नो मैन्स लैंड उर्फ चिरकुट की परती

अरविंद चतुर्वेद

गांव हो या शहर, जमीन की मारामारी कहां नहीं है! लोग मसान और कब्रिस्तान तक की जमीन हड़पे ले रहे। गड़ही और पोखरे धीरे-धीरे पाट डाले जाते हैं। कोई एक बित्ता जमीन भी नहीं छोड़ना चाहता। ऐसे में हमारे गांव में दो बीघा रकबे वाली चिरकुट की परती दादा-परदादा और उनके भी परदादाओें के जमाने से अगर नो मैन्स लैंड बनी हुई है तो यह किसी आश्चर्यलोक से कम नहीं है। चिरकुट की परती के उत्तर तरफ हमारा आम का बगीचा और पूरब तरफ खेत हैं। पश्चिम तरफ निराला चौबे और दक्खिन तरफ डीह की जमीन पर इस्सर चच्चा के लड़के डबलू चौबे खेती करते हैं। इस सब के बीच में है चिरकुट की परती, लेकिन क्या मजाल कि कोई उसकी एक इंच जमीन पर भी नजर गड़ाए। लोग उस परती को विदेह भाव से देखते हैं। पेशाब और शौच की कौन कहे, उस जमीन पर कोई थूकता तक नहीं है। इस तरह आदमी के स्पर्श और हस्तक्षेप से अछूती होने के कारण वह जमीन आदिम वनस्पतियों से भरी हुई है-खर-पतवार, कुश, कास, घुमुची, झरबेरियों की झाड़ियां, मकोय, करवन यानी जंगली करौंदे, पलाश की झाड़ियां और वृक्ष, साथ ही आठ-दस बबूल के मझोले कद के पेड़। इन्हीं की छत्रछाया में मकड़ियों के जाले, गोह, गिरगिट, बिसखोपड़े, बिसतुइया और सांपों की बांबियां। ताज्जुब ही है कि आसपास पीपल और बरगद के कुछ पेड़ होने और चिड़ियों की आवाजाही के बावजूद उनके बीट से कभी पीपल या बरगद की कोई पौध इस जमीन में नहीं उगी। अब तो खैर गांव में कोई खुले में मवेशी छोड़ता नहीं, लेकिन पहले अगर गाय-बैल या बकरियां चिरकुट की परती में चली जाती थीं तो उन्हें वहां से निकालने में भारी मुसीबत खड़ी होती थी, तब किनारे पर खड़े होकर अपने मवेशियों पर ढेले फेंककर उन्हें किसी तरह वहां से खदेड़ा जाता था।
लेकिन चिरकुट की परती में भी मौसम उतरते थे। बसंत के मौसम में बगीचे में हम यह देखने जाते थे कि अबकी बार कौन-कौन से आम के पेड़ में बौर आए हैं। फिर जैसे ही गर्मियों की शुरुआत होती, आम के टिकोरे निकलते तो जेब में नमक-मिर्च की पुड़िया लिए चिरकुट की परती के किनारे की पगडंडी पकड़े हम बगीचे में जाते। उस समय परती के पलाशों के पत्ते पीले पड़ते हुए तेजी से सूखकर झड़ रहे होते। फिर देखते ही देखते एक रोज गहगह सिंदूरी लाल फूलों से पलाश के पेड़ सज जाते। चैत-बैशाख के गर्म दिनों में जब तेज आंधी आती या चिरकुट की परती में हवा के गोल-गोल बगूले उठते तो सांपों की केंचुलें उड़-उड़कर बबूलों की कंटीली टहनियों और झरबेरियों पर टंगकर फहराने लगतीं। कुछ पतली केंचुलें टाई की तरह तो कुछ लंबी-चौड़ी केंचुलें मफलर के आकार की। इनसे हम अंदाजा लगाते कि कौन-सी केंचुल गेहुअन व करैत सांप की होगी और कौन-सी आषाढ़ी सांप की। गरमियों की रातें जब ठंडी होतीं और हवा चल रही होती तो चिरकुट की परती के किनारे की पगडंडियों से गुजरते लोग लाठी ठकठकाते हुए चलते ताकि बांबियों से निकले सांप अगर पगडंडियों पर पसरे हवा खा रहे हों तो आहट पाकर इधर-उधर सरक जाएं। वहीं बरसात में खेतों में पानी भरते ही सांप, बिच्छू, गोंजर-कनखजूरे बिलबिलाकर निकलते और चिरकुट की परती को अपनी शरणस्थली बनाते। परती की हरियाली का दारोमदार बरसात पर होता। घासों में हरापन आता, झरबेरियों, मकोय और करौंदों को नवजीवन मिल जाता। फिर बरसात के उतार और जाड़े की चढ़ान के साथ-साथ उनमें हरे-हरे फलों के गुच्छे के गुच्छे देखते ही बनते। जैसे-जैसे ये पकने लगते, हमारा लालच भी बढ़ता जाता लेकिन अक्सर हम मन मसोस कर रह जाते। यही वह समय होता, जब दोस्तों में भी अविश्वास की छाया मंडराने लगती। कुछ इस तरह-
देख रहे हैं न, कितनी बेर-मकोय और करवन फले हैं?
हांआं, लेकिन हमें ये सब अच्छे नहीं लगते!
झूठ काहे बोलत हैं? ताल के किनारे तो खूब बेर-करवन खाते हैं!
उसकी बात दूसरी है। वहां मनाही थोड़े है!
वैसे एक बात है, कहते हैं कि खट्टी चीजों पर कोई खराब असर नहीं पड़ता।
ये ल्लो, कौन कह रहा था?
अजोध्या पंडित तो यही बोल रहे थे!
अजोध्या ढेर ज्ञानी हैं का?
खैर, इस बतकही में जो घरभरन बहुत ठुनक रहे थे, एक बार चोरी से चिरकुट की परती में बेर तोड़ते अपने बाप गेना चौबे द्वारा रंगे हाथ पकड़े गए तो उन्हें पीटते हुए घर लाया जाता हम सबने देखा था। यों उस निषिद्ध भूगोल में दाखिल होकर चोरी-छिपे मैंने भी खूब बेर-मकोय-करवन खाया है। आम के बगीचे में मैंने बाबा से पूछा कि जिनकी यह परती है, वह चिरकुट कौन थे? इस पर उन्होंने कोई जवाब न देकर बात को घुमा दिया। लेकिन जब तीसरी बार मैंने पूछा तो झुंझलाते हुए बाबा ने कहा-अभी यह जानने की तुम्हारी उमर नहीं है, अब यह किसी से मत पूछना! मैं अपना मन मसोसकर रह गया लेकिन जब-जब परती की तरफ जाता, चिरकुट मन में उफान मारने लगते।
आखिर चिरकुट के बारे में बताया हमारे हलवाहे पग्गल चेरो ने, जो अचार डालने के लिए बगीचे में कच्चे आम तोड़ने के लिए भेजे गए थे। पग्गल के पीछे-पीछे मैं भी बगीचे में गया था। पग्गल ने बताया-चिरकुट की भौजाई यानी बड़े भाई की विधवा गांव में दाई का काम करती थी। किसी औरत को बच्चा होना हो तो उसको बुलाया जाता। वह औरत का पेट माड़ती-मीजती और बच्चा होने पर तेज धार वाले हसिए से नार या नाल काटती थी। वह अपने काम में बहुत माहिर थी। उसी दाई की तेरह-चौदह साल की लड़की के साथ किसी ने दुराचार किया और वह गर्भवती हो गई। जब तक दाई को पता चला, तब तक बहुत देर हो गई थी। फिर भी उसने लड़की का पेट माड़कर गर्भ गिराने की कोशिश की। उसी दौरान चीखती-कराहती लड़की ने दम तोड़ दिया। रात हुई तो चिरकुट ने इसी जमीन में गड्ढा खोदकर उसे मिट्टी के नीचे गाड़ दिया और ऊपर से खर-पतवार डाल दिया ताकि किसी को कोई शक-शुब्हा न हो। लेकिन दो-चार दिन गुमसुम रहने के बाद चिरकुट की भौजाई मैं हत्यारिन-मैं हत्यारिन कहती हुई प्रलाप करने लगी। वह दौड़कर इसी जगह आती और गड्ढे पर पड़ा खर-पतवार हटाकर दोनों हाथों से माटी खोदने लगती। पीछे-पीछे चिरकुट दौड़ते-भागते आते और किसी तरह खींचते-घसीटते अपनी भौजाई को घर ले जाते। ज्यादा दिन वह भी जिंदा नहीं रही, उसका पागलपन बढ़ता गया और एक दिन मर गई। इसके साल भर बाद जब पहली बरसात हुई तो आज जो यह परती है, अपने दोनों लड़कों के साथ यहां का घास-पलाश, बेर-मकोय सब काट-साफ करके चिरकुट ने गोड़-जोतकर धान की छिटवां खेती की। लेकिन यह जमीन उनको सही-फली नहीं। उस समय बहुत तेज प्लेग की महामारी फैल गई, सब जान-परान बचाने में लग गए। चिरकुट के पूरे घर-खानदान को महामारी लील गई, कोई नामलेवा नहीं बचा। तभी से चिरकुट की इस परती में कोई पांव नहीं धरता।
चिरकुट की परती पाप की धरती!
चिरकुट की परती भय का भूगोल!
चिरकुट की परती महामारी का स्मारक!
हमारा आम का बगीचा तो बहुत बाद की चीज है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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