लोहिया भी थे समान नागरिक संहिता के समर्थक
डा. राम मनोहर लोहिया की पुण्य तिथि पर (12 अक्तूबर) पर विशेष
सुरेंद्र किशोर
डा. लोहिया की नीतियों से प्रभावित होकर मैं साठ के दशक (1966-67) में समाजवादी आंदोलन में शामिल हुआ था। जब लोहिया नहीं रहे, तो मैं मुख्य धारा की पत्रकारिता में शामिल होने की कोशिश करने लगा। पर, मैं जिस पृष्ठभूमि से आया था, उसके लिए यह काम आसान नहीं था। इसलिए इस कोशिश की सफलता में मुझे करीब 10 साल लग गये। सत्तर के दशक में दैनिक ‘भारत मेल’ (पटना) में नौकरी के लिए टेस्ट दिया। पर, मेरी नौकरी नहीं हुईं। बाद में उसके संपादक अलख बाबू ने मेरे एक परिचित इंद्र कुमार एम.एल.सी. से कहा कि सुरेन्दर टेस्ट में टॉप किया था, पर ऊपर से एक अन्य नाम आ गया। खैर, ऐसा होता है। देर से ही सही, पर मुझे सफलता मिली। यदि डा.लोहिया जीवित रहते, तो मैं राजनीति में ही रहता। मैं कुछ बनने या कोई पद पाने के लिए राजनीति में नहीं गया था। सेवा भाव से गया था।
डा.लोहिया अन्य अधिकतर नेताओं से काफी अलग थे। आज की पीढ़ी को वह सब जानना चाहिए। लोहिया अपना जन्म दिन नहीं मनाते थे। कारण बताते थे कि उसी दिन यानि 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी हुई थी। लोहिया कहते थे कि किसी नेता के निधन के 100 साल बाद ही उसकी मूर्ति लगनी चाहिए। क्योंकि तब तक यह तय हो जाता है कि उस नेता ने देश के लिए कितना अच्छा किया या कितना बुरा। लोहिया ‘रामायण मेला’ लगवाते थे। मकबूल फिदा हुसैन से उन्होंने राम कथा पर करीब 150 पेटिंग्स बनवाई थी। मकबूल बाद में जेहादी बना। उसे देश छोड़ना पड़ा था। लोहिया जब प्रसपा के महासचिव थे तो उन्होंने अपने विधायकों को लिखा था कि आप लोग अपना जीवन स्तर नहीं बढ़ाइए। यानी, सामान्य व्यक्ति की तरह ही रहिए। इससे जनता से आपका भावनात्मक संबंध भी बना रहेगा। लोहिया कहते थे कि हमारे दल के जो नेता लोक सभा, विधान सभा के चुनाव लड़ते हैं, वे राज्य सभा-विधान परिषद में न जाएं। इस नियम को उन्होंने भरसक लागू किया। 1967 में जब बिहार में गैर कांग्रेसी सरकार बनने लगी तो पार्टी ने संसोपा के राज्य सभा सदस्य भूपेंद्र नारायण मंडल से बिहार में मंत्री बनने के लिए कहा। मंडल जी ने कहा कि मैं नहीं बनूंगा। क्योंकि बनूंगा तो लोहिया जी नाराज होंगे। लोहिया जी दो बार (1963 और 1967) लोक सभा के सदस्य चुने गये थे। पर उन्होंने अपने लिए कार तक नहीं खरीदी। वे कहते थे कि मेरी आय उतनी नहीं है कि मैं निजी कार से चलूं। (दूसरी ओर उन दिनों भी ऐसी आम चर्चा थी कि 65 सांसद एक उद्योग घराने के पे-रोल पर थे।)
लोहिया यह भी कहते थे कि सार्वजनिक जीवन में रहने वालों को अपना परिवार नहीं बसाना चाहिए। एक बार देश के सबसे बुजुंर्ग पत्रकार मनमोहन शर्मा ने मुझसे कहा था कि सांसद लोहिया जी दिल्ली में अक्सर पैदल ही चलते देखे जाते थे। एक बार मैंने यानि शर्मा जी ने उन्हें पैदल चलते देखकर अपने स्कूटर पर बैठाकर दिल्ली में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया था। लोहिया जी सामान्य नागरिक संहिता के पक्षधर थे। हाल में लोहिया पर एक बुद्धिजीवी ने उन्हें नीचा दिखाने के लिए लिखा कि लोहिया जी ने सिर्फ 472 मतों से 1967 में लोक सभा का चुनाव जीता था। पर, यह नहीं लिखा कि इतने कम वोट उन्हें क्यों आये। दरअसल चुनाव के दौरान ही एक संवाददाता के सवाल के जवाब में लोहिया ने यह कह दिया कि मैं सामान्य नागरिक संहिता का पक्षधर हूं। नतीजतन अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया। बाद में लोहिया ने कहा था, ‘मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए राजनीति में नहीं हूं, बल्कि देश बनाने के लिए हूं। सामान्य नागरिक संहिता लागू करने के लिए हमारे संविधान ने कहा है।’ पहले लोहिया जी पार्टी अकेला चलने में विश्वास करती थी। पर उन्होंने जब देखा कि ऐसे में तो कांग्रेस अनंत काल तक राज करती रहेगी। और, जनता की गरीबी कम नहीं होगी। फिर लोहिया ने जनसंघ और कम्युनिस्टों को एक मंच पर लाया। 1963 में जनसंघ के शीर्ष नेता दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से लोक सभा का उप चुनाव लड़ रहे थे। लोहिया ने अपने दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं से कहा कि तुम लोग वहां जाकर उपाध्याय का प्रचार करो। लोहिया को दुख हुआ कि वे नहीं गये। यानि, लोहिया और जेपी जैसे नेताओं की राजनीति व कार्यनीति देश के भले के लिए थी, न कि वे किसी काल बाह्य सिद्धांत से वे चिपके हुए थे। (याद रहे कि चीन और सोवियत संघ (रूस) के कम्युनिस्ट नेता इस रणनीति को मानते हैं कि काल बाह्य सिद्धांतों से चिपके नहीं रहना चाहिए। वह देश हित में नहीं है, पर हमारे देश के कम्युनिस्ट कालबाह्य सिद्धांत को पकड़े रहने के कारण खुद दुबले होते जा रहे हैं।)
1967 में लोहिया को अपनी पौरुष ग्रंथि का आपरेशन करवाना था। जर्मनी के एक विश्वविद्यालय से भाषण देने के लिए उन्हें आमंत्रण आया था। विमान भाड़ा लगना नहीं था। चाहते थे कि जर्मनी में ही आपरेशन करवा लेंगे। पर, उसके लिए 12 हजार रुपए खुद खर्च करने पड़ते। लोहिया इतने पैसे का इंतजाम नहीं कर पाये। (चाहते तो किसी भी व्यवसायी को कह देते तो पैसे की कोई कमी नहीं रहती। पर वैसे नहीं थे वे।) लोहिया ने अपने लोगों से कह रखा था कि जिन राज्यों में हमारी पार्टी के लोग सरकारों में शामिल हैं, उन राज्यों से मेरे ऑपरेशन के लिए चंदा नहीं आएगा। जब आपरेशन जरूरी हो गया तो दिल्ली में ही ऑपरेशन कराना पड़ा। डाक्टरों की लापारवाही से या अन्य कारण से वह आपरेशन जानलेवा साबित हुआ। निधन के समय वे सिर्फ 57 साल के थे। मोरारजी देसाई के शासन काल में 1967 में हुए उस ऑपरेशन में लापारवाही के आरोप की जांच हुई। पाया गया कि जिस डाक्टर की लापरवाही थी, वह एक सत्ताधारी जपा नेता का करीबी निकला। इसलिए कोई कार्रवाई नहीं हुई। लोहिया ने नारा दिया था, ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावे सौ में साठ।’ इस मामले में लोहिया को गलत समझा गया। लोहिया सभी जातियों व समुदायों की महिलाओं को पिछड़ा ही मानते थे। लोहिया के अनुसार, साठ में महिलाएं भी शामिल थीं। पर लोहिया के समर्थकों ने इस बात का प्रचार नहीं किया। इससे कुछ लोगों को लोहिया के बारे में कुछ कुप्रचार करने का मौका मिल गया। जबकि यह अकारण नहीं था कि लोहिया के सारे निजी सचिव ब्राह्मण ही थे। लोहिया के बारे में बहुत सी बातें कहने को है। लेकिन कम कहना, अधिक समझना। इस देश के जो नेता इन दिनों लोहिया के नाम का तोता रटंत करते रहते हैं, उनमें से कितने नेताओं को ऐसा करने का नैतिक अधिकार है? सवाल है कि वे लोहिया की किन-किन बातों का अनुसरण करते हैं? लोहिया सांसद होने के बावजूद कभी-कभी दूसरे के स्कूटर पर लिफ्ट लेते थे। दूसरी ओर, आज के जो नेता लोहिया का नाम लेते नहीं थकते, उनमें से कुछ नेता चार्टर्ड प्लेन पर चलते हैं।
(लेखक पटना के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)
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