विकास की वर्तमान संकल्पना आदिवासियों के प्रतिकूल : अनुज लुगुन
जानकी शरण द्विवेदी
गोण्डा। पूरी दुनिया का लगभग समूचा आदिवासी समुदाय मुख्यधारा में आने का निषेध करता है। उसे उसकी जमीन से विकास की आड़ में बेदखल किया जा रहा है। विकास की मौजूदा अवधारणा पर सवाल करते हुए श्री लाल बहादुर शास्त्री डिग्री कॉलेज, पोंपै कॉलेज ऐकला मंगलुरू, कर्नाटक और मंगलुरू विश्वविद्यालय हिंदी अध्यापक संघ के संयुक्त तत्वावधान में ’गंगा कावेरी व्याख्यानमाला’ के दूसरे व्याख्यान “लंबी कविता : गुरिल्ले का आत्मकथन“ विषय पर विचार व्यक्त करते हुए प्रतिष्ठित हिंदी युवा आदिवासी कवि अनुज लुगुन ने यह बातें कहीं।
उन्होंने कहा कि यह बात समझनी चाहिए कि आदिवासियों की अपनी स्मृतियों का इतिहास उनके जंगल, नदियों, पहाड़ों और जमीनों से जुड़ा है; उनकी अपनी दार्शनिक जमीन है, जहां पेड़ों, लताओं, तरह-तरह के पशुओं, प्रकृति के हर उपादान से गहरा आत्मीय और संवेदनशील रिश्ता है। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि विश्व के सभी महाद्वीपों के अलग-अलग देशों में आदिवासियों को कथित रूप से मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिशें छलावा हैं, बेमानी हैं। सच यह है कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करके मुनाफाखोर, आदमखोर और धरतीखोर ताकतें प्राकृत परिवेश में सहस्राब्दियों से रह रहे श्रम संस्कृति के पोषक आदिवासियों को अकिंचन, मजदूर, मजबूर और याचक बनाने के लिए विवश कर रही हैं। पूरे आत्मविश्वास के साथ अनुज लुगुन ने कहा कि मैं पूरे धरती पर निवास कर रहे आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधि रूप में कह रहा हूं कि यह तथाकथित विकास लोभ, अंतहीन भोग और विनाश का ही दूसरा नाम है। हमें हमारे पुरखों की स्मृतियों से बेदखल किया जा रहा है, हमें हमारी संस्कृति से उच्छिन्न किया जा रहा है। आदिवासियों के विस्थापन और पुनर्वास नीति पर वैचारिक हमला करते हुए उन्होंने कहा कि आदिवासी प्रकृति से अभिन्न हैं। उन्हें विस्थापित करने तथा औद्योगीकरण के नाम पर अमानवीय कोशिश प्रकृति को खारिज करने की कोशिश है। यह आदिवासियों की प्रथम और अंतिम उद्घोषणा है। जंगल उनके अभयारण्य हैं, उनसे अलग करके प्रकृति को भी बचा पाना संभव नहीं है, यह बात समूची मानव जाति को समझ लेनी चाहिए। उन्होंने कहा कि हम सहजीविता के प्रबल पक्षधर हैं। यह पक्षधरता वाचिक नहीं वरन आत्मिक है। हमारी सहजीविता में पेड़, पहाड़, नदियां जंगल, पशु-पक्षी सब शामिल है जिन्हें हम विभिन्न संज्ञाओं के झमेले में पड़े बिना मिट्टी कह देते हैं। इस व्याख्यान के अवसर पर उन्होंने अपनी कविता की सृजन प्रक्रिया पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा यह जानना दिलचस्प है कि सामने मृत्यु खड़ी होने पर भी आदिवासी अपने गीतों का साथ नहीं छोड़ते। व्याख्यान के प्रारंभ में पोंपै कॉलेज एकला मंगलुरू के प्राचार्य प्रोफेसर जगदीश के. होला ने गंगा कावेरी व्याख्यानमाला के आयोजक मंडल को शुभकामनाएं दीं और प्रमुख व्याख्याता अनुज लुगुन का स्वागत किया। संचालन कर रहे लाल बहादुर शास्त्री डिग्री कॉलेज के एसो. प्रोफेसर डॉ. जयशंकर तिवारी ने आदिवासी साहित्य के वैचारिक पक्ष को रेखांकित किया तथा वक्ता अनुज लुगुन के सृजन एवं शोध का परिचय दिया। इसके साथ ही उनके द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों से आमंत्रित सभी अतिथियों, सहभागी प्राध्यापकों, शोधार्थियों का स्वागत किया गया। अनुज लुगुन के वक्तव्य के उपरांत मंगलुरू विश्वविद्यालय हिंदी अध्यापक संघ के अध्यक्ष डॉ. एस. ए. मंजूनाथ ने सभी योजित प्रतिभागियों के प्रति आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम के अंत में हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. शैलेन्द्र नाथ मिश्र ने सभी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।