हिंदी आलोचक डॉ.नगेन्द्र और संत देवरहा बाबा

डा. प्रकाश चंद्र गिरि

यद्यपि विगत आधी शताब्दी के अधिकांश बड़े हिंदी विद्वानों ने प्रगतिशीलता के दबाव में भारतीय संतों पर बहुत कम लिखा है तथापि कुछ लोगों के संस्मरणों में साधु-संत विषयक उनकी आस्था और अनुभवों की झलक मिलती है। प्रतिबद्ध वामपंथी रचनाकारों ने भले ही मंचों पर ईश्वर को अफीम की गोली बताया हो किन्तु उनमें से अधिकतर निजी जीवन में सिद्धांत के प्रतिकूल ही आचरण करते रहे हैं। ऐसे पाखण्ड-मूर्तियों के दुहरे चरित्र की अनेक कथाएं सोशल मीडिया पर आए दिन सार्वजनिक होती रहती हैं। भारतीय मिट्टी में आध्यात्मिकता की जड़ें बहुत गहरी और पुरातन हैं। आयातित विचारधाराओं के फैशन और प्रभाव में भले ही ऊपरी तौर पर उनकी उपेक्षा होती रही हो किन्तु मुक्तिबोध से नामवर सिंह तक के जीवन के आखिरी दिनों के व्यवहार और विचार से उन सबके द्वंद्व को समझा जा सकता है।
रसवादी आलोचक डॉ.नगेन्द्र (1915-1999) अपने समय के कद्दावर व्यक्ति थे। उनके समकालीनों के संस्मरणों से आज हिंदी के पाठकों को यह ज्ञात है कि डॉ.नगेन्द्र अपनी विद्वता,रचनाशीलता व प्रबंधन की कुशलता से कई दशकों तक हिंदी जगत के अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति बने रहे। नामवर जी से पहले अपने चेले-चपाटियों को हिंदी विभागों में समायोजित करने के मामले में डॉ.नगेन्द्र ही शीर्ष पर थे। भारतीय रसवादी धारा के अध्ययन-मनन के कारण उनमें साम्यवादी विचारकों की भाँति शुष्कता और भारतीय परंपराओं से विरोध न था। युगीन फैशन का दबाव तो उन पर भी था किंतु कुछ जगहों पर उन्होंने अपने विलक्षण अनुभवों को स्वीकार किया है। भारत के महान संत देवरहा बाबा पर श्री संकठा सिंह लिखित पुस्तक में डॉ.नगेन्द्र का एक अद्भुत संस्मरण मिला। एक बार डॉ.नगेन्द्र अपने कुछ मित्रों के साथ दिल्ली से देवरहा बाबा का दर्शन करने गए। उन दिनों बाबा का दर्शन करने के लिए कुछ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था और फिर नदी पार करनी पड़ती थी। नदी पार करने के लिए नीचे के वस्त्र उतार कर लोग अंडरवियर पहन कर पार कर लेते थे। डॉ.नगेन्द्र एक तो पैदल चलने से कुछ थके थे दूसरे उनको फुलपैंट उतारकर नेकर में नदी पार करना अच्छा नहीं लगा। वे उसी किनारे पर एक पेड़ के नीचे बैठ गए और मित्रों को जाकर बाबा का दर्शन कर आने के लिए कहा। उनके मन में बड़ा मलाल था कि इतनी दूर से यहां तक आकर भी वे बाबा का दर्शन करने नहीं जा सके। उनके मित्रगण चले गए तो डॉ.नगेन्द्र को नदी किनारे पेड़ के नीचे हल्की सी झपकी आ गयी। इतने में कोई जटाजूट धारी साधु उनके समीप आकर बोला-“क्यों बच्चा, तू दर्शन करने नहीं गया?’ डॉ.नगेन्द्र ने कहा-‘बाबा, नदी में कमर भर पानी है, मैं उसे पार करके नहीं जा सका।’ उस साधु ने डॉ.नगेन्द्र से कहा कि “अच्छा, अच्छा कोई बात नहीं, बाबा तो सर्वत्र हैं। तू यहीं दर्शन कर ले। अहंकार घोर शत्रु है। वह प्रभु से मिलने नहीं देता। बच्चा, तू अपना काम करता जा। भारतीय शास्त्र महान हैं। उनके आलोक को फैला। ले, यह प्रसाद ले और बोल ‘ऊं कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेश नाशाय गोविंदाय नमो नमः’ और नगेन्द्र भगत, सोच कि संसार पीछे छूट गया और तू भगवान के सम्मुख है। कल्याण है।’ प्रसाद देकर वे बाबा चले गए। उनकी आकृति बड़ी भव्य थी। डॉ.नगेन्द्र ने बहुत संतोष का अनुभव किया। कुछ घंटे में इनके मित्रगण बाबा का दर्शन कर नदी के उस पार से वापस आये। उन लोगों ने डॉ.नगेन्द्र को बाबा से मिला प्रसाद दिया। वे यह देखकर दंग रह गए कि यह तो बिल्कुल वही प्रसाद है जो अभी कुछ देर पहले मुझे यहीं एक साधु देकर गए। डॉ.नगेन्द्र ने मित्रों से बाबा का हुलिया पूछा तो मित्रों ने जो हुलिया बताया वह ठीक उन्हीं साधु महाशय का था, जो थोड़ी देर पहले आकर डॉ.नगेन्द्र को प्रसाद और उपदेश देकर गए थे। मित्रों ने बताया कि वे लोग जब तक वहां थे, बाबा अपने मचान पर ही मौजूद थे। एक पल के लिए भी कहीं इधर उधर नहीं गए थे। डॉ. नगेन्द्र अचरज में पड़ गए और वहीं भूमि में सर झुका कर उन्होंने बड़ी श्रद्धा के साथ देवरहा बाबा को बारंबार प्रणाम किया।
(लेखक एमएलके पीजी कालेज बलरामपुर में हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)

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