हिंदी साहित्य के कद्दू में कितने नाखून, कितने डंठल!
देव प्रकाश चौधरी
आचार्य जी ने पहले अपने योग्य शिष्य को देखा, फिर उसके हाथ में सुशोभित कद्दू को। सब्जी वाले के ठेले पर पड़े 11 में से एक कद्दू पर नाखून गड़ाकर जब कोमलता का अहसास हो गया था, तब उस दिन भारतीय साहित्य के उस प्रकाशनातुर युवा आलोचक और आचार्य शिष्य ने, पहली बार बिना मोल-भाव किए कद्दू खरीदा था। साहित्य के हर आचार्य को कद्दू क्यों पसंद होता है, यह भी सोचा था, लेकिन मुहुर्त बीता जा रहा था, इसलिए सवाल सोचकर ही भागा। जवाब पाने की कोशिश न की। वैसे भी आलोचना में अब तक उसने सवाल उठाना ही सीखा था। जवाब की तरफ कभी गया ही नहीं। आज आचार्य उसे अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा सूत्र सौंपने वाले थे-“बिना पढ़े कविता की किताब की समीक्षा कैसे करें?“
सूत्र सौंपने से पहले, आचार्यजी ने शिष्य प्रदत्त कदूदू की कोमलता के अहसास के लिए नाखुन नहीं गड़ाए। कद्दू के डंठल को हिला कर देखा। अब तक साहित्य में भी इसी तरीके से डंठल हिलाकर कोमलता और कठोरता का हिसाब लगाते रहे थे वे। आश्वस्त हुए तो शिष्य की ओर मुखातिब हुए-“कविता में नाखुन गड़ाकर तुम कवि से नहीं जीत सकते। डंठल को हिलाना जरूरी है।“ शिष्य ने पल भर में इस महान वाक्य को उदरस्थ कर लिया। अब जब कद्दू किचन तक पहुंच गया था, आचार्यजी प्रसन्न मुद्रा और कीरतनिया उत्साह में अपने सूत्र की तिजौरी तक पहुंच गए। बोले, “देखो, आज तुम्हें पांच वाक्य देता हूं…उसी पर ध्यान केंद्रित कर आलोचना आरंभ कर दो तो साहित्य में पूजे जाओगे, बुलाए जाओगे, पुरस्कार मिलेंगे। पांच वाक्य याद रखो,…बस…किताब पढ़ने की नौबत कतई नहीं आएगी।“ अब तक शिष्य नोटबुक सामने रख कलम खोलकर बैठ चुका था। “देखो…अगर बिलखने वाली कविता लगे तो एक वाक्य जरूर लिखना कि इस कविता में कवि का आत्मबोध लुप्त हो रहा है।“ शिष्य का कलम चलने लगा था। “अगर किलकने वाली कविता हो तो लिखना…यहां अपने जूते के तले अपनी आत्मा छुपाए कवि निरंतर अकेले हो जाने की पीड़ा से मुक्ति की चाह रखता है।“ शिष्य आचार्य जी की प्रतिभा पर मरा तो नहीं, मिटने को तैयार सा दिखा। अब आचार्य का तीसरा सूत्र सामने था. “अगर कविता में रोमांस या प्रेम की गंध आए तो लिखना…शैली पर पाश्चात्य प्रभाव है और कवि अपने भोगे हुए यथार्थ से दूर जाता दिखाई देता है।“ दूरदृष्टि कमजोर वाले उस शिष्य ने पहली बार अपना चश्मा ठीक किया। आचार्यजी अपने क्लास वाले फार्म में आ गए थे-“बोले…चौथा सूत्र ये है कि अगर कविता सामाजिक टाइप की हो तो लिखना, यहां कविता समाज और इंसानियत के बीच पुल का काम कर रही है और कई सवाल भी खड़े करती है। अब वे कौन से सवाल हैं पाठकों पर छोड़ देना, नहीं तो तुम फंस जाओगे।“ शिष्य की आंखों में कृतज्ञता के भाव आ गए। आचार्यजी ने एक लंबी सांस ली और फिर बोलना शुरु किया-“अगर कविता समझ में न आए तो लिखना यहां कवि अपनी कविता को लेकर वहां जा पहुंचा है, जहां कविता के होने और न होने के बीच एक महीन लेकिन पारदर्शी परदा भर रह जाता है।“
नोट करते-करते शिष्य कृतार्थ हो गया, लेकिन उसी पल एक सवाल पूछ कर अपने शिष्य धर्म की रक्षा को आतुर दिखा-“सर…अगर कविता सचमुच समझ में आ गई तो…?“ आचार्यजी ने भर्राए गले और खीझे स्वर से कहा, “जिस दिन तुम्हें कविता समझ में आ जाएगी, उस दिन तुम आलोचना लिखना छोड़ दोगे।“ आचार्यजी का गला शिष्य के मूढ़ प्रश्न पर नहीं, खांसी के चलते भर आया था, वे वाश वेसिन की ओर लपके, लेकिन वहीं से लगभग चिल्लाते हुए बोले, “और हां, जिस दिन किताब तुम्हारे पास आए, उसी दिन समीक्षा लिखने नहीं बैठ जाना। किताब को कम से कम छह दिन फ्रीज के ऊपर रख देना। हो सकता है पत्नी इधर उधर सामान रखने के लिए तुम्हें टोके भी। ये उनका धर्म है। तुम अपने धर्म पर रहना। किताब फ्रीज के ऊपर ही रखना। पानी के बोतल की तलब, कविता के मूल्यांकन की प्यास को गहरी करती है। अब जाओ…।“ उस दिन आचार्य जी से सूत्र लेकर लौटा शिष्य, आज साहित्य में मूल्यांकन के प्याऊ का मालिक है। बिना पढ़े समीक्षा कर रहा है।