धनतेरस पर्व पर स्वर्णमयी मां अन्नपूर्णा के दर्शन से धन धान्य की कमी नहीं होती

काशी में माता अन्नपूर्णा के दरबार में स्वयं महादेव याचक की मुद्रा में विराजमान

वाराणसी (हि.स.)। धर्म नगरी काशी में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी धनतेरस पर्व पर स्वर्णमयी मां अन्नपूर्णा के दर्शन पूजन का खास विधान है। स्वर्णमयी अन्नपूर्णेश्वरी का दरबार श्री काशी विश्वनाथ मंदिर परिक्षेत्र के रेड जोन में स्थित है। भक्तों पर अन्न धन का खजाना लुटाने वाली माता रानी के दरबार में मान्यता है कि जगत के पालन हार काशी पुराधिपति बाबा विश्वनाथ स्वयं याचक के भाव से खड़े रहते है। बाबा अपनी नगरी के पोषण के लिए मां की कृपा पर आश्रित हैं।

पौराणिक ग्रंथों में लिखा है कि यहां माता अन्नपूर्णा का वास बाबा विश्वनाथ के विराजमान होने से पहले ही हो चुका था। वर्ष 1775 में जब बाबा विश्वनाथ मंदिर का निर्माण शुरू हुआ तब पार्श्वभाग में देवी अन्नपूर्णा का मंदिर मौजूद था। पूरे देश में कहीं ऐसी प्रतिमा देखने को नहीं मिलती। नगर में नियमित ओम नम: शिवाय प्रभातफेरी निकालने वाली संस्था शिवाराधना समिति के संस्थापक डॉ मृदुल मिश्र बताते है कि माता अन्नपूर्णा का दर्शन तो श्रद्धालुओं को नियमित मिलता हैं। लेकिन, खास स्वर्णमयी प्रतिमा का दर्शन वर्ष में सिर्फ चार दिन धनतेरस पर्व से अन्नकूट तक ही मिलता है। मां की दपदप करती ममतामयी ठोस स्वर्ण प्रतिमा कमलासन पर विराजमान और रजत शिल्प में ढले काशीपुराधिपति की झोली में अन्नदान की मुद्रा में है। दायीं ओर मां लक्ष्मी और बायीं तरफ भूदेवी का स्वर्ण विग्रह है।

बताया कि स्वर्णमयी प्रतिमा की प्राचीनता का उल्लेख भीष्म पुराण व अन्य शास्त्रों में भी मिलता है। वर्ष में चार दिन धान का लावा-बताशा और पचास पैसे के सिक्के खजाना के रूप में वितरण की परम्परा है। इसे घर के अन्न भंडार में रखने से विश्वास है कि वर्ष पर्यन्त धन धान्य की कमी नहीं होती। इसी विश्वास से लाखों श्रद्धालु दरबार में आते हैं।

बताया कि स्कंद पुराण के काशीखण्ड में बताया गया है भगवान विश्वेश्वर गृहस्थ हैं और भवानी उनकी गृहस्थी चलाती हैं। अत: काशीवासियों के योग-क्षेम (पालन पोषण)का पूरा भार इन्हीं पर है। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के काशी-रहस्य के अनुसार भवानी ही अन्नपूर्णा हैं। सामान्य दिनों में अन्नपूर्णा माता की आठ परिक्रमा की जाती है। अन्नपूर्णा का शाब्दिक अर्थ ही है- ‘धान्य’ (अन्न) की अधिष्ठात्री। कथा है कि महादेव ने जगदम्बा पार्वती के साथ विवाह करने के पश्चात उनके पिता के क्षेत्र हिमालय के अन्तर्गत कैलास पर रहने लगे, तब देवी ने अपने मायके में निवास करने के बजाय अपने पति की नगरी काशी में रहने की इच्छा व्यक्त की। महादेव उन्हें साथ लेकर अपने सनातन गृह अविमुक्त-क्षेत्र (काशी) आ गए।

काशी उस समय केवल एक महाश्मशान नगरी थी। माता पार्वती को सामान्य गृहस्थ स्त्री के समान ही अपने घर का मात्र श्मशान होना नहीं भाया। इस पर यह व्यवस्था बनी कि सत्य, त्रेता, और द्वापर, इन तीन युगों में काशी श्मशान रहे और कलियुग में यह अन्नपूर्णा की पुरी होकर बसे। तभी से माता अन्नपूर्णा यहां विराजित हुईं और मंदिर काशी का प्रधान देवीपीठ माना जाता है।

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