परिवार से बेदखल होने के बावजूद आंदोलन से नही डिगे गुरु प्रसाद गुप्ता
आरजे शुक्ल ‘यदुराय‘
गोण्डा। देश की आजादी के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने वाले नेताओं की स्मृति को सुरक्षित करने के लिए कोई सार्थक कदम न उठाए जाने से नई पीढ़ी सेनानियों को भूल रही है। जनपद के स्वतन्त्रता सेनानियों में गुरुप्रसाद गुप्ता ऐसे ही प्रमुख सेनानी थे जिन्होंने परिवार की करोड़ों की सम्पत्ति से बेदखल होने के बावजूद स्वतंत्रता आन्दोलन से मुंह नहीं मोड़ा।
सेनानी गुरु प्रसाद गुप्ता का जन्म 19 अगस्त 1919 कृष्ण जन्माष्टमी के दिन नगर के गोलागंज मुहल्ले में एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार में हुआ। पिता रामेश्वर गुप्ता लोहिया धर्मशाला के संस्थापक व नगर सेठ के नाम से विख्यात थे। बचपन से ही देश प्रेम के जज्बे से कविता और साहित्य की रचना करने लगे। गांधी और सुभाष से प्रभावित गुरु प्रसाद आजादी के हर छोटे-बड़े आंदोलन में अग्रणी नेता के रूप में भाग लेते रहे। अंग्रेज सरकार के रिकार्ड में दर्ज खतरनाक नेता के रूप में उन्हें 11 दिसम्बर 1940 को डीआईआर में गिरफ्तार किया गया। अदालत से उन्हें नौ माह का कठोर कारावास व पचास रुपये जुर्माना की सजा मिली। जुर्माना न अदा करने पर उन्हें गोण्डा कारागार में चार माह अतिरिक्त कारावास झेलना पड़ा। सजा के दौरान ही पिता ने उन्हें अपनी चल अचल सम्पत्ति से बेदखल कर दिया। जेल से छूटने के बाद उन्हें सक्रिय राजनीति और पारिवारिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए घोर संघर्ष करना पड़ा। जीविका के लिए घर छोड़कर वाराणसी में अखबार बेंचना पड़ा। आजादी के बाद वे वहीं साइकिल की घंटी बनाने वाली एक फैक्ट्री में नौकरी भी की। आजादी की रजत जयंती पर 1972 में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने पेंशन देने की घोषणा की लेकिन घोर आर्थिक संकट के बावजूद उन्होंने पेंशन फार्म नहीं भरा और 1980 में सेनानी सम्मान पेंशन घोषित होने पर भी पत्रकारिता में सक्रिय मंझले पुत्र अजय गुप्ता के अनुरोध पर स्पष्ट लहजे में कहा कि आजादी की लड़ाई में उन्होंने इसलिए नहीं भाग लिया था कि आजादी मिलने पर वह आर्थिक लाभ मिलेगा। उन्होंने उसी समय फार्म भी फाड़ दिया। 2 जुलाई 1982 को अंग्रेजों से अनवरत लडने वाले इस योद्धा का निधन हो गया। आजादी की लड़ाई में अपनी धन सम्पत्ति से लेकर सुख चैन गंवाने वाले सेनानी गुरु प्रसाद के तीनों पुत्रों में किसी के पास अपना मकान नहीं है। दो पुत्र वाराणसी में और एक गोण्डा में किराए के मकान में रहते हैं। ऐसे समर्पित सेनानी की यादगार में नगर में उनकी प्रतिमा स्थापित करने की मांग वर्षों से लालफीताशाही के कारण साकार नही हो सकी।