यूपी में भाजपा की हार के निहितार्थ!

जानकी शरण द्विवेदी

18वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव की तस्वीर लगभग साफ हो चुकी है। राज्य की 80 लोकसभा सीटों के चुनाव नतीजे या तो घोषित किए जा चुके हैं अथवा घोषित किए जाने की तरफ अग्रसर हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी नुकसान हुआ है। राजग गठबंधन 35 सीटों पर आगे है, जबकि इंडी गठबंधन 44 सीटों के साथ जीत की तरफ अग्रसर है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक अन्य सीट नगीना से आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद रावण ने जीत हासिल की है। बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर 2014 की तरह शून्य पर सिमट गई। इन चुनाव नतीजों को यदि पार्टीवार देखा जाय तो राजग गठबंधन की भाजपा को 33, रालोद को 02, अपना दल को 01 तथा कांग्रेस को 06 व समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिल रही हैं।
राज्य में भाजपा के चुनाव अभियान की शुरुआत ठीक हुई थी। लग रहा था कि पार्टी विकास, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और मोदी के व्यक्तित्व के दम पर वोट मांगेगी, लेकिन तीसरा-चौथा चरण आते-आते 10 वर्ष तक ‘सबका साथ, सबका विकास’ का माला जपने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार से खुलकर हिंदू मुसलमान पर बोलना शुरू किया था, उससे लगने लगा था कि राज्य में भाजपा को नुकसान हो रहा है, किंतु उप्र में भाजपा की इतनी दुगर्ति होगी, इसकी उम्मीद उसके बड़े नेताओं को भी नहीं रही होगी। अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा की मदद करने वाली बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर 10 साल पहले की स्थिति में पहुंच गई, किंतु वह चाहकर भी अपना मतदाताओं को भाजपा की तरफ मोड़ नहीं सका। हालांकि चुनाव नतीजों से यह बात पूरी तरह से साफ हो चुकी है कि बसपा का परंपरागत वोट उसके साथ नहीं रहा क्योंकि किसी भी सीट पर पार्टी को सम्मानजनक मत नहीं मिले हैं। यह दर्शाता है कि उसका मतदाता शिफ्ट हुआ है किंतु किसके पाले में कितना गया, इसका आकलन अभी किया जाना बाकी है। भाजपा में टिकट बंटवारे को लेकर क्षत्रिय समुदाय की नाराजगी भी पार्टी की पराजय का कारण माना जा रहा है। चुनाव के बाद सामान्यतः हर पार्टी नतीजों का विश्लेषण करती है, निश्चित रूप से भाजपा और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी करेगा, किंतु इन चुनाव परिणामों ने एक बार फिर देश को मिली-जुली सरकार दिया है। यह देश की आजादी के 100 साल पूरे होने पर 2047 में भारत के विकसित देश के रूप में स्थापित होने में बाधक बन सकता है। वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पार्टी की जीत के प्रति इतने आश्वस्त थे, कि उनके निर्देश पर टाप ब्यूरोक्रेसी उनके तीसरे कार्यकाल का 100 दिन का एजेंडा तैयार करने में पिछले चार माह से जुटी थी। शायद इस कार्यकाल में मोदी जी अपने हाथ बंधे महसूस करें और गठबंधन धर्म के नाते खुलकर निर्णय न ले सकें क्योंकि उन्हें अपने गठबंधन के सहयोगियों टीडीपी, जेडीयू, शिवसेना (शिंदे) व अन्य को साथ लेकर चलना होगा। इसके लिए एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करना होगा, जो गठबंधन के सभी दलों की सहमति से तैयार होगा। मोदी जी के लिए गठबंधन सरकार चलाने का यह पहला अवसर होगा। इससे पूर्व वह गुजरात के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री के रूप में सरकार चला चुके हैं किंतु इसके लिए उन्हें किसी सहयोगी दल का मुंह ताकने की जरूरत नहीं पड़ती थी।
इस चुनाव नतीजे का एक दूरगामी परिणाम अभी नहीं, दशकों बाद दिखाई देगा, जब आने वाली पीढ़ियां 2024 के लोकसभा चुनावों का इतिहास पढेंगी। वे पाएंगी कि अयोध्या के जिस राम मंदिर निर्माण को भाजपा पूरे देश में मुद्दा बनाए थी, उसी राम मंदिर के लोकार्पण वर्ष में हुए लोकसभा चुनाव में अयोध्या (फैजाबाद) सीट से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी लल्लू सिंह चुनाव हार गए। इतना ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी एक-आध को छोड़कर अयोध्या के आसपास की सभी सीटें हार गईं। हारने वाली अयोध्या के आसपास की सीटों में बस्ती, संत कबीर नगर, अम्बेडकर नगर, आजमगढ़, लालगंज, गाजीपुर, घोसी, जौनपुर, मछलीशहर, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, रायबरेली, अमेठी, मोहनलाल गंज, बाराबंकी और श्रावस्ती सीटें शामिल हैं। भाजपा अपने पड़ोस की केवल गोंडा, कैसरगंज और बहराइच सीटें जीत पाने में कामयाब रहीं। राज्य में भाजपा के खिलाफ ऐसा माहौल बना कि बीते चुनाव में राहुल गांधी को हराने वाली केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी गांधी परिवार का खड़ाऊ लेकर चुनाव प्रचार करने वाले केएल शर्मा से एक लाख वोटों से हार गई। इतना ही नहीं, मोदी कैबिनेट के 05 अन्य मंत्री भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। इनमें अजय मिश्र टेनी, महेंद्र नाथ पांडेय, भानु प्रताप वर्मा, साध्वी निरंजन ज्योति और कौशल किशोर शामिल हैं। पूर्वांचल में पार्टी के बड़े चेहरा माने जा रहे दिनेश लाल निरहुआ और मेनका गांधी भी चुनाव हार गईं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक लाख 52 हजार 513 मतों से चुनाव जीते। उनकी यह जीत न केवल 2014 और 2019 से छोटी है, बल्कि रायबरेली से कांग्रेस के राहुल गांधी की जीत 03 लाख 90 हजार से बहुत छोटी है। भला हो मेरठ के वोटरों का, जिन्होंने शुरुआती झटके देने के बाद आखिर में रामानंद सागर के ‘राम’ को जिता दिया। दरअसल, मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के आखिरी के दिनों में जो कदम उठाए गए, वह अतिवादी थे। एजेंसियों के ताबड़तोड़ छापों की बात हो या किसी मुख्यमंत्री के जेल भेजने की, लोगों के मन में धारणा तो बनने लगी थी कि ऐसे में तो ये कुछ भी कर देंगे। भाजपा का समर्थन करने वाले भी कहने लगे थे-यह ठीक नहीं है। मतदाताओं ने ज्यादातर सीटों पर भाजपा को सबक सिखाया है। जिन्हें हरा दिया, वहां तो स्पष्ट जनादेश दिया ही, जो जीत गए हैं, वहां भी गत चुनाव की तुलना में जीत का अंतर काफी कम हो गया। इसका आशय यह है कि मतदाताओं का संकेत स्पष्ट है कि खबरदार! इस बार जिता तो दे रहे हैं, लेकिन आगे से ख्याल रखिएगा।
यूपी में समाजवादी पार्टी का तो जैसे नया उदय हुआ है। यह इसलिए कि पार्टी के इतिहास में पहली बार सबसे ज्यादा सीटें और वोट शेयर मिला है। सपा ने इस चुनाव में अपने परिवार से ही पांच लोगों को टिकट दिया था, इसमें से कन्नौज से अखिलेश यादव, आजमगढ़ से धर्मेंद्र यादव, मैनपुरी से डिंपल यादव, फिरोजाबाद से अक्षय यादव और बदायूं से शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव चुनाव जीत गए हैं। अब समझ में आ रहा है कि आखिर अखिलेश की रैलियों में युवाओं का इतना हुड़दंग क्यों था। युवाओं को शायद उम्मीद थी कि अखिलेश ही वह आदमी है, जो मेरी किस्मत बदल सकता है। मुझे रोजगार दे सकता है, नौकरी दे सकता है। अखिलेश ने अपने प्रचार में ज्यादातर महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर ही फोकस किया। केंद्र की नई सरकार और राज्य सरकार को इन मुद्दों को न केवल गंभीरता से लेना होगा, बल्कि बिना विलम्ब के इस दिशा में ठोस काम भी करना होगा। चुनाव नतीजों ने यह भी साबित कर दिया है कि यहां के लोग गंगा-जमुनी तहजीब को कभी छोड़ने वाले नहीं हैं। चुनाव के दौरान इन्हें बांटने की कोशिश देखने को मिली थी। हर बार धुव्रीकरण का फायदा भाजपा को मिलता रहा है, लेकिन इस बार मुस्लिमों ने समीकरण बिगाड़ दिए। राज्य में उन्होंने तय कर लिया था कि वोट उसी को देना है, जो जीत रहा है, वोटकटवा को नहीं। इस प्रकार से लोकसभा के चुनाव नतीजे भाजपा के लिए बड़ा झटका है, जबकि कांग्रेस और सपा उत्साह से लबरेज है। उम्मीद की जानी चाहिए कि 2027 में होने वाले विधानसभा के चुनावों में यह गठबंधन बेहतरीन प्रदर्शन करेगा। भाजपा के राज्य नेतृत्व के प्रदर्शन पर भी सवाल उठना लाजमी है। आने वाले कुछ महीनों में राज्य में उठा-पटक की बड़ी घटनाएं हों, तो आश्चर्य की बात नहीं। सरकार के कामकाज के तरीके बदल सकते हैं, व्यवहार और बोलचाल का अंदाज भी बदलेगा। यह जरूरी भी था। भाषणों में कटुता भी कम होगी। फिर से आपसी सामंजस्य और परस्पर सौहार्द की बातें हो सकती हैं। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यही जरूरी भी है।

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