मंदिर-मस्जिद साथ-साथ क्यों नहीं?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मुझे खुशी है कि ज्ञानवापी मस्जिद और देश के अन्य हजारों पूजा-स्थलों के बारे में पिछले कुछ दिनों से मैं जो बार-बार लिख रहा हूं, अब उसका समर्थन देश के कई अत्यंत महत्वपूर्ण लोग भी करने लगे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने साफ-साफ कहा है कि मंदिर-मस्जिद विवादों को अब तोड़-फोड़ और आंदोलनों के जरिए हल नहीं किया जा सकता है। सबसे अच्छा तरीका यह है कि 1991 में संसद द्वारा पारित कानून का पालन किया जाए यानी 15 अगस्त, 1947 को जो धर्मस्थल जिस रूप में थे, उन्हें उसी रूप में रहने दिया जाए। सिर्फ राम मंदिर उसका अपवाद रहे। इसका अर्थ यह नहीं कि विदेशी हमलावरों की करतूतों को हम भूल जाएं। उन जाहिल बादशाहों ने अपना रुतबा कायम करने के लिए मजहब को अपना हथियार बनाया और उसके जरिए भारत के गरीब, अनपढ़, अछूत और सत्ताकामी सवर्णों को मुसलमान बना लिया। लेकिन ये लोग कौन है? क्या ये विदेशी हैं? नहीं।
ये लोग अपने ही भाई-बहन हैं। इन विदेशी हमलावरों ने अपनी सत्ता की भूख मिटाने के लिए कई मंदिरों को निगला तो उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों की मस्जिदों को भी नहीं बख्शा। हमारे हिंदुओं की तरह अगर हमारे मुसलमान भाई भी इस ऐतिहासिक तथ्य को स्वीकार करें तो उनकी इस्लाम-भक्ति में कोई कमी नहीं आएगी। इसमें शक नहीं कि कुछ मुस्लिम आबादी ऐसी भी है, जो विदेशी डंडे के जोर से नहीं, अपने ही लोगों के जुल्म से बचने के लिए इस्लाम की शरण में चली गई। मोहन भागवत का कहना है कि ये सब हमारे लोग हैं, भारतीय हैं, अपने हैं। विदेशी नहीं हैं। इनका मजहब चाहे विदेश से आया है लेकिन भारत के ये करोड़ों मुसलमान तो विदेश से नहीं आए हैं। इन्हें हम उन विदेशी हमलावरों के कुकर्मों के लिए जिम्मेदार क्यों ठहराएं? इन्होंने तो ये मंदिर नहीं गिराए हैं। तो अब मंदिर-मस्जिद विवाद का हल क्या है? भागवत का कहना है कि या तो इस मुद्दे पर दोनों पक्ष आपसी संवाद करें और वे सफल न हों तो अदालत का फैसला मानें। यह सुझाव बहुत व्यावहारिक है लेकिन कई हिंदू संगठन न आपसी संवाद से सहमत हैं और न ही अदालत के फैसले को मानने को तैयार हैं। क्या कोई अदालत ऐसा फैसला दे सकती है कि सारी मस्जिदों को तोड़कर उनकी जगह फिर से मंदिर बना दिए जाएं? बाबरी मस्जिद तो टूट चुकी थी। इसलिए राम मंदिर बनाने का फैसला आ गया। लेकिन यदि अब ऐसा फैसला आ गया तो मस्जिदें टूटें या न टूटें, लोगों के दिलों के टुकड़े जरूर हो जाएंगे। भारत की शांति और एकता भंग हो जाएगी।
तो फिर क्या करें? गड़े मुर्दे न उखाड़ें। जहां भी मंदिर-मस्जिद साथ-साथ हैं, वे वहां ही रहें। दोनों सबके लिए खुले रहें। यदि वहां कुछ जगह खाली हो तो वहां गुरुद्वारा, गिरजाघर, साइनेगाग आदि भी बन जाएं। यदि ऐसा हो तो सोने में सुहागा हो जाएगा। सारे धर्मस्थल साथ-साथ हों तो विभिन्न धर्मावलंबियों में आपस में प्रेम भी बढ़ेगा। अयोध्या में राम मंदिर के पास 63 एकड़ जमीन इसीलिए नरसिंहराव सरकार ने अधिग्रहीत की थी। यदि ये सब धर्मस्थल हैं यानी ईश्वर के घर हैं तो ये सब साथ-साथ क्यों नहीं रह सकते?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)