फतेहपुर: जिले का जलियांवाला बाग खजुहा कस्बे का बावनी इमली का पेड़

– इसी इमली के पेड़ की हर साख में दर्ज 52 शहीदों की कुर्बानियां 
– जोधा अटैया सिंह ने जिले में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का किया था नेतृत्व 
– बावनी इमली शहीद स्थल को अभी तक नहीं मिला राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा 
देवेंद्र वर्मा

फतेहपुर (हि.स.)। अंग्रेजों की गुलामी, अन्याय व क्रूर शासन खिलाफ समूचे देश में विद्रोह की आग भड़क रही थी। सन 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान फतेहपुर जिले में भी विद्रोह की चिंगारी फूटी और उस चिंगारी का नेतृत्व जोधा अटैया सिंह ने अपने 52 साथियों के साथ किया। अदम्य पराक्रम के साथ अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाला और जिले को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करा कर शासन की बागडोर अपने हाथों में संभाली। 
एक माह के बाद अंगेजों ने हमला कर सभी सेनानियों को जोधा सिंह अटैया के साथ गिरफ्तार कर क्रूरतम सजा दी और सभी को खजुहा कस्बे के इसी इमली के पेड़ पर 28 अप्रैल 1858 को फांसी पर लटका दिया। क्षेत्र में अंग्रेजों के आतंक का भय इस कदर रहा कि एक सप्ताह तक किसी ने भी शव उतार कर शहीदों का अंतिम संस्कार करने की हिम्मत नहीं जुटाई। 
वह पेड़ आज भी उन वीर सपूतों की शहादत की याद दिला रहा है जिसे लोग बावनी इमली के रूप में जानते है लेकिन दु:ख की बात यह कि जलियांवाला बाग की तरह यहां भी एक बड़ा सामूहिक नरसंहार हुआ था जिसमें जिले के 52 वीरसपूतों को फांसी की सजा मिली फिर उनके शहादत स्थल को राष्ट्रीय समारक का दर्जा आज तक नहीं मिल सका। 
बिन्दकी तहसील के खजुहा कस्बे में बावनी इमली स्मारक स्थल में एक प्रसिद्ध इमली का पेड़ है। यह स्मारक उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के बिन्दकी तहसील के खजुहा कस्बे के निकटबिन्दकी नगर से तीन किलोमीटर पश्चिम में मुगल रोड पर स्थित है। जिसमें देश के 52 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को 28 अप्रैल 1958 में एक साथ फांसी की सजा दी गई थी। अंग्रेजों के आतंक का भय लोगों में इस कदर छाया था कि एक सप्ताह तक कोई उन शहीदों के शवों को फांसी के फंदे से उतारने की हिम्मत नहीं की थी। एक सप्ताह बाद चार मई की रात अपने सशस्त्र साथियों के साथ महराज सिंह कस्बा के बावनी इमली आये और शवों को उतारकर शिवराजपुर गंगा घाट में उन शहीदों के नरकंकालों की अंत्येष्टि की। 
समाजसेवी अशोक उत्तम ने बताया कि यह स्मारक स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किये गये बलिदानों का प्रतीक है। 28 अप्रैल 1858 को ब्रिटिश सेना द्वारा बावन स्वतंत्रता सेनानियों को एक इमली के पेड़ पर फाँसी दी गयी थी। ये इमली का पेड़ अभी भी मौजूद है। लोगों का विश्वास है कि उस नरसंहार के बाद उस पेड़ का विकास बन्द हो गया है। फिर भी वह इमली का पेड़ आज भी हरा भरा है और उन शहीदों की शहादत को रोशन किये हुए है। 
स्मारक स्थल के दर्शन करने आये जय नारायण पाण्डेय ने बताया कि जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बगावत का 10 मई, 1857 को बैरकपुर छावनी में वीर मंगल पांडे ने क्रान्ति का शंखनाद किया तो उसकी गूँज पूरे भारत में सुनायी दी। 10 जून, 1857 को फतेहपुर में क्रान्तिवीरों ने भी बगावत का बिगुल दिया था जिनका नेतृत्व जोधा सिंह अटैया व फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खाँ कर रहें थे। इन वीरों ने सबसे पहले फतेहपुर कचहरी एवं कोषागार को अपने कब्जे में ले लिया। जोधासिंह अटैया के मन में स्वतन्त्रता की आग बहुत समय से लगी थी। उनका सम्बन्ध तात्या टोपे से बना हुआ था। मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए इन दोनों ने मिलकर अंग्रेजों से कानपुर व फतेहपुर जिले की सीमा पर स्थित पांडु नदी के तट पर टक्कर ली। आमने-सामने के संग्राम के बाद अंग्रेजी सेना मैदान छोड़कर भाग गयी। इन वीरसपूतों ने जिले में अंग्रेजों से गुलामी की आजादी का झंडा गाड़ दिया। 
खजुहा कस्बा निवासी जगदेव प्रसाद ने बताया कि जोधासिंह के मन की ज्वाला इतने पर भी शान्त नहीं हुई। उन्होंने 27 अक्तूबर, 1857 को महमूदपुर गाँव में एक अंग्रेज दरोगा और एक सिपाही को उस समय जलाकर मार दिया जब वे एक घर में ठहरे हुए थे। सात दिसम्बर, 1857 को इन्होंने गंगापार उन्नाव जिले के रानीपुर गांव स्थित पुलिस चौकी पर हमला कर अंग्रेजों के एक मुखबिर का वध कर दिया। जोधासिंह ने अवध एवं बुन्देलखंड के क्रान्तिकारियों को संगठित कर फतेहपुर पर कब्जा कर लिया।आवागमन की सुविधा को देखते हुए क्रान्तिकारियों ने खजुहा को अपना केन्द्र बनाया। 
किसी देशद्रोही मुखबिर की सूचना पर प्रयाग से कानपुर जा रहे कर्नल पावेल ने इस स्थान पर एकत्रित क्रान्ति सेना पर हमला कर दिया। कर्नल पावेल उनके इस गढ़ को तोड़ना चाहता था परन्तु जोधासिंह की योजना अचूक थी। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का सहारा लिया, जिससे कर्नल पावेल मारा गया। अब अंग्रेजों ने कर्नल नील के नेतृत्व में सेना की नयी खेप भेज दी। इससे क्रान्तिकारियों को भारी हानि उठानी पड़ी लेकिन इसके बादभी जोधासिंह का मनोबल कम नहीं हुआ। उन्होंने नये सिरे से सेना के संगठन, शस्त्र संग्रह और धन लूटने की योजना बनायी। इसके लिए उन्होंने छद्म वेष में प्रवास प्रारम्भ कर दिया लेकिन देश का यह दुर्भाग्य रहा कि वीरों के साथ-साथ यहाँ देशद्रोही भी पनपते रहे हैं। 
जब जोधासिंह अटैया अरगल नरेश से संघर्ष हेतु विचार-विमर्श कर खजुहा लौट रहे थे, तो किसी मुखबिर की सूचना पर ग्राम घोरहा के पास अंग्रेजों की घुड़सवार सेना ने उन्हें घेर लिया। थोड़ी देर के संघर्ष के बाद ही जोधासिंह अपने 51 क्रान्तिकारी साथियों के साथ बन्दी बना लिये गये। 28 अप्रैल, 1858 को मुगल रोड पर स्थित इमली के पेड़ पर उन्हें अपने 51 साथियों के साथ फाँसी दे दी गयी। बिन्दकी और खजुहा के बीच स्थित वह इमली का पेड़ जिसे आज बावनी इमली शहीद स्मारक के रूप में स्मरण किया जाता है। 
लोगों को इस बात का मलाल है कि एक स्थान पर और एक ही पेड़ पर 52 क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दिये जाने के इतनी बड़ी शहादत पूर्ण घटना पूरे देश में कहीं नहीं हुई लेकिन सरकार की उदासीनता के चलते आज तक इस शहीद स्थल को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा नहीं मिल पाया। शहीदों के सम्मान प्रति देश के नेताओं और सरकार का दोहरा चरित्र उजागर होता है। आज जिनकी कुर्बानियों की बदौलत हम सब गुलामी से मुक्त होकर स्वशासन में जी रहे हैं। उन कुर्बानियों को सच्ची श्रद्धांजलि भी अर्पित कर पाये है। यह बड़े दुख की बात है। 

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