दुर्गाकुंड कूष्मांडा मंदिर का निर्माण रानी भवानी ने कराया था, आस्था का केन्द्र है आध्यात्मिक शक्तिपीठ

– आदि शक्ति ने शुम्भ-निशुम्भ दानव का वध कर यहां किया था विश्राम,मंदिर का जिक्र काशी खंड में भी

वाराणसी (हि.स.)। काशीपुराधिपति की नगरी में स्वयं आदि शक्ति कुष्मांडा देवी (दुर्गा देवी) दुर्गाकुंड में विराजित है। देश के प्राचीनतम देवी मंदिरों में से एक इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि दुर्गम दानव शुम्भ-निशुंभ का वध करने के बाद थकी आदि शक्ति ने यहां विश्राम किया था। तब काशी का यह इलाका दुर्गम और वनाच्छादित था। इस मंदिर का जिक्र ‘काशी खंड’ में भी है। नागर शैली में निर्मित गाढ़े लाल रंग के इस आध्यात्मिक शक्तिपीठ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी अपने जीवन काल में हाजिरी लगाई थी।

दुर्गा मंदिर में यू तो वर्ष पर्यंत दर्शन पूजन के लिए श्रद्धालुओं का रेला उमड़ता है। लेकिन शारदीय और बासंतिक चैत्र नवरात्र में चौथे दिन जगदम्बा के इस स्वरूप के दर्शन पूजन का विधान है। दर्शन के लिए लम्बी लाइन लग जाती है। पूरे सावन माह में यहां मेला लगता है। जिसमें लाखों श्रद्धालु दरबार में दर्शन पूजन करते है। माना जाता है कि आदिशक्ति के इस स्वरूप के दर्शन-पूजन से जीवन की सारी भव बाधा और दुखों से छुटकारा मिलता है। साथ ही भवसागर की दुर्गति को भी नहीं भोगना पड़ता है। माँ की आठ भुजाएं हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र और गदा है। मां कुष्माण्डा विश्व की पालनकर्ता के रूप में भी जानी जाती हैं।

माना जाता है कि इस मंदिर का विधिवत निर्माण 1760 ई0 में रानी भवानी ने कराया था। जानकार बताते हैं कि उस जमाने में मंदिर निर्माण में पचास हजार रूपये की लागत आयी थी। मंदिर में अक्सर हाजिरी लगाने वाले साहित्यकार धकाधक बनारसी, डॉ जयशंकर यादव बताते है कि देवी मंदिर के अंदर बने विशाल हवन कुंड में नियमित हवन और तंत्र पूजा भी होती है। इससे मंदिर में आध्यात्मिक शक्ति का वास है। देवी मां ने यहां साक्षात प्रकट होकर विकट दानवों को मारने के बाद विश्राम किया था। उन्होंने बताया कि मंदिर में भगवती के मुखौटे और चरण पादुकाओं का पूजन होता है। साथ ही उनकी यांत्रिक पूजा भी होती है। मंदिर का स्थापत्य बीसा यंत्र पर आधारित है। राजा सुबाहु ने दुर्गा मंदिर का निर्माण करवाया था। 1760 ईस्वी में रानी भवानी ने विधिवत इसका निर्माण कराया था।

इस दुर्गामंदिर के चारों ओर भव्य बरामदे का निर्माण बाजीराव पेशवा द्वितीय ने कराया था। मंदिर के मण्डप को भी बाजीराव ने ही बनवाया था। जबकि मंदिर से सटे विशाल कुण्ड का निर्माण इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। मंदिर में लगे दो बड़े घण्टों को नेपाल नरेश ने लगवाया था। मुख्य मंदिर के चारों ओर बने बरामदे में नियमित रूप से श्रद्धालु बैठकर मां का जाप करते रहते हैं। मंदिर में प्रवेश के लिए दो द्वयार है। मुख्य द्वार ठीक मां के गर्भगृह के सामने है। वहीं, गर्भगृह के बायीं ओर छोटा सा द्वार है। मंदिर परिसर में गणेश जी, भद्रकाली, चण्डभैरव, महालक्ष्मी, सरस्वती, राधाकृष्ण, हनुमान एवं शिव की भी प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। मंदिर में स्थित भद्रकाली मंदिर के पास यज्ञकुण्ड है। जहां नियमित रूप से यज्ञ होता है। नवरात्र और सावन माह में मंदिर को बेहतरीन ढंग से विभिन्न रंगों के विद्युत झालरों से सजाया जाता है। जो रात में बेहद ही आकर्षक लगता है। मंदिर परिसर से सटा ऐतिहासिक कुंड और फव्वारा भी इसके आध्यात्मिक सौंदर्य में चार चांद लगा देता है। हेरिटैज सिटी डेवलपमेंट एंड आग्मेंटेशन योजना (हृदय) में कुंड का हेरिटेज लुक श्रद्धालुओं में आकर्षण का केन्द्र है।

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