सुलतानपुर का ऐतिहासिक दुर्गापूजा महोत्सव दशहरे से शुरू, पूर्णिमा को होगा विसर्जन

सुलतानपुर(हि.स.)। कोलकाता के बाद उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले के कुशभवनपुर का ऐतिहासिक दुर्गापूजा महोत्सव दशहरे के दिन से शुरू हो गया है। यहां का विसर्जन सबसे आकर्षक होता है, जो परंपरा से हटकर पूर्णिमा को सामूहिक शोभायात्रा के रूप में शुरू होकर करीब 36 घंटे में सम्पन्न होता है। पांच दिनों तक अलग-अलग तरह से होने वाली भव्य सजावट और दुर्गा जागरण से शहर अलौकिक हो उठता है।

केंद्रीय पूजा व्यवस्था समिति के पूजा प्रबंधक बाबा राधेश्याम सोनी बताते हैं कि वर्तमान में सुलतानपुर नाम से प्रसिद्ध जिले को भगवान राम के पुत्र कुश ने बसाया था, जिससे कुशभवनपुर के नाम से भी जाना जाता है। यहां की हाेने वाली दुर्गापूजा अपने आप में ऐतिहासिक है। उन्होंने कहा कि भिखारीलाल सोनी इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके द्वारा रखी गई दुर्गापूजा महोत्सव की नींव मजबूत होती चली जा रही है। राधेश्याम की मानें तो उनका जिला गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल था और है। वह इस बुनियाद पर कि पूर्व में दुर्गापूजा महोत्सव के दौरान मोहर्रम और बारह रबीउल अव्वल का पर्व एक साथ पड़ गया था फिर भी यहां बिना विवाद के सकुशल संपन्न हुआ। समितियों में मुस्लिम सदस्य भी हैं और तमाम मुस्लिम विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से दुर्गा भक्तों के सहयोग में लगे रहते हैं। आज दुर्गापूजा महोत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कंधे से कंधा मिलाकर सौहार्द्र बनाये रखने के लिए जुटे रहते हैं।

महोत्सव में इस वर्ष पांच पूजा समितियों को 50 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। वह अपने रजत जयंती पर विभिन्न मॉडल के साथ अन्य आकर्षक कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं, जो श्रद्धालुओं का ध्यान सहज की आकर्षित करेगा। शहर की कोई गली कोई कोना बाकी नहीं, जहां इस ऐतिहासिक उत्सव की धूम न हो। शहर एक पखवाड़े तक रात-दिन जगता है। छह दशकों से चला आ रहा यह समारोह केवल हिंदुओं का पर्व न होकर सुलतानपुर का महापर्व बन चुका है। प्रशासन भी यहां की गंगा जमुनी तहजीब को देखकर पूरी तरह आश्वस्त रहता है।

पहली बार डोली पर निकली थी शोभायात्रा

राधेश्याम सोनी बताते हैं कि पहली बार वर्ष 1959 में शहर के ठठेरी बाज़ार में बड़ी दुर्गा के नाम से भिखारीलाल सोनी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर यहां दुर्गापूजा महोत्सव के उपलक्ष्य में पहली प्रतिमा की स्थापना की थी। इस प्रतिमा को उनके द्वारा बिहार से विशेष रूप से बुलाये गए तेतर पंडित एवं जनक नामक मूर्तिकारों ने अपने हाथों से बनाया था। विसर्जन पर उस समय शोभा यात्रा डोली में निकली गयी थी। डोली इतनी बड़ी होती थी, जिसमे आठ व्यक्ति लगते थे। पहली बार जब शोभा यात्रा सीताकुंड घाट के पास पहुंची थी तभी जिला प्रशासन ने विर्सजन पर रोक लगा दिया था। जो बाद में सामाजिक लोगों के हस्तक्षेप के बाद विसर्जित हो सकी थी। यह दौर दो सालों तक ऐसे ही चला। वर्ष 1961 में शहर के ही रुहट्टा गली में काली माता की मूर्ति की स्थापना बंगाली प्रसाद सोनी ने कराई और फिर 1970 में लखनऊ नाका पर कालीचरण उर्फ नेता ने संतोषी माता की मूर्ति को स्थापित कराया। वर्ष 1973 में अष्टभुजी माता, श्री अम्बे माता, श्री गायत्री माता, श्री अन्नापूर्णा माता की मूर्तियां स्थापित कराई गईं। इसके बाद से तो मानों जिले की दुर्गापूजा में चार चांद लग गया और शहर, तहसील, ब्लाक एवं गांवों में मूर्तियों का तांता सा लग गया। वर्तमान में शहर एवं आसपास के क्षेत्रों में ढाई से तीन सौ के आसपास और जिलेभर में करीब सात सौ से ज्यादा मूर्तियां प्रतिवर्ष स्थापित की जा रही हैं।

दयाशंकर

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