भारतीय भाषाएं : एक नई भाषिक चेतना की ओर
डिजिटल युग में भारतीय भाषाओं का भविष्य: कलम से कीबोर्ड तक
निकिता शर्मा
जब हम इतिहास की पगडंडियों पर चलते हैं तो पाते हैं कि सदियों से भाषाएँ केवल संवाद का माध्यम नहीं रही हैं बल्कि वे संस्कृति की वाहक, स्मृति की संचित धरोहर और समाज की आत्मा भी रही हैं। भारत एक ऐसा देश है जहाँ हर कोस पर पानी बदलता है तो बोलियों की विविधता का सघन होना भी अति सहज है। लेकिन अगर वर्तमान समय पर दृष्टि डालें तो यह समय परिवर्तन का है- एक ऐसा कालखंड, जहाँ कलम ने कीबोर्ड और टचस्क्रीन तक की यात्रा तय की है और किताबों के वो भूरे, स्याह पन्ने अब स्क्रीन की रोशनी में ढल चुके हैं। ऐसे में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या भारतीय भाषाएं इस डिजिटल युग में अपना वर्चस्व बनाए रख पाएंगी? या क्या वे इस बाढ़ में बहकर कहीं खो जाएंगी?
कुछ साल पहले तक डिजिटल दुनिया अंग्रेजी की एकपक्षीय सत्ता के अधीन थी। वेबसाइट्स, ऐप्स, सोशल मीडिया- सब कुछ अंग्रेजी की दीवारों में कैद था। लेकिन आज परिदृश्य बदल रहा है। जैसे ही स्मार्टफोन गाँवों तक पहुँचा और इंटरनेट ने चौपालों तक अपना जाल फैलाया, वैसे ही स्थानीय भाषाओं की माँग उठने लगी। गूगल, फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम जैसे तमाम सोशल साइट ने अब हिंदी, तमिल, मराठी, बंगाली, गुजराती जैसी भाषाओं में इंटरफेस देना शुरू किया है। बच्चे अब कार्टून हिंदी में देख रहे हैं, किसान अपने मोबाइल पर मौसम की जानकारी भोजपुरी में सुन पा रहे हैं और बुजुर्ग महिलाएं व्हाट्सऐप पर अपनी भाषा में कथा-कविताएँ साझा कर रही हैं। यह केवल सुविधा नहीं बल्कि यह भाषा का पुनर्जन्म है।
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कोविड-19 के समय, जहाँ एक ओर ऑनलाइन शिक्षा के रास्ते खुले, वहीं एक कड़वी सच्चाई भी सामने आई। बहुत से बच्चे जिनके पास मोबाइल या कंप्यूटर तो थे, लेकिन अंग्रेजी समझने में मुश्किल होती थी, वे धीरे-धीरे पढ़ाई से कटते चले गए। यहीं से यह जरूरत महसूस हुई कि अगर तकनीक सच में सबके लिए है, तो उसकी भाषा भी सबकी होनी चाहिए- ऐसी भाषा जो लोगों की आम दिनचर्या से जुड़ी हो, जिसे वे महसूस कर सकें, समझ सकें और आगे बढ़ सकें। अब भारत में कई ऐप्स और पोर्टल्स (जैसे Diksha, ePathshala) ने भारतीय भाषाओं में कंटेंट देना शुरू किया है। यह सिर्फ साक्षरता नहीं, गौरव और आत्मविश्वास का भी सवाल है क्योंकि जब एक छात्र अपनी मातृभाषा में विज्ञान समझता है, तो वह केवल किताबी ज्ञान नहीं समझता, बल्कि अपने होने के वजूद को भी समझता है।

लेकिन चुनौतियों और संभावनाओं की कश्मकश में एक प्रश्न यह भी उठता है कि डिजिटल मंचों पर भाषा का स्तर कैसा है? आज के सोशल मीडिया की भाषा तेज, छोटी और प्रायः अशुद्ध होती है। इसमें साहित्य की गहराई और संवेदना का अभाव दिखता है। लेकिन यह स्थिति स्थाई नहीं है। आज ब्लॉग, पॉडकास्ट, यूट्यूब चैनल, ई-बुक्स और डिजिटल पत्रिका जैसे तमाम प्लेटफॉर्म ने साहित्य को एक नया मंच दिया है। अब युवा कवि, लेखक और विचारक सीधे पाठकों से जुड़ पा रहे हैं। डिजिटल मंचों ने सेंसरशिप को तोड़ा है और नवाचार को जन्म दिया है।
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भविष्य की दिशा तय करने में भाषा आधारित टेक्नोलॉजी की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। भारत जैसे बहुभाषी देश में, जहाँ करोड़ों लोग स्थानीय भाषाओं में संवाद करते हैं, वहां टेक्नोलॉजी का लोकभाषाओं के अनुकूल होना जरूरी है। इससे न केवल डिजिटल समावेशिता बढ़ेगी, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और न्याय जैसे क्षेत्रों में भी आम लोगों की पहुंच और समझ बेहतर होगी। हम ऐसी तकनीकों में निवेश कर सकते हैं जो भाषाई विविधता को समझे और समर्थन करे- जैसे भाषांतरण टूल्स, वॉइस-टू-टेक्स्ट ऐप्स और स्थानीय भाषा आधारित आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस।
इसके साथ ही शिक्षा में मातृभाषा के प्रयोग को बढ़ावा देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है- जिसकी सिफारिश नई शिक्षा नीति भी करती है। डिजिटल दौर में भाषाई रचनात्मकता को बनाए रखने के लिए साहित्यिक पोर्टलों, ऑडियोबुक्स और ई-लाइब्रेरी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साथ ही, युवाओं को मातृभाषा में रचनात्मकता के लिए प्रेरित करना बेहद जरूरी है। इसके लिए प्रतियोगिताएं, डिजिटल वर्कशॉप और भाषा उत्सव जैसे आयोजन एक प्रभावशाली माध्यम बन सकते हैं। इससे न केवल नवाचार को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि तकनीक वास्तव में जन-जन के काम आ सकेगी।
भारतीय भाषाएं हमारी पावन नदियों की तरह हैं- वे शांत भी हैं, गंभीर भी और बहाव में तीव्रता भी। डिजिटल युग इनके लिए संकट नहीं अपितु एक नया विस्तार है। परिवर्तन की इस धारा को यदि हम केवल सुविधा की दृष्टि से देखें, तो हम उस आत्मा को खो देंगे, जो हमारी सांस्कृतिक चेतना का मूल है। यह केवल एक तकनीकी बदलाव नहीं, एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण है- एक ऐसा अवसर जिसमें भाषा हमारे भविष्य से अपना संवाद रचती है।
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