यहां लड़ाकों को तोहफे में मिलती हैं औरतें; वे चाहे यौन सुख भोगें या बैलगाड़ी में जोतें

नेशनल डेस्क

नई दिल्ली। नब्बे का दशक था, जब अफगानिस्तान का जिक्र होते ही कमजोर दिलवाले कसकर कान बंद कर लिया करते थे। इत्र लगाकर घर से बाहर निकलने पर झुंडभर अफगानी युवतियों को गोली मार दी गई। वजह? औरत की खुशबू मर्द तक पहुंचने से वह रास्ता बहक जाता है। एक युवती को तो इसलिए जान देनी पड़ी, क्योंकि वह घर के सामने ऊंची आवाज में बात कर रही थी। औरत की आवाज मर्दाना कानों तक पहुंचे तो वह फर्ज भूलकर प्रेम में डूब सकता है। कुछ सालों बाद अफगानिस्तान की गलियों में अमेरिकी सेना के भारी बूट चहलकदमी करने लगे। बंदूकों के साए में लड़कियां एक बार फिर ‘आजाद’ हुईं। वे पसंदीदा खुशबू लगाने लगीं। काबुल के बाजारों में रंग दिखने लगे। पुरुषों के मुल्क में महिला चेहरे भी नुमाया होने लगे। अब बात अगस्त 2021 की। अफगानिस्तान पर तालिबान का फिर से कब्जा हो गया है। खूबसूरत अफगानी लड़कियां, किसी गलती की तरह तहखानों में छिपाई जा रही हैं। कहीं ऐसा न हो कि तालिबानी लड़ाके आकर उन्हें उठा ले जाएं। गलियों की खुशगप्पियां गायब हैं। काबुल की शाम अब लौटते पक्षियों की बजाय गोलियों और गालियों से गूंजती है। अफगान में जो हो रहा है, नया नहीं। मुंह पर मोटी चादरें लपेटे, गहरे कपड़े पहने तालिबानी सोच वाले पुरुष भी अकेले नहीं।

हर युद्ध में औरत को सबसे ज्यादा रौंदा गया

चाहे रूस हो, ब्रिटेन हो, चीन हो या पाकिस्तान-हर जंग में मिट्टी के बाद जिसे सबसे ज्यादा रौंदा गया, वह है औरत। वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिकों के दिल बहलाव के लिए एक पूरी की पूरी सेक्स इंडस्ट्री खड़ी हो गई। मोम की तरह फिसलती त्वचा वाली वियतनामी युवतियों के सामने विकल्प था- या तो वे अपनी देह उनके हवाले करें या फिर वो जबर्दस्ती कुचली जाएंगीं। इस दौरान हजारों कम उम्र लड़कियों को हॉर्मोन्स के इंजेक्शन दिए गए ताकि उनका भरा-भरा शरीर अमेरिकी सैनिकों को ’एट होम’ महसूस कराए। इस पूरी जंग के दौरान सीली-गंध वाले वियतनामी बारों में सुबह से लेकर रात तक उकताए सैनिक आते, जिनके साथ कोई न कोई वियतनामी औरत होती। लड़ाई खत्म हुई। अमेरिकी सेना वापस लौट गई, लेकिन इसके कुछ ही महीनों के भीतर 50 हजार से भी ज्यादा बच्चे इस दुनिया में आए। ये वियतनामी-अमेरिकी मूल के थे, जिन्हें कहा गया-बुई दोय यानी जीवन की गंदगी। इन बच्चों की आंसूभरी मोटी आंखें देख मां का कलेजा टूटता तो था, लेकिन गले लगाने को नहीं, बल्कि उन बलात्कारों को याद करके, जिनकी वजह से वे मां बनीं।

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साल 1919 से लगभग ढाई साल चले आयरिश वॉर की कहानी भी क्रूरताओं का दोहराव-भर है। खुद ब्यूरो ऑफ मिलिट्री हिस्ट्री ने माना था कि इस पूरे दौर में औरतों पर बर्बरता हुई। सैनिकों ने रेप और हत्या से अलग एक नया तरीका खोज निकाला था। वे दुश्मन औरत के बाल छील देते। सिर ढंकने की मनाही थी। सिर मुंडाए चलती औरत गुलामी का इश्तेहार होती। राह चलते कितनी ही बार उसके शरीर को दबोचा जाता, अश्लील ठहाके लगते और अक्सर सब्जी-तरकारी खरीदने निकली औरत घर लौट ही नहीं पाती थी। पुरुष लेबर कैंपों में थे और छोटे बच्चे घर पर इंतजार करते हुए उन मां और दीदी का जो कभी लौट नहीं सकीं। इतिहास में नाजियों की गिनती सबसे क्रूर सोच में होती है। हालांकि जर्मन औरतें भी सुरक्षित नहीं रहीं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सोवियत की सेना ने पूर्वी प्रूशिया पर कब्जा कर लिया। घरों से खींच-खींचकर जर्मन औरतें-बच्चियां बाहर निकाली गईं और एक साथ दसियों सैनिक उन पर टूट पड़े। सबका एक ही मकसद था- जर्मन गर्व को तोड़ देना। किसी पुरुष के गर्व को तोड़ने का आजमाया हुआ जरिया है, उसकी औरत से बलात्कार। रेड आर्मी ने यही किया। इस दौरान सेना का सबसे मजबूत पुरुष बलात्कारियों को और बर्बरता के लिए जोश दिला रहा होता। सोवियत सेना के युवा कैप्टन अलेक्जेंडर सोझेन्थिन ने एक किताब लिखी। गुलाग आर्किपेलगो नामक इस किताब में कैप्टन ने माना कि जर्मन औरतों से बलात्कार करना रूस के लिए जीत का इनाम था। युद्ध खत्म होने के बहुत बाद तक भी हजारों जर्मन औरतें साइबेरिया में कैद रहीं। वहां नंबर 517 नाम के कैंप में थके हुए रूसी सैनिक आते और नग्न जर्मन औरतों की परेड कराते। जो औरत किसी सैनिक को भा जाती, वो उसे उठाकर ले जाता और ऊब जाने पर वापस पटक देता। छह महीने के भीतर कैंप की लगभग सारी औरतें खत्म हो गईं। कट्टरपन के लिए कुख्यात इस्लामिक स्टेट के लड़ाके यजीदी औरतों के नाम लिखकर उसे कटोरदान में डाल देते और फिर लॉटरी निकाली जाती। जिस भी औरत का नाम, जिस लड़ाके के हाथ लगे, उसे वो औरत तोहफे में दे दी जाती। वो उससे यौन सुख भोगे, चाहे बैलगाड़ी में बैल की तरह जोते।

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औरतें बच भी गईं तो उनकी आत्मा तो छलनी होगी ही

पूर्वी बोस्निया के घने जंगलों के बीचों-बीच एक रिसॉर्ट है-विलिना व्लास। यहां चीड़ के पत्तों की सरसराहट के बीच प्रेमी जोड़े टहला करते। बोस्निया की ट्रैवल गाइड में इसे हेल्थ रिसॉर्ट भी कहा जाता। नब्बे के दशक में हुए बाल्कन वॉर ने इसका चेहरा बदल दिया। रिसॉर्ट को रेप कैंप में बदल दिया गया। यहां बोस्निया की औरतों से सर्बियन लड़ाकों ने महीनों तक लगातार गैंग रेप किया। कुछ संक्रमण से मरीं। कुछ ज्यादती से। तो कुछ ने छतों से छलांग लगा दी। साल 2011 में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में ये ‘राज’ खोला। तब तक बलात्कारी भीड़ में मिल चुके थे, और मुर्दा औरतें जुल्म की गवाही देने हाजिर नहीं हो सकीं। युद्ध चाहे हजार साल पहले बीता हो, या आज। अंदरूनी हो या फिर दो मुल्कों के बीच। औरतें हरदम जीत की ट्रॉफी या हार की याद बनती रहीं। अफगानिस्तान में भी यही हो रहा है। कई औरतें तालिबानियों से बच भी निकलेंगी। उनके शरीर सुरक्षित होंगे, लेकिन आत्माएं छलनी। ये वे औरतें हैं, जिनके पास सुनाने को कोई कहानी नहीं। वे राजा-रानी या परियों के किस्से नहीं कहेंगी। वे चुप रहेंगी। और जब कहेंगी तो दुनिया की तमाम लड़ाइयों में हुआ खून-खराबा हल्का पड़ जाएगा। तमाम किताबों को दीमक चाट जाएंगे। और मर्दाना जीत का सारा गर्व दुनिया के सबसे गहरे समंदर में डूब जाएगा। कहो औरतों, कहो। इस बार प्रेम की नहीं, परियों की भी नहीं, सच्चाई की कहानी कहो!

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