लोस चुनाव : उप्र में इंडी गठबंधन की कमजोर कड़ी है कांग्रेस

लखनऊ (हि.स.)। एक मशहूर कहावत है ‘हम तो डूबे हैं सनम तुम को भी ले डूबेंगे’। उप्र में ये कहावत कांग्रेस पर सटीक बैठती है। पिछले साढ़े तीन दशकों से प्रदेश की सत्ता से बेदखल कांग्रेस अपनी खोयी जमीन वापस पाने की जद्दोजहद में लगी है। इसके लिए उसने इस बार समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन किया है। हालांकि,उप्र में कांग्रेस का वोट शेयर इतना कम है कि वो इंडी गठबंधन की मददगार की बजाय बोझ ज्यादा दिखाई देती है। चर्चा इस बात की भी है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सपा गठबंधन का जो हश्र हुआ था, ठीक वैसे ही नतीजे लोकसभा चुनाव में आने वाले हैं।

उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 का विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने ‘यूपी को यह साथ पसंद है’ के नारे के साथ लड़ा था और इस गठबंधन से दोनों को भारी नुकसान हुआ था। सपा सत्ता से बाहर हुई थी और कांग्रेस भी बस वजूद बचाती नजर आई थी।

2019 में कांग्रेस का प्रदर्शन

कांग्रेस यूपी में पिछले साढ़े तीन दशक से सत्ता से बाहर है और दिन ब दिन कमजोर होती जा रही है। 2019 में राहुल गांधी अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव हार गए थे और सिर्फ सोनिया गांधी ही रायबरेली से जीती थी। इस चुनाव में कांग्रेस ने प्रदेश की 80 में से 67 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे। बता दें, 2024 के लोकसभा चुनाव में उप्र की 80 में से कांग्रेस 17 पर चुनाव लड़ रही है। इस तरह कांग्रेस उत्तर प्रदेश में पहली बार इतनी कम सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ रही है।

सपा के साथ भी आसान नहीं राह

सपा के साथ भले ही कांग्रेस गठबंधन कर चुनाव लड़ रही है, लेकिन उसकी सियासी राह आसान दिखाई तो नहीं देती है। इसकी वजह यह है कि कांग्रेस के हिस्से में जो सीटें आई हैं, उनमें से पांच तो ऐसी हैं, जिन पर पार्टी 1984 में आखिरी बार जीती थी। चार दशक से कांग्रेस पर जीत नहीं सकी। इसके अलावा दो सीटें तो ऐसी हैं, जिन पर कांग्रेस का अब तक खाता ही नहीं खुला। कांग्रेस के हिस्से में आई 17 में से एक सीट ही 2019 में जीती थी और तीन सीटों पर नंबर दो रही थी जबकि बाकी सीट पर जमानत भी नहीं बचा सकी थी।

कांग्रेस का वोट प्रतिशत जमीन पर

उप्र में कांग्रेस का वोट शेयर चुनाव दर चुनाव कम हुआ है। उसका अंतिम सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1984 का आम चुनाव था। जिसमें उसने 85 में से 82 सीटें जीती थी। कांग्रेस का वोट शेयर 51.03 फीसदी था। 1989 के चुनाव में कांग्रेस ने 15 सीटें जीती। उसका वोट शेयर 31.77 फीसदी पर आ गया। 1991 में वोट शेयर 18.02 फीसदी, 1996 में 8.14 फीसदी, 1998 में 6.02 फीसदी पर पहुंच गया। 1998 के चुनाव में कांग्रेस की जीत का खाता हीं नहीं खुला। वो शून्य पर आउट हो गई।

1999 के चुनाव में कांग्रेस के वोट शेयर रहा 14.72 फीसदी। 2004 में उसका वोट शेयर 12.04 फीसदी और 2009 में 18.25 फीसदी रहा। 2014 में उसके खाते में दो सीटें आई और वोट शेयर 7.53 पर लुढ़क गया। वहीं 2019 में वो एक सीट पर 6.36 फीसदी वोट शेयर के साथ सिमट गई।

कांग्रेस के मुकाबले कहां खड़ी है सपा

2009 के आम चुनाव में सपा 75 और कांग्रेस 69 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। तब सपा का वोट शेयर 23.3 प्रतिशत था और कांग्रेस का वोट शेयर 18.3 प्रतिशत था। 2014 में सपा 78 और कांग्रेस 67 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। उस चुनाव में सपा का वोट शेयर 1.1 प्रतिशत गिरकर 22.2 प्रतिशत पर पहुंच गया। वहीं कांग्रेस का वोट शेयर 10.8 प्रतिशत गिरकर मात्र 7.5 प्रतिशत रह गया।

असल में वोट शेयर के मामले में सपा का प्रदर्शन कांग्रेस के विपरीत काफी हद तक ठीक रहा है। 1998 में सपा पहला लोकसभा चुनाव लड़ी थी और उसका वोट शेयर 28.7 प्रतिशत था। पिछले लोकसभा चुनाव में वोट शेयर 10 प्रतिशत से ज्यादा गिरकर 18.0 प्रतिशत पर पहुंच गया है। वहीं कांग्रेस जिसका वोट शेयर 1985 के लोकसभा चुनाव में 51.3 प्रतिशत था, अब 6.3 प्रतिशत रह गया है।

भाजपा के वोट शेयर में लगातार बढ़त

2014 में भाजपा का वोट शेयर 42.3 प्रतिशत था। भाजपा ने 71 और उसके सहयोगी अपना दल ने 2 सीटें जीतकर विपक्ष को घुटने पर ला दिया था। इस चुनाव में कांग्रेस को 2 सीटें मिली। उसका वोट प्रतिशत 7.53 रहा। सपा के खाते में 5 सीटें आई,और उसके खाते में 22.35 प्रतिशत वोट आए। 2019 में भाजपा का मत प्रतिशत बढ़कर 49.6 हो गया। हालांकि इस बार उसकी सीटों की गिनती कम होकर 62 हो गई। सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस का वोट प्रतिशत क्रमश: 18.11, 19.42, 1.68 और 6.38 रहा। सपा और कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा को टक्कर देता दिखाई नहीं देता। इंडिया गठबंधन में कांग्रेस बेहद कमजोर कड़ी है।

2017 विधानसभा चुनाव नतीजों से सबक नहीं सीखा

2017 विधानसभा चुनाव में सपा कांग्रेस का गठबंधन था। अतीत से मिले नतीजों को भूलकर दोनों दल एक बार फिर भाजपा और नरेन्द्र मोदी को उप्र में टक्कर देने के लिए साथ आए हैं। हालांकि इतिहास बार-बार दोहराया नहीं जाता, लेकिन इससे मिले सबक यह अवश्य बताते हैं कि सियासत का गुणा-भाग गणितीय फार्मूलों से इतर होता है। हालांकि लोकसभा चुनाव का सियासी गणित विधानसभा चुनाव से इतर होता है, जरूरी नहीं कि पुराना इतिहास दोहराया जाए।

डॉ. आशीष वशिष्ठ/राजेश

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