रावण मरता क्यों नहीं है!
वीर विक्रम बहादुर मिश्र
रावण शरीर ही नहीं है, बल्कि स्वभाव है। किसी की पहचान उसके शरीर से जरूर होती है, पर उस शरीर के प्रति आदर अथवा अनादर के मूल में उसका स्वभाव होता है। कई बार व्यक्ति का शरीर नष्ट हो जाता है, पर उस शरीरधारी के दुर्गुण और सद्गुण की अनुगूंज सदियों तक रहती है। राम जहां सद्गुणों के प्रतीक हैं, रावण वहीं दुर्गुणों का प्रतीक है। राम की सेना में बंदर सद्गुणों के प्रतीक हैं। रावण की सेना के राक्षस दुर्गुणों के प्रतीक हैं। वस्तुतः राम और रावण का युद्ध मात्र दो व्यक्तियों का युद्ध नहीं, बल्कि सत् और असत् वृत्तियों का युद्ध है। राम की विशेषता यह है कि वे अवसर आने पर दुर्गुणों का भी अपने लिए उपयोग कर लेते हैं। रावण वध के बाद लंका से सीता को वापस लाने के लिए जो पालकी उपयोग की गयी, उसे उठाने का काम राक्षसों ने किया। उधर सद्गुणों के प्रतीक पुलस्त्य कुल में पैदा हुआ रावण अपनी दुर्वृत्तियों के कारण दुर्गुणों के रूप में राक्षसों का पोषक बन गया। तात्पर्य है कि दुरुपयोग की स्थिति में सद्गुण भी कभी-कभी दुर्गुण के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। समाज में सद्गुणों अथवा दुर्गुणों का प्रभाव का प्राकट्य इस आधार पर होता है कि उनका उपयोगकर्ता कौन है। ऋषि परम्परा के उच्चकुल में जन्मा रावण अचानक राक्षसकुल में कैसे परिवर्तित हो गया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में एक सूत्र दिया : ’सुख संपति सुतसेन सहाई। जय प्रताप बल तेज बड़ाई। नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई।‘
तात्पर्य है कि जीवन में जब धन बल जन बल की निरंतर वृद्धि होने लग जाय, तो सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि ज्यों-ज्यों यह बढ़ती है, त्यों त्यों इन्हें और पाने की उत्कंठा बढ़ती है। फिर किसी अवरोध से क्रोध और क्रोध से मोह और फिर विनाश की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ’भुजबल विश्व वस्य करि राखेसि कोउ न स्वतंत्र’ यह विश्वविजेता रावण मोहान्ध हो गया है। वह अपने समान किसी को कुछ समझता नहीं। अपने ही गुरु भगवान शंकर को कैलाश समेत उठाकर दंभ का प्रदर्शन करता है। देवता और दैत्य दोनों कश्यप ऋषि की संतान हैं। उनमें भिन्नता उनके आचरण को लेकर है। गोस्वामी जी ने राक्षसों के परिचय में कहा : ’बाढ़े बहुखल चोर जुआरा। जे लोभी लंपट पर दारा। मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा। जिनके यह आचरन भवानी। ते सब निसिचर जानेहु प्रानी।’ रावण विद्वता के शिखर पर है, परंतु अपनी विद्वता का दुरुपयोग कर वह स्वयं को राक्षसों की श्रेणी में खड़ा कर देता है। वह श्री राम को ईश्वर के रूप में जान लेता है, पर मोह ग्रस्तता के फलस्वरूप उनसे लड़ने का निर्णय लेता है। यदि ब्रह्म का ज्ञान होने के बाद भी समर्पण की वृत्ति का उदय न हो, तो उस ज्ञान से मतलब क्या। उसकी मोहान्धता यहां फिर प्रकट होती है। वह सोचता है कि लड़ने से दो फायदे हैं। यदि मेरी मृत्यु होती है, तो मुझे मोक्ष मिलेगा और यदि मैं जीत गया तो दोनों कुमारों की पराजय के बाद उनके साथ जो सुंदर स्त्री है, उसका हरण कर लूंगा। ’जौ नर रूप भूपसुत कोऊ। हरिहउं नारि जीति रन दोऊ।’ दूसरी ओर राम हैं जो लंका में अंगद को दूत के रूप में भेजते हैं और स्पष्ट कहते हैं कि रावण से ऐसी शैली में बात करना, जिससे उसका भी कल्याण हो और हमारा भी उद्देश्य पूरा हो। रावण अपने निसाचरों का बहुत ख्याल रखता है। उन्हें हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराता है। पर जब युद्ध की बारी आती है तो सबसे पहले उन्हीं को भेजता है। वह कहता है : ’सर्वसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भये बल्लभ प्राना।’ रावण ने अपनी स्वर्णमयी लंका की सुरक्षा के लिए उसके चार द्वारों पर चार सशक्त सेनापति तैनात किये हैं। पश्चिम दिशा में पहले द्वार पर मेघनाद, दूसरे पर अतिकाय, तीसरे पर देवांतक और चौथे पर महोदर तैनात है।
अध्यात्मिक अर्थों में जिस द्वार पर मेघनाद तैनात है, वह भोग का काम का द्वार है। दूसरा द्वार जहां अतिकाय तैनात है वह लोभ का द्वार है। इसी प्रकार तीसरा क्रोध और चौथा मात्सर्य का द्वार है। सबसे महत्वपूर्ण द्वार भोग का है जो पश्चिम में है। पश्चिम वह दिशा है जहां सूर्य अस्त होता है। सूर्य ज्ञान का प्रतीक है। भोगवृत्ति का उदय होता है तो ज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान के नष्ट होते ही व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में फंस कर विनष्ट हो जाता है। मेघनाद के इस द्वार को तोड़ने के लिए श्री राम की सेना की ओर से प्रबल वैराग्य के धनी हनुमान उपस्थित होते हैं। दूसरे द्वार पर जहां लोभ के प्रतीक अतिकाय तैनात हैं, वहां श्री राम की ओर से त्याग के प्रतीक अंगद तैनात हैं। तीसरे द्वार पर जहां क्रोध के प्रतीक देवांतक की तैनाती है, वहीं श्री राम की ओर से शांति के प्रतीक नील तैनात हैं। इसी तरह चौथा द्वार जो मात्सर्य का प्रतीक है, वहां नल उपस्थित हैं। रावण कोई व्यक्ति नहीं, रावण एक प्रवृत्ति है। अपने दस मुखों से सब कुछ खुद ही खाना चाहता है। दस मुखों से खुद ही बोलता है। दूसरे को बोलने का अवसर नहीं देता। अपनी बीस भुजाओं से वह दूसरों का उत्पीड़न करता है। वह अपनी स्थिति का हर स्तर पर दुरुपयोग करता है। विजयदशमी पर रावणी प्रवृत्तियों का विनाश की कामना के साथ सभी को मंगलकामनाएं….
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मानस मर्मज्ञ हैं।)
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