवार के एक सदस्य को तत्काल रोजगार प्रदान करने के नियम बनाने का भी नीतीश कुमार ने आदेश दिया।

दलित कार्ड से तिलमिलाए विपक्षी

नीतीश कुमार और उनकी कार्यशैली जाति की राजनीति करने वालों पर अक्सर भारी पड़ जाती है। अगर आपको यकीन नहीं होता तो तेजस्वी यादव के उस बयान को याद कीजिए जिसमें उन्होंने कहा था कि “नीतीश कुमार ने सरकारी नौकरियां देने की घोषणा की है क्योंकि चुनाव सिर पर है। यह एससी/एसटी लोगों की हत्या को प्रोत्साहन देने जैसा है। फिर ओबीसी या सामान्य वर्ग के उन लोगों को भी नौकरी क्यों नहीं दी जानी चाहिए जिनकी हत्या हुई है?” 

नीतीश के इस घोषणा के बाद दलित राजनीति करने वाली बसपा अध्यक्ष मायावती भला कैसे चुप रह जातीं। उन्होंने कहा कि बिहार में जद(यू)-भाजपा सरकार वोट की खातिर एससी-एसटी लोगों को लालच दे रही है। उन्होंने यह भी कहा कि “बिहार सरकार समाज के इस तबके के कल्याण के लिए वास्तव में इतनी ही गंभीर है तो इतने साल तक उनकी जरूरतों और मांगों की अनदेखी कर सोती क्यों रही?” वहीं, भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने कहा कि “जब, सरकार ने इस संबंध में घोषणा की है तो इसका विरोध क्यों किया जा रहा है?” वे पूछते हैं, “क्या राजद यह घोषणा कर सकता है कि अगर उन्हें (सरकार बनाने का) मौका मिलता है तो अनुकंपा के आधार पर मिली नौकरियों और सभी प्रकार की मदद को रोक देगा?” 

चिराग की नीतीश से नाराजगी

नीतीश कुमार पर चुनाव से पहले हमलावर रहे लोक जनशक्ति पार्टी अध्यक्ष चिराग पासवान ने इस मुद्दे पर नीतीश कुमार को चिट्ठी लिखकर अपनी नाराजगी दर्ज करायी थी। चिराग ने नीतीश के इस कदम को “चुनावी घोषणा” बताया। चिराग ने कहा कि “नीतीश सरकार ईमानदार है तो उसे एससी-एसटी समुदाय के उन लोगों को नौकरी देनी चाहिए, जिन्होंने बिहार में उनके 15 साल के शासन के दौरान अपनी जान गंवाई।” लोजपा संस्थापक रामविलास पासवान दुसाध (पासवान) समुदाय के सबसे बड़े नेताओं में एक थे। 8 अक्टूबर को इनके निधन से पूरा देश गमगीन हो गया। बिहार में दलितों की सबसे प्रमुख जाति पासवान हर चुनाव में लगभग 7 प्रतिशत वोट के साथ अपनी दावेदारी पेश करती है।

नीतीश का मांझी कार्ड कितना कारगर

पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्यूलर) के नेता जीतन राम मांझी का फिर से एनडीए में आना चिराग को खल गया। पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि “एससी/एसटी अधिनियम के तहत पहले से ही एक प्रावधान है, जो कमजोर वर्गों से मारे गए लोगों के परिजनों को रोजगार प्रदान करता है। जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं उन्हें अधिनियम को दोबारा ध्यान से पढ़ना चाहिए।” नीतीश कुमार का हर कदम सधा हुआ होता है तभी तो मुसहर समाज के कद्दावर नेता मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी 8 माह के लिए बैठाया था और उस दरम्यान कई घोषणाएं भी हुई थीं। हालांकि मांझी के नीतीश के साथ आने पर राजद नेताओं ने कहा कि अपने साथ हुए व्यवहार को शायद मांझी भूल गए।

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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