हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूले थे काकोरी ट्रेन एक्शन के रणबांकुरे

जानकी शरण द्विवेदी

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के काल खण्ड में कई ऐसी घटनाएं हुईं हैं, जिन्होंने इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। उन घटनाओं का परिणाम तो दूरगामी हुआ ही, आज भी उन्हें हम बहुत आदर और सम्मान के साथ याद करते हैं। इसी प्रकार की एक घटना करीब 97 वर्ष पूर्व लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन पर हुई थी, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दिया था। अंग्रेजों ने उस समय इस घटना को ‘काकोरी कांड’ कहा था, किन्तु बाद में भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के इस अहम् अध्याय को ‘काकोरी ट्रेन एक्शन’ के नाम से जाना गया। इस मामले में देश के 40 क्रांतिकारियों के खिलाफ ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाने को लूटने और यात्रियों की हत्या का मामला दर्ज कर मुकदमा चलाया गया, जिसमें राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह को सजा-ए-मौत दी गई। कुछ को तीन वर्ष के कारावास से लेकर काला पानी यानि आजीवन कारावास की सजा दी गई। साक्ष्य के अभाव में कुछ क्रान्तिकारियों को बरी कर दिया गया था।

‘काकोरी ट्रेन एक्शन’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध एक ऐतिहासिक घटना थी, जो नौ अगस्त 1925 को घटी। दरअसल लाला हरदयाल की अगुवाई में उत्तर प्रदेश तथा बंगाल के कुछ क्रान्तिकारियों द्वारा सन् 1924 में कानपुर में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) नामक एक क्रान्तिकारी पार्टी का गठन किया गया था, जिसका उद्देश्य हिन्दुस्तान को अंग्रेजों के शासन से मुक्त कराना था। एचआरए की ओर से प्रकाशित संकल्प और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुँचे शचीन्द्र नाथ सान्याल बांकुरा में तथा योगेश चटर्जी हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ही एचआरए के संविधान की ढ़ेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। एचआरए के दो प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने के बाद राम प्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर पार्टी का उत्तरदायित्व आ गया। संगठन के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले से अधिक बढ़ गयी थी। क्रांतिकारी पहले अपने धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए महाजनों और जमींदारों को लूटा करते थे, किन्तु सात मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में द्वारकापुर में डाली गई दो राजनीतिक ड़कैतियांे में एक-एक व्यक्ति के मौके पर मारे जाने के बावजूद उन्हें कोई विशेष धन प्राप्त न हो सका। इससे क्रांतिकारियों ने अपनी लूट की रणनीति बदली और सरकारी खजानो को लूटने की योजना बनाई। यह तय किया गया कि संगठन के खर्च और हथियारों के लिए सरकारी खजाने पर धावा बोला जाएगा। अतः धन की तत्काल जरूरत को पूरा करने के लिए राम प्रसाद बिस्मिल ने शाहजहांपुर में हुई बैठक के दौरान काकोरी रेलवे स्टेशन पर आठ डाउन, सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन से सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायी। उन दिनों रेल विभाग की संग्रहीत धनराशि को लखनऊ में रेलवे के मुख्य खजाने में जमा कराने के लिए इसी ट्रेन से ले जाया जाता था। खजाना गार्ड की बोगी में रखा जाता था। यह तय किया गया कि जब तक जान पर न आ पड़े, किसी पर हमला नहीं करना है, कोई गोली नहीं चलानी है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि काकोरी एक्शन के संबंध में जब एचआरए दल की बैठक हुई तो अशफाक उल्लाह खां ने ट्रेन डकैती का विरोध किया था, लेकिन अंततः वह भी सहमत हो गए और ट्रेन एक्शन की योजना बहुमत से पास हो गई। इस एक्शन के लिए आठ अगस्त, 1925 का दिन चुना गया था। मगर क्रान्तिकारियों के थोड़ा विलम्ब से पहुंचने के कारण ट्रेन छूट गई इसलिए अगले दिन अर्थात् नौ अगस्त, 1925 को एक्शन को अंजाम दिया गया। शाम को यह ट्रेन हरदोई से चली तो क्रांतिकारी इसमें चढ़ गए। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, योजनानुसार राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी ने ट्रेन को चेन खींच कर रोका। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खां, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र नाथ लाहिडी, शचीन्द्र नाथ बख्शी, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती, मुकुन्दी लाल, बनवारी लाल और मन्मथ नाथ गुप्त ने गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्शा नीचे गिरा दिया गया। पहले तो बक्शा खोलने का प्रयास किया गया, किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खां ने अपना माउजर मन्मथ नाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्शा तोड़ने में जुट गए। मन्मथनाथ गुप्त से असावधानी वश माउजर का ट्रिगर दबा दिया, जिससे निकली गोली अहमद अली नाम के यात्री को लग गयी और वह मौके पर ही मर गया। जल्दबाजी में चांदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। इस ट्रेन एक्शन में कुल 4601 रुपये 15 आने और छह पाई लूटे गए थे। इसकी एफआईआर की कॉपी आज भी काकोरी थाने में फोटो फ्रेम में सुरक्षित रखी गई है। एफआइआर की मूल कॉपी उर्दू में लिखी गई थी। इस लूट के दौरान क्रांतिकारियों द्वारा जर्मनी की चार माउजर और देशी पिस्तौलों का उपयोग किया गया था।

ट्रेन एक्शन की इस घटना से ब्रितानी हुकूमत हिल उठी थी। उसने घटना का पर्दाफाश करने के लिए पूरी ताकत लगा दी। सीआईडी इंस्पेक्टर खान बहादुर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की पुलिस को इसकी जांच का जिम्मा सौंपा दिया। पुलिस ने घटना के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ़्तार करवाने में मदद के लिये पांच हजार रुपये पुरस्कार देने की घोषणा कर दी। साथ ही इसके विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटना स्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से पता चल गया कि यह चादर शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहांपुर के धोबियों से पूछताछ पर पता चला कि चादर बनारसी लाल की है। बिस्मिल के साथी बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने घटना के सम्बंध में सारी जानकारी प्राप्त कर ली। पुलिस को यह भी पता चल गया कि नौ अगस्त 1925 को शाहजहांपुर से राम प्रसाद बिस्मिल की पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? अब खुफिया तौर पर ब्रिटिश हुकूमत इस बात के लिए मुतमईन हो गई थी कि इस घटना को पं. राम प्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में एचआरए ने अंजाम दिया है। वैसे तो इस घटना में वास्तविक रूप से राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में केवल 10 क्रांतिकारी ही शामिल हुए थे, किन्तु अंग्रेजी हुकूमत ने 26 सितम्बर 1925 की रात हिन्दुस्तान के कोने-कोने से बिस्मिल समेत 40 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करवा लिया। हालांकि देशव्यापी गिरफ्तारियों के बावजूद काकोरी की घटना में शामिल पांच क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती, अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी मुकदमे में नामजद होने के बावजूद पकड़ में नहीं आ पाए।

26 सितम्बर 1925 की रात जो क्रांतिकारी गिरफ्तार किए गए, उनमें आगरा से चन्द्रधर जौहरी व चन्द्रभाल जौहरी, इलाहाबाद से शीतला सहाय, ज्योति शंकर दीक्षित व भूपेंद्रनाथ सान्याल, उरई से वीरभद्र तिवारी, बनारस से मन्मथनाथ गुप्त, दामोदर स्वरूप सेठ, रामनाथ पाण्डेय, देवदत्त भट्टाचार्य, इन्द्र विक्रम सिंह व मुकुन्दी लाल, बंगाल से शचीन्द्र नाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, शरत चन्द्र गुहा व कालिदास बोस, एटा से बाबूराम वर्मा, हरदोई से भैरों सिंह, जबलपुर से प्रणवेश कुमार चटर्जी, कानपुर से राम दुलारे त्रिवेदी, गोपी मोहन, राज कुमार सिन्हा व सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य, लाहौर से मोहन लाल गौतम, लखीमपुर से हरनाम सुन्दरलाल, लखनऊ से गोविंद चरण कार व शचीन्द्र नाथ विश्वास, मेरठ से विष्णु शरण दुब्लिश, पूना से राम कृष्ण खत्री, रायबरेली से बनवारी लाल, सहारनपुर से राम प्रसाद बिस्मिल, शाहजहांपुर से बनारसी लाल, लाला हरगोविन्द, प्रेम कृष्ण खन्ना, इन्दु भूषण मित्रा, ठाकुर रोशन सिंह, रामदत्त शुक्ला, मदन लाल व रामरत्न शुक्ला शामिल हैं।

काकोरी ट्रेन एक्शन का मुकदमा दो चरणों में चला था। पहले चरण में उन 40 क्रांतिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाया गया, जिनकी गिरफ्तारी हो चुकी थी और दूसरे चरण में उन क्रांतिकारियों को शामिल किया गया, जो उस समय तक अंग्रेजी हुकूमत की पकड़ से बाहर थे। मुख्य मुकदमा सरकार बनाम राम प्रसाद बिस्मिल आदि के नाम से दिसंबर 1925 से अगस्त 1927 तक लखनऊ के रोशनदौला कचहरी में चला, जबकि पूरक मुकदमा रिंग थियेटर, (जिस भवन में वर्तमान में लखनऊ का प्रधान डाकघर स्थित है) में चला था। काकोरी ट्रेन एक्शन में करीब 4602 रुपए लूटे गए थे, किन्तु सरकार ने काकोरी एक्शन का मुकदमा लड़ने में 10 लाख खर्च कर दिए। जगत नारायण मुल्ला को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया। क्रान्तिकारियों की ओर से केसी दत्त, जयकरण नाथ मिश्र व कृपा शंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खां की पैरवी की। राम प्रसाद बिस्मिल ने सरकारी अधिवक्ता लेने से इंकार कर दिया था और अपनी पैरवी खुद की थी, क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मी शंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण सा वकील दिया गया था। बिस्मिल द्वारा की गयी कानूनी बहस से सरकारी महकमे में सनसनी फैल गयी। इसलिए अदालत ने बिस्मिल की स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। अन्ततोगत्वा लक्ष्मी शंकर मिश्र को ही राम प्रसाद बिस्मिल की ओर से बहस करने की इजाजत दी गयी। इस मुकदमे में एक खास बात यह थी कि इसमें वह अपराध भी शामिल किये गए, जिनका काकोरी एक्शन से कोई संबंध नहीं था। मुकदमे की प्रारंभिक सुनवाई के दौरान विशेष न्यायाधीश ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी और प्रकरण को सेशन न्यायालय में भेजने से पहले ही इस बात के पक्के सबूत व गवाह एकत्र कर लिये थे, ताकि बाद में यदि अभियुक्तों की तरफ से कोई याचिका भी की जाये तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाएं।

छह अप्रैल 1927 को स्पेशल जज हेमिल्टन ने अपना फैसला सुनाते हुए ब्रिटिश कानून व्यवस्था की धारा 121ए, 120 बी और 396 के तहत इस घटना में शामिल रहे तीन लोगों राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को फांसी की सजा दी। 20 लोगों को तीन वर्ष की कैद से लेकर काला पानी अर्थात आजीवन कारावास तक की सजा हुई। जिन क्रान्तिकारियों को एचआरए का सक्रिय कार्यकर्ता होने के संदेह में गिरफ्तार किया गया था, उनमें से 14 को साक्ष्य न मिलने के कारण बरी कर दिया गया। नामजद क्रांतिकारियों में फरार चल रहे अशफाक उल्ला खां व शचीन्द्रनाथ बख्शी को बाद में क्रमशः दिल्ली व भागलपुर से उस समय गिरफ्तार किया गया था, जब काकोरी-एक्शन के मुख्य मुकदमे का फैसला सुनाया जा चुका था। विशेष न्यायाधीश जेआरडब्लू बैनेट की न्यायालय में इस घटना का पूरक प्रकरण दर्ज हुआ और 13 जुलाई 1927 को इन दोनों पर भी सरकार के विरुद्ध साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई। सेशन कोर्ट के दोनों फैसलों के खिलाफ 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धारा प्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की, तो सरकारी वकील जगत नारायण मुल्ला बगलें झांकते नजर आये। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा-मिस्टर राम प्रसाद! फ्राम विच यूनिवर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री आफ ला’ अर्थात् मि. राम प्रसाद! आपने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली है? इस पर बिस्मिल ने हँसकर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था-‘एक्सक्यूज मी सर, ए किंग मेकर डज नाट रिक्वायर ऐनी डिग्री’ अर्थात् क्षमा करें महोदय! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।

मुकदमा की बहस चल रही थी। पण्डित जगत नारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए मुल्जिमान की जगह ‘मुलाजिम’ शब्द बोल दिया। फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल ने तपाक से उन पर एक चुटीली फब्ती कसी। उन्होंने कहार :

‘मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहां तशरीफ लाए हैं।

पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।’

उनके कहने का मतलब स्पष्ट था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, मुल्ला जी हैं, जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं। अतः उनके साथ तमीज से पेश आएं। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र की लहरों को भी अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। इसके बाद मुल्ला जी ने सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने से मना कर दिया। इस पर अदालत ने बिस्मिल को दी गयी स्वयं बहस करने की अनुमति खारिज कर दी। बिस्मिल ने फिर भी हार नहीं मानी। उन्होंने 76 पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिसे देखकर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। अन्ततोगत्वा उनके मामले में उन्हीं लक्ष्मी शंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी, जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। यह भी अदालत और सरकारी वकील जगत नारायण मुल्ला की मिली भगत से किया गया, क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लड़ने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती।

22 अगस्त 1927 को अपीलीय कोर्ट ने काकोरी एक्शन का अन्तिम फैसला सुनाया। आदेश के अनुसार, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खां व ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। शचीन्द्र नाथ सान्याल की उम्र कैद बरकरार रही। भूपेन्द्रनाथ सान्याल (शचीन्द्र नाथ सान्याल के छोटे भाई) व बनवारी लाल दोनों को पांच वर्ष की सजा के आदेश हुए। योगेश चन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्द चरण की सजायें 10 वर्ष से बढ़ाकर आजीवन कारावास में बदल दी गयीं। विष्णु शरण दुब्लिश व सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य की सजाएं भी सात वर्ष से बढ़ाकर 10 वर्ष कर दी गयी। रामकृष्ण खत्री की 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा बरकरार रही। प्रणवेश कुमार चटर्जी की सजा को पांच वर्ष से घटाकर चार वर्ष कर दिया गया। काकोरी एक्शन में रामनाथ पाण्डेय को सबसे कम सजा (तीन वर्ष) हुई। मन्मथ नाथ गुप्त, जिनकी गोली से यात्री मारा गया था, की सजा बढ़ाकर 14 वर्ष कर दी गयी। एक अन्य अभियुक्त राम दुलारे त्रिवेदी को इस प्रकरण में पांच वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गयी।

अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर दावानल की तरह समूचे हिन्दुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल में काकोरी एक्शन के चारो मृत्यु दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। काउंसिल के कई सदस्यों ने संयुक्त प्रान्त के तत्कालीन गवर्नर सर विलियम मोरिस को इनकी सजा-ए-मौत माफ करने की प्रार्थना की, परन्तु उसने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। काउंसिल के 78 सदस्यों ने शिमला जाकर तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को हस्ताक्षर युक्त ज्ञापन दिया, जिस पर प्रमुख रूप से पं. मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एनसी केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने अपने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका कोई असर न हुआ। बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी काउंसिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैण्ड के वकील एसएल पोलक के पास भिजवाया। लंदन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर यही दलील दिया कि इस एक्शन का सूत्रधार राम प्रसाद बिस्मिल बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है। उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर अपराध कर सकता है। उस स्थिति में अंग्रेज हुकूमत को हिन्दुस्तान में राज करना असम्भव हो जायेगा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि प्रिवी काउंसिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी। इसके बाद 17 दिसंबर 1927 को सबसे पहले गोंडा जेल में राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को फांसी दी गई। उसके बाद 19 दिसंबर, 1927 को गोरखपुर जेल में पं. राम प्रसाद बिस्मिल को, इलाहाबाद जेल में ठाकुर रोशन सिंह तथा फैजाबाद जेल में अशफाक उल्ला खां को फांसी दी गई। काकोरी एक्शन में अंग्रेजों ने चन्द्रशेखर आजाद को खोजने का बहुत प्रयास किया, लेकिन वे हुलिया बदल-बदल कर बहुत समय तक अंग्रेजों को धोखा देने में सफल होते रहे। अंततः 27 फरवरी 1931 को तत्कालीन इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क जिसे अब उन्हीं के नाम से जाना जाता है, में अंग्रेज सैनिकों से चौतरफा घिर जाने पर बहादुरी से उनका सामना करते अंग्रेजी हुकूमत के हाथ जिंदा पकड़ में न आने के अपने संकल्प के कारण अन्ततः अंतिम गोली उन्होंने अपनी ही कनपटी से सटाकर दाग लिया। काकोरी की इस घटना का स्वतंत्रता आन्दोलन के लम्बे काल खण्ड में केवल ढ़ाई वर्ष का इतिहास है, किन्तु इस घटना के बाद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की जो चिंगारी निकली, उसने मात्र 22 वर्ष के अंदर हिन्दुस्तान से अंग्रेजों को देश छोड़कर भाग जाने के लिए मजबूर कर दिया और 15 अगस्त 1947 को हम आजाद हो गए। इस मौके पर स्वाधीनता आन्दोलन में देश की बलिवेदी पर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले अगणित ज्ञात-अज्ञात शहीदों को शत्-शत् नमन!

आवश्यकता है संवाददाताओं की

तेजी से उभरते न्यूज पोर्टल www.hindustandailynews.com को गोंडा जिले के सभी विकास खण्डों व समाचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों तथा देवीपाटन, अयोध्या, बस्ती तथा लखनऊ मण्डलों के अन्तर्गत आने वाले जनपद मुख्यालयों पर युवा व उत्साही संवाददाताओं की आवश्यकता है। मोबाइल अथवा कम्प्यूटर पर हिन्दी टाइपिंग का ज्ञान होना आवश्यक है। इच्छुक युवक युवतियां अपना बायोडाटा निम्न पते पर भेजें : jsdwivedi68@gmail.com OR 9452137310 (WhatsApp)
जानकी शरण द्विवेदी

error: Content is protected !!