टूटते संयुक्त परिवार बढ़ते वृद्धाश्रम, बिखरते बुजुर्ग के सपने
– घटती आमदनी से टूटते संयुक्त परिवार, बुजुर्गों के प्रति जिम्मेदारियों से भागती संतानें
– बुजुर्गों के प्रति घटता सम्मान व समर्पण
– परिवार व समाज के कार्यक्रमों से दूर होते एकल परिवार
– मिटते सामाजिक सौहार्द के लिए जिम्मेदार बढ़ती एकल परिवार की अवधारणा
फतेहपुर (हि.स.)। भारतीय जीवन व संस्कृति का विश्व में एक विशिष्ट स्थान रहा है। पूरे विश्व को एक परिवार मानने की अवधारणा “वसुधैव कुटुम्बकम” भारत की देन है। लेकिन पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध व दिखावापूर्ण जीवन शैली का भारतीयों ने जब से अंधानुकरण शुरू किया है, तब से भारत में संयुक्त परिवार की जीवन शैली बिखरने लगी हैं। इसका सबसे अधिक दंश हमारे बुजुर्ग झेलने को विवश हो रहे हैं।
एकल परिवार के बढ़ते चलन से परिवार के मुखिया या पालनहार अपनी संतानों के अपमान व तिरस्कार से विवश होकर वृद्धाश्रम में जीवन का बोझ ढोते देखे जा रहे हैं। आज हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि संयुक्त परिवार मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन हो गया है। वहीं वृद्धाश्रम बढ़ते जा रहे हैं और उनमें बेसहारा बुजुर्गों की तादाद दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
मानव जीवन का सुख व खुशहाली सिर्फ पश्चिमी देशों की चकाचौंध की भेंट चढ़ता जा रहा है, जहां हर व्यक्ति अपनी संतानों व पत्नी के लिए पैसा इकट्ठा करने की होड़ में लगा है और उस मां-बाप के प्रति गैरजिम्मेदार बनता जा रहा जिसने उसके जीवन की हर खुशी के लिए अपनी खुशी कुर्बान कर दी है।
जिले के भिटौरा विकासखंड स्थित मवईया वृद्धाश्रम है जो पवित्र गंगा नदी के तट पर स्थित भृगु ऋषि की तपोभूमि भृगुधाम के पास मवईया गांव में यह वृद्धाश्रम बना है। यह स्थान शहर मुख्यालय से मात्र चार किलोमीटर दूर है। यह वृद्धाश्रम जिला समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित है। जिसकी वार्डन नीतू वर्मा हैं। इस आश्रम को जीपीएस फाउण्डेशन लखनऊ का भी सहयोग मिलता है।
वार्डन नीतू ने बताया कि वृद्धाश्रम में इस समय कुल 80 महिला-पुरुष बुजुर्ग रह रहे हैं। सभी वृद्धजनों के लिए सुबह नाश्ता, दोपहर व शाम को भोजन की उचित व्यवस्था की जाती है। भोजन के मैन्यू में परिवर्तन किया जाता रहता है। समय-समय पर स्वास्थ्य परीक्षण भी कराया जाता रहता है। मनोरंजन के लिए वाद्ययंत्र की भी व्यवस्था है। वृद्धजनों को जिले के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ले जाया जाता है, जिससे माहौल बदलता रहे। लेकिन यह सच है जो सुख परिवार के सदस्यों या अपने बाल-बच्चों के साथ मिलता है वह यहां तो नहीं मिलेगा, फिर भी यहां रहने वाले सभी वृद्धजनों के बीच एक परिवार जैसा माहौल देने की भरसक कोशिश की जाती है। जिससे सभी वृद्धजन परिवार जैसे माहौल को महसूस कर सकें। मुझे भी इन बुजुर्गों के साथ रहना बहुत अच्छा लगने लगा है। परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों की कमी इन सब के बीच रहकर एहसास नहीं होती।
वृद्ध राम सागर गुप्ता ने अपनी आपबीती सुनाते हुए बताया कि मेरे दो पुत्र हैं, दोनों नौकरी करते हैं। एक रेलवे में जेई पद पर दिल्ली में है और दूसरा बंगलौर में प्राईवेट कम्पनी में अच्छे पद में हैं। पत्नी को गुजरे लगभग बीस साल हो गये हैं। दोनों अपने-अपने परिवार में मस्त हैं। मुझे बुलाते भी हैं, लेकिन मुझे वहां अच्छा नहीं लगता। बहुओं के लिए एक बोझ जैसा रहना पड़ता है। इसलिए मैंने यहीं रहना बेहतर समझा। यहां पर मुझे पूरी आजादी है और सभी के साथ हंसी-खुशी दिन बीत जाता है।
अस्सी साल की बुजुर्ग महिला का अपना दर्द है। उनका कहना है कि घर में खेती-बारी है नहीं। एक बेटी थी उसकी दस साल पहले किसी तरह हाथ पीले करके जिम्मेदारी से मुक्ति मिल गई थी। मैं अपने पति के साथ मजदूरी करके किसी तरह गुजर बसर करती रही। तीन साल पहले मेरे पति भी गुजर गये। उसके बाद मैं बेसहारा हो गई। धन दौलत कुछ था नहीं इसलिए बेटी-दामाद भी नहीं रखने को तैयार हुए। उसके बाद से गांव के लोग इस आश्रम में रखवा कर चले गये। यहां अच्छा लगता है। किसी तरह जिन्दगी काटनी है।
सत्य नारायण सेवा फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. आलोक श्रीवास्तव जो सरकारी चिकित्सक भी है और सामाजिक संस्था के द्वारा समाजसेवा में भी बढ़-चढ़कर सहयोग करते रहते हैं। उन्होंने बताया कि मेरे और मेरी संस्था द्वारा नियमित रूप से सभी वृद्धजनों का स्वास्थ्य चेकअप किया जाता है। जो मामूली रूप से बीमार होते हैं उनका वहीं इलाज कर दिया जाता है। यदि कोई गंभीर होता है तो उसे जिला अस्पताल में भर्ती कराकर इलाज किया जाता है।
नारी स्मिता फाऊंडेशन की संचालिका स्मिता सिंह, जो रोटी घर के नाम से भूखे लोगों के लिए भोजन उपलब्ध करवाने का काम कोरोना काल में शुरू किया था, तब से वह समर्पित भाव से समाजसेवा कर रहीं हैं। वह भी अपनी संस्था के माध्यम से इस वृद्धाश्रम में आकर भोजन की व्यवस्था में योगदान कर रही हैं। उनका मानना है कि वृद्धजन हमारे पितातुल्य हैं। उनका सम्मान ही नहीं बल्कि उनके हर दुख-सुख में साथ रहना हमारी जिम्मेदारी है। परिवार का बुजुर्ग उस दरख्त की तरह होता हे जो जीवन भर परिवार को छाया और फल देता रहता है। उनकी खुशी से ही परिवार की खुश रह सकता है।
भृगुधाम आश्रम के संस्थापक महर्षि स्वामी विज्ञानानंद जी ने एकल परिवार के दुष्प्रभावों पर कहा कि ऐसे परिवार के चलन से सबसे अधिक घर अए बुजुर्गो व माता-पिता का सहारा छिन जाता है। सब कुछ होते हुए भी बुजुर्ग बेसहारा हो जाते हैं। भरे पूरे परिवार का सुख नसीब नहीं होता हैं। बच्चें दादा-दादी से मिलने वाली सांस्कृतिक विरासत से दूर हो जाते हैं जो उनके किस्से, कहानियों से विरासत में वारिशों को संयुक्त परिवार में मिलते रहते हैं। अदब व सम्मान की भावना का विकास बच्चों में विकसित नहीं होता है। जिसके दुष्परिणाम समाज में अक्सर देखने को मिल जाते हैं।
मुसीबत में फंसे बुजुर्गों के प्रति नई पीढ़ी संवेदनहीनता का परिचय देते हुए कोई सहयोग नहीं करते। वहीं जब एकल परिवार संकट में होता है तब बुजुर्ग के अनुभव का लाभ नहीं मिल पाता, न ही कोई सांत्वना देने वाला होता है। बुजुर्गों की दुआएंं बाल-बच्चों को नसीब होती है। पारिवारिक व सामाजिक दायित्वों व जिम्मेदारियों का बोध भी बच्चों में नहीं पनप पाता है। ऐसे दशा में इंसान मात्र मशीन की तरह बन कर रह जा रहा है। इसीलिए भारत की वसुधैव कुटुम्बकम व संयुक्त परिवार की प्राचीन जीवन पद्धति व संस्कृति फिर से पुर्नस्थापित करने की महती आवश्यकता है। जिससे पूरे परिवार को सुरक्षा व सम्मान मिल सके।
देवेन्द्र/मोहित/बृजनंदन