…तो नेहरू जी तानाशाह हो जाएंगे!
जय प्रकाश नारायण के जन्म दिन (11 अक्तूबर) पर विशेष
सुरेंद्र किशोर
जय प्रकाश नारायण आम तौर पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का बड़ा सम्मान करते थे। उन्हें बड़ा भाई भी कहते थे। पर, जनहित में मौका आने पर जेपी कभी-कभी नेहरू की तीव्र आलोचना करने से परहेज भी नहीं करते थे। एक ंसंदर्भ में लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था, ‘जेपी ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जो नेहरू की आलोचना कर सकते हैं। उनकी आलोचना को पंडित जी गंभीरता से लेते हैं।’ यह प्रसंग ‘बिहार विभूति’ डा. अनुग्रह नारायण सिंह के जीवन काल का है। ‘बाबू साहब’ यानि अनुग्रह बाबू यह नहीं चाहते थे कि जेपी, नेहरू जी की सार्वजनिक रूप से कटु आलोचना करें। वे चाहते थे कि लालबहादुर शास्त्री यह बात जेपी से कहें। क्योंकि जेपी जब भी नेहरू की आलोचना करते हैं तो अनुग्रह बाबू के बारे में कांग्रेस के भीतर गलतफहमी पैदा होती है। अनुग्रह बाबू के जेपी काफी करीबी थे। (एक बार जेपी ने कहा था कि रिश्ता निभाना कोई बाबू साहब से सीखे।) उधर जेपी, लाल बहादुर शास्त्री के रिश्तेदार थे। लाल बहादुर शास्त्री को किसी ने अनुग्रह बाबू का यह संदेश पहुंचाया। उस पर शास्त्री जी ने कहा कि एक जेपी ही हैं जो पंडित जी को कुछ कह सकते हैं। यदि जेपी भी कुछ नहीं कहेंगे तो नेहरू जी तानाशाह हो जाएंगे। पर एक बार जेपी ने नेहरू के खिलाफ जो कड़ा बयान दिया, वह ऐतिहासिक ही साबित हुआ। यह बात सन् 1955 की है। पटना में पुलिस गोली कांड हुआ था। बी.एन.कालेज का छात्र दीनानाथ पांडेय मारा गया था। छात्रगण गोली कांड की न्यायिक जांच की मांग कर रहे थे। पर तत्कालीन मुख्यमंत्री डा़. श्रीकृष्ण सिंहा न्यायिक जांच के खिलाफ थे। जनता में इस गोली कांड को लेकर भारी असंतोष था। सरकार के खिलाफ रोष था, जिसे शांत करने के लिए जवाहर लाल नेहरू ने 30 अगस्त 1955 को पटना के गांधी मैदान में आम सभा को संबोधित किया। उस सभा में नेहरू ने प्रेस और भीड़ को भला-बुरा कहा और न्यायिक जांच की मांग को ठुकरा दिया। नेहरू के इस भाषण को उनका बेजोड़ अभिनय करार देते हुए जयप्रकाश नारायण ने एक कड़ा व लंबा प्रेस बयान जारी किया। उनका यह बयान दो सितंबर 1955 के अखबारों में छपा। जेपी ने अपने बयान में कहा, ‘यह एक ऐसी घटना है जिस पर चुप रहने का अर्थ होगा कि मैं अपने नागरिक कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा हूं। अभी प्रधानमंत्री पटना आए। अपार भीड़ इस उम्मीद में जमा हुई कि ऐसे शब्द सुनने को मिलेंगे जिनसे उनका मन शांत हो सके। लेकिन प्रधानमंत्री ने उनके जख्मों पर नमक छिड़का। अपना आपा खोकर वे भीड़ पर चिल्लाए। पटना प्रेस को गाली दी। पुलिस जुल्म के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए नागरिकों की भर्त्सना की। ब्रिटिश राज में जो लोग जुल्म की भर्त्सना करते थे, उनका शुमार देशभक्तों में होता था। लेकिन स्वराज में उन्हें गद्दारों की तरह देखा जाता है।’ जेपी ने कहा, ‘प्रधानमंत्री कम्युनिस्टों पर बहुत से दोषारोपण करने में संलग्न हैं। कोई शक नहीं कि उन्हें बताया गया है कि सारे बखेड़े के जिम्मेदार कम्युनिस्ट हैं। पटना में हमारे बहादुर पुलिस वालों को, जो अपना ज्ञान तंतु खो चुके हैं, हर जगह एक कम्युनिस्ट बम लिए हुए नजर आता है। इसी ने इस कम्युनिस्ट कहानी को फैलाया है। जैसा कि सभी जानते हैं कि मैं कोई कम्युनिस्ट प्रशंसक नहीं हूं, लेकिन मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं हो रही है कि इस सारी उथल-पुथल में उनकी भूमिका संयमित रही है। कम्युनिस्टों के भीतर बहुत सी कमियां हैं। लेकिन वे संगठित और अनुशासित लोग हैं।’
घटना के बारे में नेहरू के आकलन को चुनौती देते हुए जेपी ने कहा, ‘नेहरू ने वही कहा जो उन्हें कहने को कहा गया। उनके कान इतनी चालाकी से भरे गए कि कुछ बाकी न रहा। मुझे सबसे अधिक धक्का इस बात से लगा कि प्रधानमंत्री के मन में यह शिष्टाचार तो है कि बी.एन. कालेज जाकर कहीं वे आयोग को कठिनाई में न डाल दें। लेकिन गोली कांड की घटना पर बोलते समय उन्होंने इस भावना का परिचय नहीं दिया। उन्होंने जोर-जोर से और बार-बार विद्यार्थियों और नागरिकों के हुड़दंग की भर्त्सना तो की लेकिन दूसरे पक्ष के विरुद्ध आरोपों पर वे एक शब्द भी नहीं बोले।’ ‘बिहार में देश भक्तों की कमी नहीं है। मुझे नहीं लगता कि देशभक्ति पर श्री नेहरू ने हमें कोई प्रशंसनीय पाठ पढ़ाया है। देशभक्ति मात्र एक कपड़े के टुकड़े की पूजा में नहीं, बल्कि निश्चित राष्ट्रीय सदाचारों, जीवन के निश्चित मूल्यों, जनता और सरकार के आचरण के निश्चित स्तरों में है। बहुत दुःखी मन से मैंने ये पंक्तियां लिखी हैं। मेरे लिए राजनीतिक आंदोलन के दिन समाप्त हो चुके हैं। किसी विवाद में पड़ने की अब मुझमें शक्ति नहीं है। पिछले कुछ दिनों में बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष सहित कई लोगों ने मुझ पर अनुचित हमला किया है। फिर भी मैं शांत रहा।’ पुनश्च…
उससे पहले एक अन्य प्रसंग में जयप्रकाश नारायण ने 19 मार्च, 1953 को अपने बयान में कहा था, ‘एक लम्बे समय से जवाहरलाल जी मुझसे मिलना चाहते थे। हम मिले। बातचीत से पता चला कि हमारे बीच सहमति का क्षेत्र काफी व्यापक है। इन वार्ताओं के दरम्यान प्रधानमंत्री ने हमारे सहयोग की इच्छा प्रकट की। स्पष्ट किया कि इसका मतलब सरकार और जनता दोनों स्तरों पर सहयोग है।’ लेकिन बाद में जेपी ने 14 सूत्री कार्यक्रम नेहरू के समक्ष पेश कर दिया, जिसमें निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी शामिल था। नेहरू ने कहा कि यह संभव नहीं। इस तरह बातचीत टूट गयी। नेहरू समझ गये कि जेपी न तो डरने वाला है और न ही सत्ता के लोभ में आने वाला। इसीलिए बाद के दिनों में नेहरू, जेपी की बातों पर गौर करते थे। तब चर्चा थी कि जेपी को वे उप प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। संभवतः बाद में शास्त्री जी की जगह प्रधानमंत्री भी बन सकते थे। जेपी ने एक कविता लिखी थी, उसकी एक पंक्ति थी…इतिहास से पूछो, क्या बन नहीं सकता था प्रधानमंत्री मैं!
(लेखक पटना के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)
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