बिहार विस चुनाव : वोटों के ठीकेदारों ने कुंद कर दिया विचार और संघर्ष की राजनीति को
बेगूसराय (हि.स.)। बिहार विधान सभा चुनाव का शोर अपने शबाब पर है। शहर से लेकर गांव-गांव तक, हर चौक-चौराहा और बैठका पर चुनाव की चर्चाएं हो रही है। इस चुनावी चर्चा में बनाए जा रहे समीकरण में क्षेत्रीय और जातीयता के गणित की भी खूब चर्चा हो रही है। बिहार की राजनीति में जाति के नेता और दल का राजनीतिक जातीय खेल कोई नया नहीं है। पहले यह पर्दे के पीछे या पार्टी के आधार को आगे रखकर खेला जाता था, बाद के दिनों में यह समीकरण के साथ खुल्लमखुल्ला शुरू कर दिया गया। 1990 के दशक में यह सत्ता की पहुंच की चाभी बन गई।
1991 के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में जातीय रैली, जातीय हिंसा, जातीय वैमनस्यता का सिलसिला सा चल पड़ा। जाति आधारित नेता और कार्यकर्ता तैयार होने लगे। राजनीतिक माहौल जातीय नेताओं का हो गया, वे वोटों के ठेकेदार बन गए, गांव-गांव में ऐसे छुटभैये नेताओं की बाढ़ सी आ गई। हर चीज को जातीय नजरिए से देखने और उस मुहल्ले के, उस जाति के वोटों के ठीकेदार बनकर उभरे इन कथित नेताओं ने विचार और संघर्ष की राजनीति को कुंद कर दिया। सस्ते में नेता बन जाने की होड़ ने सामाजिक न्याय के कथित शब्द की ओट लेकर सरकारी धन की लूट और विकास के बजाय जातीयता को बढ़ावा दिया। सरकारी विकास के धन की लूट की राशि का इस्तेमाल राजनीति में होने लगा। काली कमाई वाले, घोटाले बाज, अवैध धंधेबाज राजनीति पर हावी होते गए। पंचायत प्रतिनिधियों में चुनकर आने और सरकारी विकास राशि का लूट-खसोट कर धन अर्जित करने वालों की महत्त्वाकांक्षा बढ़ती गई और वे सदन की तैयारी में लग गए। जातीय नेताओं ने प्रोत्साहन देना शुरू किया और फिर दल की खोज होने लगी, दलित वादी पिछड़े वादी नेताओं की बाढ़ आ गई। नेताओं के, जाति के, परिवार के, व्यक्ति के दल बनने लगे। राष्ट्रीय दल भी ऐसे व्यक्ति, जाति, परिवार की पार्टियों के पिछलग्गू बनती गई, गठबंधन और महागठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हो गया। भले उस जाति के मतदाताओं का वोट उनके कहने पर नहीं पड़े, लेकिन जाति के वोट की स्वंयभू ठीकेदारी जरूर हो जाती है।
राजनीति और समाजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले महेश भारती बताते हैं कि गठबंधन की राजनीति का हश्र देखा जा रहा है, हर दल बारगेनिंग में लगा है। अपने परिवार की, पुत्रों की, स्वार्थ की राजनीति को जातीयता की चाशनी में डुबोकर सबको आचार खिलाने की परंपरा को नेताओं से ज्यादा जातीय जनता ने गौरवान्वित किया है। हमारे जाति का अफसर, हमारे जाति का मंत्री, हमारे जाति का मुख्यमंत्री यही तो हो रहा है। देश, विकास, किसान, छात्र, बेरोजगार सब गायब। सीटों की मारामारी, सीट झटकने की लड़ाई तेज है। जात के आधार पर समाज को बांट दिया गया, उसे मानसिक गुलाम बना दिया गया है।
पार्टी अपने मंसूबे में कामयाब और जनता अपने जात के मंसूबे में मस्त है। इससे ऊपर उठकर बात करने के लिए शिक्षा प्राप्त करना पड़ेगा, लेकिन बिहार की शिक्षा व्यवस्था भी स्वास्थ्य और रोजगार व्यवस्था की तरह लचर-पचर है। लोग चांद पर चले गए, वहां जमीन खरीद फरोख्त करने की बात करने लगे, लेकिन आज तक समाज के विकल्पों की व्यवस्था नहीं सुधरी। बच्चों ने रूखा-सूखा खाकर शिक्षा हासिल किया, उसे रोजगार क्यों नहीं मिला, बेटियों को सुरक्षा क्यों नहीं मिला, हजारों सवाल समाज में घूम रहे हैं। लेकिन फिर वोट जात के ही नाम पर देंगे, क्या इनमें सुधार के लिए 15 युग चाहिए।
लोग जिस दिन से व्यवस्था के नाम पर वोट करना शुरू कर देंगे, उस दिन से चांद की खूबसूरती अपने आसपास पाएंगे। समाज वह समाज होगा जिसमें कोई भी अपने अधिकार प्राप्ति के लिए नेताओं से रहम की भीख या अनुदान नहीं मांगेगा, बल्कि मालिक बनकर अपने सेवक रूपी जनप्रतिनिधि से पूछने की स्थिति में रहेगा कि बताओ इतने दिन में क्या सब किया।