पढें, उस सिख राजा की कहानी, जिसने अफगान शासकों को हराकर काबुल में की थी विजय परेड

नेशनल डेस्क

नई दिल्ली। भारत की तरह ही अफगानिस्तान का एक लंबा इतिहास रहा है। कई जानकार दावा करते हैं कि 10वीं सदी से लेकर 19वीं सदी तक मध्य एशिया के लिए यह ऐसा समय था, जब कोई भी सेना अफगानिस्तान को जीत नहीं पाती थी। यह बात अब 20वीं और 21वीं सदी में भी सही साबित होती दिख रही है। पहले ब्रिटिश शासन (1919), फिर सोवियत सेना (1989) और अब अमेरिकी सेना (2021) के लौटने के बाद एक बार फिर अफगानिस्तान को अजेय कहा जा रहा है। इसकी वजह है पश्तून बहुल संगठन तालिबान की सत्ता में वापसी। हालांकि, इस पूरी कहानी में एक अपवाद हैं सिख महाराजा रणजीत सिंह। उनकी सेना ने साल 1838 की एक सुबह काबुल में विजय परेड निकाली थी।

क्या है महाराज रणजीत सिंह की शौर्य गाथा?

आज से तकरीबन 200 साल पहले भारत के युवा महाराजा रणजीत सिंह और उनके निडर सेनापति हरि सिंह नालवा ने अफगान शासकों के कब्जे में गए भारतीय इलाकों को आजाद कराने का बीड़ा उठाया था। इस कड़ी में महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं ने पहले 1818 में अफगान लड़ाकों की बड़ी-बड़ी सेनाओं को हराकर मुल्तान, पंजाब और फिर 1819 में कश्मीर पर फतह हासिल की। इसके बाद उनकी सेना ने 1820 में अफगान के मजबूत इलाके डेरा गाजी खान और 1821 में डेरा इस्माइल खान को भी जीत लिया। तब तक दुनिया में अपने शौर्य के लिए लोकप्रिय हो चुके महाराजा रणजीत सिंह को शेर-ए-पंजाब कहा जाने लगा था। उनकी जीत से परेशान अफगान शासकों ने तब अपने बचे-खुचे इलाके बचाने की कोशिश की। हालांकि, रणजीत सिंह की सेना ने खैबर पख्तूनख्वा (मौजूदा पाकिस्तानी प्रांत) के खैबर दर्रे में जाकर नौशेरा का युद्ध लड़ा और अफगानिस्तान के पश्तून लड़ाकों को शिकस्त दी थी। 1823 में महाराजा रणजीत सिंह की सेना की इसी वीरता की वजह से 18वीं सदी में अहमद शाह अब्दाली के कब्जे में चले गए पेशावर और उत्तर-पश्चिम के प्रांतों (अब पाकिस्तान) को अफगान के कब्जे से आजाद कराकर भारत की उत्तर-पश्चिम की सीमाओं को सुरक्षित किया गया था।

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अफगानिस्तान में अहमद शाह अब्दाली के निधन के बाद राजनीतिक स्तर पर काफी उथल-पुथल मची थी। अहमद शाह के बेटे तैमूर शाह की भी 1793 में मौत हो गई थी, जिसके चलते उसके बेटे और काबुल के शासक जमां शाह ने सत्ता संभाली। हालांकि, उसके शासन के दौरान अफगानिस्तान में गृह युद्ध जैसे हालात बने रहे और 1801 में जमां शाह को सत्ता छोड़नी पड़ी। इसके बाद महमूद शाह को काबुल का शासन मिला, लेकिन दो साल बाद 1803 में ही तैमूर के एक और बेटे शाह शुजा ने सत्ता हासिल की। शाह शुजा के छह साल तक राज करने के बाद महमूद शाह ने लौटकर तख्तापलट किया और 1809 से 1818 तक अफगानिस्तान पर शासन चलाया। यही वो समय था, जब महाराजा रणजीत सिंह ने एक-एक कर अफगानिस्तान के प्रभाव वाले कई इलाकों में उसकी सेना को धूल चटाई। बताया जाता है कि दुर्रानी शासकों के क्षेत्र को भारत में वापस मिलाने के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानिस्तान में भी अपना प्रभाव बनाना जारी रखा। 1809 में जब महमूद शाह ने अफगानिस्तान की सत्ता हथियाई, तो बेदखल किए गए शुजा को लाहौर में रणजीत सिंह की इजाजत पर ही पनाह मिली।

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रणजीत सिंह की कूटनीतिक दक्षता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1813 में शाह शुजा ने उन्हें कोहिनूर हीरा देने का प्रस्ताव दिया और बदले में अफगानिस्तान वापस जीतने की मांग रख दी। महाराजा रणजीत सिंह ने प्रस्ताव तो स्वीकर कर लिया, लेकिन इस दौरान उन्होंने शुजा की मदद से अफगानिस्तान के मजबूत इलाकों पर कब्जा जमाना जारी रखा। इसी तरह 23 साल तक शुजा ने अफगान की सत्ता हथियाने की कई बार कोशिश की, लेकिन उसकी विफलताओं के बीच रणजीत सिंह का शासन और मजबूत होता गया। आखिरकार 1838 में तत्कालीन ब्रिटिश वायसरॉय लॉर्ड ऑकलैंड ने शाह शुजा को काबुल की सत्ता पर काबिज करने के लिए महाराजा रणजीत सिंह के साथ संधि की। इस समझौते के तहत ब्रिटिश सेना दक्षिण और रणजीत सिंह की सेना खैबर दर्रे से अफगानिस्तान पहुंची और काबुल में विजयी परेड में हिस्सा लिया।

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