विप्लव इतिहास का श्रीगणेश : खुदीराम बोस

राज खन्ना

30 अप्रैल 1908 का मुजफ्फरपुर बम काण्ड 1857 के अगले चरण के विप्लव इतिहास में श्रीगणेश के तौर पर याद किया जाता है। इस दिन खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश किंग्सफोर्ड को बम से उड़ाने की असफल कोशिश की थी। बम दूसरी बग्घी पर फटा जिसमे सवार दो अंग्रेज महिलाएं मारी गईं थीं। क्रांतिकारियों को दो निर्दोष महिलाओं की मौत का अफसोस था। पर अंग्रेजों को देश के बाहर निकालने के लिए वे हिंसा को जरूरी मानते थे। इस कांड पर 26 मई 1908 को प्रसिद्ध राष्ट्रवादी अखबार ’केसरी’ की टिप्पणी थी, “भारत में बम का आना अंग्रेजों के लिए 1857 के विद्रोह के बाद की सबसे बड़ी चौंकाने वाली घटना थी।“ इतिहासकारों ने इस घटना को आजादी की लड़ाई के नए अध्याय के तौर पर दर्ज किया। कलकत्ता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के पद पर तैनाती के दौरान क्रांतिकारियों के प्रति किंग्सफोर्ड की छवि काफी सख्त और निर्मम थी। क्रांतिकारी उससे बदला लेने पर आमादा थे। खुफिया सूचनाओं के बाद किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर ट्रांसफर किया गया। पर क्रांतिकारी बदला लेने के अपने फैसले पर अटल थे और मुजफ्फरपुर जा पहुंचे। 3 दिसम्बर 1889 को मिदनापुर के समीप हबीबपुर गांव में जन्मे खुदीराम के पिता त्रिलोक्यनाथ बसु नाराजोल स्टेट के तहसीलदार थे। मां लक्ष्मी प्रिया देवी ने पुत्र जन्म पश्चात अकाल मृत्यु टालने के लिए प्रतीक स्वरूप उसे किसी को बेच दिया। उस दौर और इलाके के चलन के मुताबिक बहन अपरूपा ने तीन मुठ्ठी खुदी (चावल के छोटे-छोटे टुकड़े) देकर अपना भाई वापस ले लिया। चूंकि खुदी के बदले परिवार में वापसी हुई, इसलिए नाम दिया खुदीराम। खुदीराम बच गए लेकिन उनके छह साल का होने तक माता-पिता दोनो का साया सिर से उठ गया। आगे के छोटे से जीवन में स्नेह-वात्सल्य उड़ेलती दीदी अपरूपा ने मां-बहन की दोनो जिम्मेदारियां निभाईं। अपनी ससुराल हाटगछिया में अपरूपा ने भाई को साथ रखा। तमलुक के हैमिल्टन स्कूल में भर्ती कराया। उन्ही दिनों वहाँ हैजा फैला। रोगियों के नजदीक जाने की लोग हिम्मत नही जुटा पाते थे। दूसरी तरफ खुदीराम रोगियों की सेवा करते। रोज कई मौतें होतीं। खासतौर पर रात में लोग श्मशान के एक पेड़ पर प्रेत वास के खौफ में वहां जाने की हिम्मत नही बटोर पाते थे। खुदीराम देर रात वहाँ से उस पेड़ की टहनी तोड़ कर वापस लौटे। स्कूली पढ़ाई के दौरान अनेक मौकों पर खुदीराम का सेवा भाव और साहस मित्रों को चमत्कृत कर रहा था तो दीदी अपरूपा की उनकी पढ़ाई को लेकर चिंता बढ़ा रहा था। उन्हें मिदनापुर के नए स्कूल में भर्ती कराया गया। 1905 में बंग भंग विरोधी आंदोलन खुदीराम के जीवन में नया मोड़ लेकर आया। आठवीं कक्षा के विद्यार्थी खुदीराम विभाजन के विरोध में सक्रिय हो गए। पढ़ाई से उनका मन उचट चुका था। किशोरावस्था में ही मातृभूमि के लिए कुछ कर गुजरने का जज़्बा उफान पर था। खुदीराम ने तमाम लोगों के साथ जगन्नाथ मंदिर में बंग विभाजन रद्द न होने तक विदेशी वस्तुओं को हाथ न लगाने की शपथ ली। वह शिक्षक सत्येन बोस के सम्पर्क में आये जो उन दिनों मिदनापुर के युवकों को क्रांतिकारी गतिविधियों से जोड़ने में लगे हुए थे। स्वदेशी वस्तुओं के प्रति खुदीराम का आग्रह बढ़ता ही गया। इस सवाल पर वह कोई समझौता करने को तैयार नही थे। मिदनापुर के दुकानदारों को उन्होंने विदेशी माल के व्यापार से दूर रहने को मजबूर कर दिया। बार बार के अनुरोध और चेतावनियों को नजरअंदाज करने वाले एक दुकानदार के विदेशी वस्तुओं से भरे एक गोदाम को आग के हवाले करने की हद तक वह चले गए। उनकी शख्सियत का दूसरा पहलू सेवा-सहयोग , करुणा-समर्पण से लबरेज था। कासवंती नदी की बाढ़ ने गोबर्धनपुर और पास-पड़ोस के गांवों की आबादी का सब कुछ छीन लिया। खुदीराम और उनके साथियों ने पीड़ितों को सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचाने और राहत उपायों में दिन-रात एक कर दिया। जाड़े की एक सुबह ठिठुरते भिखारी को पिता की निशानी पश्मीने की कीमती शाल खुदीराम ने सौंप दी। दीदी ने कहा वह बेच देगा। खुदीराम का जबाब था कि वह पैसे भी उस गरीब के किसी काम आ जाएंगे।
मिदनापुर में 1906 के आरंभ तक सत्येन बोस क्रांतिकारी दल से खुदीराम के साथ ही अविनाश चंद चक्रवर्ती, कार्तिक चंद्र दत्त, भुजंगधर घोष, चंद्रकांत चक्रवर्ती और इंद्रनाथ नंदी आदि को जोड़ चुके थे। इन युवाओं को शारीरिक प्रशिक्षण के साथ ही धार्मिक ग्रंथों और क्रांतिकारी साहित्य के अध्ययन में सक्रिय कर वह उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल करने में जुटे थे। वंदेमातरम, जुगान्तर और सांध्य के लेख खुदीराम और साथियों को लगातार विदेशी दासता से संघर्ष के लिए प्रेरित कर रहे थे। 1906 में मिदनापुर के पुराने जेल प्रांगण में आयोजित कृषि प्रदर्शनी के आखिरी दिन वहाँ जिलाधिकारी प्रमाणपत्र वितरित कर रहे थे। दूसरी तरफ उसी भीड़ के बीच खुदीराम उत्तेजनात्मक सामग्री से भरपूर वंदेमातरम की प्रतियां लोगों को बांट रहे थे। शिक्षक राम चन्द्र सेन ने उन्हें रोका। न मानने पर वहाँ मौजूद पुलिस को खबर कर दी। पकड़ने के लिए अपनी ओर बढ़े हवलदार की नाक पर घूंसा जड़कर खुदीराम फरार हो गए। ब्रिटिश साम्राज्य और राज्यविरोधी गतिविधियों के आरोप में मामला दर्ज हुआ। अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया लेकिन कम उम्र का हवाला देकर उन्हें जेल नही भेजा। 1907 में क्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए खुदीराम डाक का बैग लूटकर भागे। इस मामले में भी वह बच गए और अन्य किसी को आठ माह की सजा हुई।
मिदनापुर में खुदीराम पुलिस की नजर में चढ़ चुके थे। बचने के लिए उन्हें कलकत्ता भेजा गया। वहाँ अरविंद घोष, बारिन घोष, कनाईलाल दत्त, उवेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय, उल्हासकर दत्त सहित अनेक क्रांतिकारियों के वह संपर्क में आये। बंग भंग आंदोलन की तीव्रता 1908 तक शांत हो चुकी थी। क्रांतिकारी अलख जगाए रखना चाहते थे। कलकत्ते से मुजफ्फरपुर ट्रांसफर के बाद भी किंग्सफील्ड पर क्रांतिकारियों का गुस्सा कायम था। जुगान्तर समूह के बारीन्द्र कुमार घोष ने उसके खात्मे के लिए प्रफुल्ल चाकी को वहाँ भेजने का फैसला किया। खुदीराम बोस ने भी इस साहसिक अभियान के लिए खुद को पेश किया। मिदनापुर के क्रांतिकारी हेमचंद्र दास कानूनगो के कहने पर बारीन्द्र राजी हुए। दोनो को मणिकतल्ला शस्त्र भंडार से बम और रिवाल्वर मुहैय्या कराई गईं। बंगाल के क्रांतिकारियों का किसी विदेशी की हत्या का यह प्रथम राजनीतिक अभियान था। 10-11 अप्रैल 1908 को प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर पहुंच गए। उन्हें कुछ स्थानीय लोगों की सहायता प्राप्त थी। एक धर्मशाला को दोनो ने ठिकाना बनाया। अगले कुछ दिन उन्होंने वहाँ के रास्तों की जानकारी ली। माकूल मौके की तलाश की। फिर चुनी 30 अप्रैल 1908 की तारीख। रात का समय। जब किंग्सफोर्ड ब्रिज खेलने क्लब जाता था। यह अमावस्या की रात थी, जिसे देवी काली की पूजा के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। हिंदुओं के नववर्ष का भी यह शुभ दिन था। वे इस दिन विदेशी सत्ता का अशुभ समय शुरू होने का संदेश देना चाहते थे खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी ने पहले किंग्सफोर्ड के घर के सामने ठहरकर उनके बाहर निकलने की टोह ली। गार्ड की उन पर नजर पड़ी लेकिन वह उनके इरादे भांपने में विफल रहा। क्लब से रात साढ़े आठ बजे किंग्सफोर्ड और पी.एम. कैनेडी एक जैसी बग्घियों से बाहर निकले। बघ्घी के नजदीक पहुंचने पर खुदीराम बोस ने उस पर बम फेंका। लेकिन खुदीराम चूक गए। बम गलत बघ्घी पर फेंका गया , जिसमे वकील प्रिंगल केनेडी की निर्दोष पत्नी और पुत्री मारी गईं। बेशक क्रांतिकारी अपने लक्ष्य में विफल रहे लेकिन ब्रिटिश सत्ता के लिए संदेश बहुत साफ और गहरा था। 1857 की विफ़ल क्रांति के बाद यह कार्रवाई संघर्ष के नए चरण की शुरुआत का संदेश थी।
साहस और जोश से भरे खुदीराम और प्रफुल्ल भागते समय हड़बड़ी में अपने जूते और चादर घटनास्थल पर छोड़ गए। बंगले के गार्ड की निगाह में जो दो युवक आये थे उनकी रात में ही तलाश शुरू हो गई। अंधेरे में भागने के लिए दोनो ने विपरीत रास्ते पकड़े। प्रफुल्ल चाकी अगले दिन नए कपड़ों-जूतों में समस्तीपुर रेलवे स्टेशन से मोकामा के लिए ट्रेन पर सवार हुए। उनके डिब्बे में ड्यूटी पर सिंहभूमि जाने के लिए दरोगा नंदलाल घोष भी सवार था। बीती रात की वारदात उसकी जानकारी में थी। दरोगा को प्रफुल्ल संदिग्ध नजर आया। बंगाली रंग-ढंग और बोलचाल के जरिये दरोगा ने चाकी को दोस्ती का झांसा दिया। मोकामा में पुलिस प्रफुल्ल को गिरफ्तार करने के लिए खड़ी थी। पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद भी प्रफुल्ल ने हिम्मत नही हारी। एक पुलिसकर्मी को धक्का देकर वह भाग निकले। पर पीछे भागती पुलिस उन्हें घेर चुकी थी। उन्हें अहसास हो चुका था कि वह बहुत दूर नही जा पाएंगे। लेकिन उन्होंने जीते जी विदेशी सत्ता की पुलिस के हाथों न पड़ने की कसम खायी थी। प्रफुल्ल ने खुद को गोली मारकर कसम निभाई। प्रफुल्ल की शिनाख्त के लिए पुलिस का तरीका जघन्य और घृणित था। उसके शरीर से सिर अलग किया और उसे स्प्रिट में डुबोकर कलकत्ता भेजा। देशद्रोही दरोगा नंदलाल को क्रांतिकारियों ने नही बख्शा और कुछ महीने बाद 9 नवम्बर को गोली मारकर खत्म कर दिया। खुदीराम बोस भी उसी दिन 1 मई को मुजफ्फरपुर स्टेशन से 20 मील दूर वैनी स्टेशन के नजदीक हैंडपंप पर पानी पीते समय पकड़े गए। वह भाग तो नही सके लेकिन पुलिस की गाड़ी में चढ़ते समय तेज आवाज में वंदेमातरम का उदघोष करके उन्होंने वहाँ मौजूद भीड़ में जोश भर दिया।
25 मई 1908 को अदालती कार्यवाही शुरू हुई। शरीर से कृशकाय खुदीराम मुकदमे का सामना करते समय चट्टान थे। उनका वजन दो पाउंड बढ़ गया था। बिना किसी भय के उन्होंने स्वीकार किया कि अत्याचारी किंग्सफोर्ड पर उन्होंने बम फेंका था। हालांकि उन्हें इस बात का अफसोस था कि इस कोशिश में दो निर्दोष महिलाएं मारी गईं। उन्होंने कहा कि देश को अपनी माँ की तरह प्यार करने वाले क्रांतिकारी रास्ते की किसी रुकावट को बर्दाश्त नही करेंगे। हर कांटे को निकाल फेंकेंगे। उनका देश स्वतंत्र होना चाहिए। 13 जून को नाथुनी प्रसाद और जनक प्रसाद की जूरी ने उन्हें हत्या का दोषी ठहराया। एडीजे एच. डब्लू कानडर्फ ने उसी दिन फांसी की सजा सुनाते हुए लिखा कि खुदीराम बोस को फांसी का फंदा डालकर मरने तक लटकाए रखा जाए। 13 जुलाई 1908 को कलकत्ता हाईकोर्ट ने सेशन कोर्ट के फैसले पर मोहर लगाकर फांसी की सजा को बहाल रखा। 11 अगस्त 1908 को उन्हें फांसी दी गई। एक दिन पहले उन्होंने वकीलों से कहा, ’चिंता मत कीजिये। पुराने दौर में राजपूत महिलाएं बिना किसी भय के आग की लपटों में कूदकर जौहर करती थीं। मुझे मृत्यु का भय नहीं है।’ उनकी फांसी के बाद इम्पायर नामक अखबार ने लिखा, ‘खुदीराम बोस को आज सुबह फांसी दे दी गई। फांसी का फंदा गले में डाले जाते समय वह तनकर खड़े थे। वह प्रसन्न थे। मुस्कुरा रहे थे।’ श्मशान घाट पर खुदीराम बोस की अस्थियों की राख पाने के लिए लोग व्याकुल थे। डिब्बियों में लोग उसे संजो रहे थे। बाद में ताबीज में भरकर माओं ने अपने बच्चों के उसे बांधा ताकि वे भी खुदीराम बोस जैसे बहादुर देशभक्त बनें। उनके उत्सर्ग का संदेश दूर तक फैला और लोगों का अंग्रेजों के विरुद्ध गुस्सा तेज हुआ। क्रांतिकारी संगठनों से जुड़ने वाले युवकों की तेजी से तादाद बढ़ी।
विप्लव के प्रतीक बनकर उभरे खुदीराम बोस की शहादत का संदेश क्षणिक नही था। महान बांग्ला कवि नजरुल इस्लाम ने 18 वर्षों बाद उन्हें याद करते हुए लिखा, “ओ माताओं! क्या तुम उस दुस्साहसी बालक के बारे में सोच सकती हो जो तुम्हारे अपने बेटे से भिन्न है। क्या तुम एक बिन मां के बच्चे को फांसी पर चढ़ते देख सकती हो? तुम अपने बेटे की मंगलकामना के लिए तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करती हो, किंतु क्या तुमने उन देवताओं से प्रार्थना की कि वे खुदीराम की रक्षा करें? क्या इसके लिए लज्जा अनुभव करती हो? मुझे मालूम है-तुम्हारे पास मेरे सवालों का जबाब नही है। हम एक मांग लेकर तुम्हारे दरवाजे पर खड़े है-हम अपने खुदीराम को वापस चाहते हैं, क्योंकि वह उन लोगों का नही था जिनकी माताएं हैं-वह उन लोगों का था जो बिन माँ के हैं। खुदीराम वापस लौटने के लिए गया था, देश के हर घर में पैदा होने के लिए। उसे अपने घर की सुख-सुविधाओं में कैद न करो-बाहर निकलने दो, क्योंकि वे सिर्फ अपनी माओ और घरों के लिए नही हैं। वह तुम्हारे लिए नही हैं-न मेरे लिए-वे पूरे देश के लिए हैं-देश पर बलिदान होने के लिए, देश की पूजा करने के लिए। खुदीराम तुम कहां हो- मेरे भाई! तुमने वायदा किया था कि तुम 18 महीने बाद फिर से पैदा होंगे। लेकिन 18 बरस बीत गए। अपने गीत को याद करो। हमारा नेतृत्व करो-ताकि हम देश के लिए फांसी के फंदे को गले लगा सकें।“

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