ज्ञान केवल सूचना नहीं होता
हृदयनारायण दीक्षित
भाषा मानव जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है। दुनिया के सभी समाजों के गठन में भाषा ही संवाद का माध्यम होती है। भाषा के प्रयोग का उद्देश्य संवाद होता है अपनी बात को समझाना होता है। भाषा वाक्यों से बनती है और वाक्य शब्दों से। शब्द भाषा के घटक होते हैं। प्रत्येक शब्द के भीतर उसका अर्थ छुपा होता है। पतंजलि ने महाभाष्य में बताया है, ‘एक ही शब्द किसी वाक्य में विशेष स्थान में प्रयुक्त होकर भिन्न भिन्न अर्थ देता है। शब्द का सम्यक ज्ञान और सम्यक प्रयोग ही अपेक्षित परिणाम देता है। शब्द की शक्ति बड़ी होती है।’ भारत लोकतंत्र के उद्भव का प्रथम स्थान है। यहां वैदिक काल में भी सभा और समितियां जैसी लोकतंत्री संस्थाएं थीं। सुंदर और सरल बोलना सभ्य होना था। सभ्य सभा के योग्य माने जाते थे।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्राचीनतम जनतंत्र है। हम भारत के लोगों ने संसदीय जनतंत्र अपनाया है। यहां संविधान सर्वोच्च सत्ता है। संवैधानिक जनतंत्र के संचालन के लिए राजव्यवस्था में तीन प्रमुख संस्थाएं हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कर्तव्य सुपरिभाषित हैं। विधायिका के समक्ष कार्यपालिका की जवाबदेही है। संविधान सभा की मसौदा समिति के सभापति डॉ. बीआर आम्बेडकर थे। मसौदा समिति की सिफारिशों पर संविधान सभा में लम्बी बहस हुई थी। डॉ. आम्बेडकर ने सभा में मसौदा प्रस्ताव रखा था। उन्होंने कार्यपालिका को विधायिका के प्रति जवाबदेह बनाया था। उन्होंने स्पष्ट किया था कि, ‘यहां सरकार को विधायिका के समक्ष जवाबदेह बनाया गया है। सरकार की स्थिरता के बजाय जवाबदेही को महत्व दिया गया है।’ संविधान सभा ने लम्बी बहस के बाद संसदीय जनतंत्र स्वीकार किया था। संसद और विधान मण्डलों को विधायी और संविधायी अधिकार मिले थे। विधि निर्माण, विधि संशोधन और संविधान संशोधन के लिए विधायिका को सशक्त किया गया था।
विधि निर्माण में बहस होती है। वाद-विवाद होते हैं। इसके लिए सबको समझ में आने वाली भाषा का महत्व है। व्यवहारिक रूप में किसी भी विषय पर विधि निर्माण का प्रस्ताव कार्यपालिका करती है। निजी विधेयक भी रखे जाते हैं। वैसे विधि निर्माण का मसौदा कार्यपालिका द्वारा सदन में रखा जाता है। मसौदे की सरल भाषा से प्रस्तावित कानून की उपयोगिता और कमजोरी का ज्ञान सदन के सदस्यों के लिए सुविधाजनक होता है। कठिन भाषा विधि निर्माण के समय जटिल प्रश्न बनती है। सरल भाषा के अभाव में निर्मित विधि भी क्लिष्ट हो जाती है।
यह प्रसन्नता का विषय है कि संसद व राज्य विधानसभाओं कार्यपालक मंत्रालयों, वैधानिक निकायों से सम्बंधित केंद्र और राज्यों के अधिकारियों के लिए विधायी मसौदा सम्बंधी प्रशिक्षण कार्यक्रम का हाल ही में आयोजन हुआ है। इस प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि विधायी मसौदा लोकतांत्रिक देश के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए इसकी क्षमता और कार्यविधि में समयानुसार बदलाव और पुनर्विचार होते रहना चाहिए। तत्सम्बंधी क्षमता में लगातार बढ़ोतरी की आवश्यकता होती है। गतिशील राष्ट्र में जड़ता नहीं होती। देशकाल परिस्थिति के अनुसार नए कानूनों की आवश्यकता अनुभव की जाती है। इसी तरह काल वाह्य हो चुके कानूनों को निरस्त करने की आवश्यकता भी पड़ती है।
संविधान सबका संरक्षक है। सारा विधि निर्माण और सरकारी काम काज संवैधानिक होता है। शाह ने कहा, ‘शासन व्यवस्था के संचालन में देश के सामाजिक, आर्थिक विकास और अंतरराष्ट्रीय संधियों आदि का ध्यान रखना होता है।’ शाह ने ठीक कहा है। राज्य के नीति निदेशक तत्वों (संविधान भाग 3) में महत्वपूर्ण मार्गदर्शी सिद्धांत, निस्संदेह किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं। फिर भी इनमें अभिकथित तत्व भारतीय शासन में मूल भूत हैं। विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। (अनु. 37) विधि निर्माण के कौशल में इसी दक्षता की अपरिहार्यता है। इसी तरह अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि, राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बंधों को बनाए रखने, अंतर्राष्ट्रीय संधि और संधि बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने और अंतरराष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थ द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने के तत्व भी महत्वपूर्ण है (अनु. 51) मूल कर्तव्य (अनु. 51 क) अतिरिक्त महत्वपूर्ण है। ऐसे सभी विषयों पर विधि का मसौदा बनाने वाले अधिकारियों को सभी जानकारियों से लैस होना चाहिए। यहां अर्जित जानकारी पर्याप्त नहीं है। अपनी जानकारी का सम्यक प्रयोग भी जरूरी है। पहले समझना और फिर समझे हुए को समझाना आसान नहीं है।
दुर्भाग्य से देश में कानूनों की भाषा जटिल है। कानूनी दांव पेंच में वादकारियों और न्यायालयों का मूल्यवान समय लगता है। दोनों पक्षों के अधिवक्ता न्यायालयों में बहस करते हैं। वादी प्रतिवादी प्रायः नहीं जान पाते कि बहस के मूल तत्व क्या हैं? विधि निर्माण और विधि की भाषा सरल सुगम और सुबोध होनी चाहिए। भारतीय भाषाएं समृद्ध हैं। हमारी भाषाओं का शब्द भंडार बड़ा है। लेकिन जटिल शब्दों और वाक्यों के अनुवाद से ही सरलता नहीं आती। सामान्यतया अनुवाद पर्याप्त नहीं होता। अनुवाद की जगह पूरे मसौदे का भाव समझाना जरूरी होता है। हमारे संविधान निर्माता सजग थे। उन्होंने संविधान में प्रयुक्त अनेक शब्दों विषयों की परिभाषाएं (अनु. 366) की है। कुछ उदाहरण मजेदार हैं। ‘माल’ सामान्य शब्द है। सहज समझ में आने वाला है। लेकिन संविधान (अनु. 366-12) में माल की परिभाषा है, ‘माल के अंतर्गत सभी सामग्री वाणिज्य और वस्तुएं हैं।’ अनु. 366-10 में विद्यमान विधि की भी परिभाषा है। रेल की परिभाषा भी है, ‘ रेल के अंतर्गत किसी नगर पालिका क्षेत्र में पूर्णतया स्थित संचार की ऐसी अन्य लाइन नहीं जिसकी बाबत संसद ने विधि द्वारा घोषित किया है कि वह रेल नहीं है
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)