‘जिगर’ जैसा जिगर वाला कोई शायर नहीं मिलता

पुण्य तिथि (09 सितम्बर) पर विशेष…

जानकी शरण द्विवेदी
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना ही समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

प्यार मोहब्बत की दुनिया में डूबे लोगों के बीच गाहे-ब-गाहे यह शेर सुनने को मिल ही जाता है। इस शेर को लिखने वाले शायर का नाम है ’जिगर मुरादाबादी।’ उन्हें यह दुनिया छोड़े छह दशक से अधिक वक्त हो गया, किंतु उनकी शायरी आज भी लोगों के दिलों की धड़कनों पर राज करती है। जिगर साहब का जन्म 6 अप्रैल 1890 को बनारस में हुआ था। इनके पिता का नाम अली नजर था। मात्र छह माह की उम्र में ही उनका पूरा परिवार मुरादाबाद जाकर बस गया। उनके परिवार में लगभग सभी लोग शायरी का शौक रखते थे। इसलिए उन्हें शायरी विरासत में मिली थी। जिगर साहब का असली नाम अली सिकंदर था। बुनियादी मजहबी तालीम के बाद अंग्रेजी शिक्षा के लिए उन्हें इनके चाचा के पास लखनऊ भेज दिया गया, जहां उन्होंने कक्षा नौ तक की पढ़ाई पूरी की। चूंकि अंग्रेजी में इनकी बहुत दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए कक्षा नौ में वह दो बार फेल हो गए और इसके बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। छोटी सी ही उम्र में वह शेर-ओ-शायरी करने लगे। अपने दोस्तों के बीच जब वे शेर पढ़ते, तो दोस्त वाह-वाह कर उठते।

कम उम्र में ही पड़ोसन से हो गया था इश्क

जिगर साहब ने अपनी पहली गजल 14 साल की उम्र में पढ़ी और 15-16 की उम्र तक आते-आते इश्क में गिरफ्तार हो गए। बताते हैं कि उन्होंने इश्क भी किया तो अपने चाचा के दोस्त रहे पड़ोस में रहने वाले एक तहसीलदार की बीवी से। दरअसल तहसीलदार साहब ने एक तवायफ़ से शादी कर रखी थी। जिगर साहब का उनके यहां आना जाना था। उन्होंने एक दिन उस तवायफ को अपना मोहब्बत नामा थमा दिया। तवायफ ने वह मोहब्बत नामा अपने तहसीलदार पति के हवाले कर दिया। तहसीलदार ने जिगर साहब का वह पत्र उनके चाचा को लखनऊ भेज दिया। चाचा को जब उनके इस हरकत की जानकारी मिली तो उन्होंने जिगर को पत्र लिखा कि वे जल्द ही घर पहुंच रहे हैं। इससे घबराकर जिगर ने बहुत ज्यादा मात्रा में भांग खा ली। बड़ी मुश्किल से उनकी जान बचाई जा सकी। इसके बाद चाचा के घर पहुंचने से पहले ही वह नौ-दो ग्यारह हो गए। जिगर साहब मुरादाबाद से भाग कर आगरा पहुंचे और वहां एक चश्मा बनाने वाली कंपनी के विक्रय एजेंट बन गए। शराब की लत उन्हें विद्यार्थी जीवन से ही लग चुकी थी। नतीजतन उन दौरों में शायरी और शराब उनकी हमसफ़र रहती थी। आगरा में उन्होंने वहीदन नाम की एक लड़की से निकाह कर लिया। जिगर के यहां वहीदन के एक रिश्ते के भाई का आना-जाना था। हालात कुछ ऐसे बने कि जिगर को अपनी बीबी के चाल-चलन पर शक हुआ और बात इतनी बढ़ी कि वह घर छोड़कर चले गए। उसके बाद उन्होंने मैनपुरी की एक गायिका शीरजन से प्रेम विवाह किया, किंतु इसका भी हाल पहले की तरह हुआ।

असगर गोंडवी की साली से जिगर ने किया निकाह

अली सिकंदर से जिगर मुरादाबादी बने इस अजीम शायर की जीवन यात्रा बहुत सहज और सरल नहीं रही। पिता की मौत के बाद एक बार फिर वह मुरादाबाद आ गए और शेर-ओ-शायरी लिखना जारी रखा। पहले वह अपनी रचनाओं में पिता से सुधार करवा लिया करते थे, किंतु अब दाग देहलवी, मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम और रजा रामपुरी को अपनी गजलें दिखाने लगे। जिंदगी में कुछ भी स्थिर नहीं था। खाना-बदोश जीवन और बिना किसी दोस्त के जिगर की नई मानसिक और भावनात्मक पीड़ा का समाधान उनकी जिगरी दोस्त बनी शराब भी नहीं कर पा रही थी। इसी दौर में वह घूमते-घूमते गोंडा आ गए, जहां उनकी मुलाक़ात अपने समय के नामवर शायर असग़र गोंडवी से हुई। असग़र ने उनकी योग्यता को पहचाना। उनको संभाला, दिलासा दिया और अपनी साली नसीम से उनका निकाह करा दिया। इस तरह जिगर उनके घर के सदस्य बन गए। मगर सफ़र, शायरी और मदिरा पान ने जिगर को इस तरह जकड़ रखा था कि शादीशुदा ज़िंदगी की बेड़ी भी उनको बांध कर नहीं रख सकी। हालांकि असग़र गोंडवी की संगत के कारण उनके जीवन में बहुत बडा़ परिवर्तन आया। पहले उनके कलाम हल्के और आम हुआ करते थे, किंतु अब उनमें गम्भीरता, उच्चता और स्थायित्व आने लगा था। जिगर की शायरी में सूफियाना अंदाज भी असगर गोंडवी की संगति से ही आया।

फिल्मी दुनिया का हिस्सा नहीं बने जिगर साहब

हालांकि जिगर अपनी शायरी में नैतिकता की शिक्षा नहीं देते, किंतु उनकी शायरी का नैतिक स्तर बहुत ऊंचा है। शराब पीने की बुरी लत से जब उन्होंने तौबा किया, तब से मरते दम तक उसे हाथ नहीं लगाया। बदले में उन्होंने सिगरेट पीनी शुरू कर दी। बाद में उसे भी छोड़ दिया और ताश खेलने लगे। उनके कई मित्रों ने चाहा कि जिगर साहब फिल्मी दुनिया में प्रवेश करें, किंतु इसके लिए उनकी तमाम कोशिशें भी काम न आईं। उन्होंने फिल्मी दुनिया का हिस्सा बनने से सिरे से इंकार कर दिया। उनका मानना था कि फिल्मी दुनिया का हिस्सा बनना किसी बड़े गुनाह से कम नहीं है। फिल्मी दुनिया के गीत लिखने के लिए इन्हें भारी-भरकम रकम की पेशकश की गई किंतु उन्होंने हर तरह की लालच को ठुकरा दिया। इस बारे में उनका यह शेर बहुत मौजू है :
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं।
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं।
हुश्न व इश्क का जिक्र आते ही जिगर साहब का नाम सहसा ज़बान पर आ ही जाता है। ताउम्र मोहब्बत में महरूमी और मायूसी का सामना करने वाले जिगर की शायरी में ये एहसास शिद्दत से बयां होते हैं :
हम इश्क के मारों का इतना ही फ़साना है,
रोने को कोई नहीं, हंसने को ज़माना है।
उनकी रचनाओं ने न सिर्फ गोंडा की शान बढ़ाई, बल्कि गंगा-जमुनी तहजीब को भी आगे बढ़ाने का काम किया है। वह कहते हैं:
उनका जो फर्ज है, वह अहले सियासत जाने,
मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे।
गोंडा को कर्मभूमि बनाने वाले जिगर दुनिया को बड़ी बारीकी से देखते थे। तभी तो वह कहते हैं :
आदमी आदमी से मिलता है,
दिल मगर कम किसी से मिलता है।
जिंदगी को उन्होंने अपने तरीके से जिया। इसका जिक्र उनकी रचना में कुछ यूं दिखा :
गुलशन परस्त हूं मुझे गुल ही नहीं अजीज,
कांटों से भी निबाह किए जा रहा हूं मैं।

मुल्क से बेपनाह मोहब्बत करते थे जिगर साहब

जिगर साहब को अपने मुल्क से बेपनाह मोहब्बत थी। वे भारत के खिलाफ एक शब्द भी सुनना पसंद नहीं करते थे। इन्हें यहां तक पेशकश की गई कि अगर वे पाकिस्तान आ जाएं, तो उन्हें फौरन पाकिस्तान की नागरिकता के साथ-साथ ऐश-ओ-आराम की सारी सहूलियतें दी जाएंगी, लेकिन जिगर साहब हिंदुस्तान छोड़कर पाकिस्तान नहीं गए और लगातार गोंडा में ही रहे। उन्होंने दोस्तों से साफ़ कहा ’जहां पैदा हुआ हूं, वहीं मरूंगा।’ एक बार पाकिस्तान में रहने वाला मुरादाबाद निवासी एक शख्स उनसे मिलने आया और हिंदुस्तान की बुराई करने लगा। इस पर जिगर को ग़ुस्सा आ गया। वे बोले, ‘नमक हराम तो बहुत देखे थे, आज वतन हराम भी देख लिया।’ जिगर साहब की गिनती आज भी उर्दू के चोटी के शायरों में की जाती है। वह बहुत ख़ुद्दार इंसान थे और बड़ी से बड़ी परेशानी की किसी को भनक भी नहीं लगने देते थे। बताते हैं कि मुंबई के एक मुशायरे में वह इसलिए शामिल नहीं हुए क्योंकि प्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार उन्हें 10 हजार रुपए सहायता के तौर पर देने वाले थे। हालांकि वह बहुत तंगहाली में जीवन गुज़ार रहे थे लेकिन उनकी ख़ुद्दारी ने यह गंवारा न किया। अपने बेबाक अंदाज और लाजवाब नगमा-ओ-तरन्नुम की बदौलत शोहरत की बुलंदियों को छूने वाले जिगर साहब ने एक से बढ़कर एक रचनाएं लिखीं, जिनमें ‘इंतिख़ाब दीवान-ए-जिगर’, ‘कुल्लियात-ए-जिगर’, ‘शोला-ए-तूर’ और ‘आतिश-ए-गुल’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनकी सर्वाधिक प्रशंसित कविता संग्रह ‘आतिश-ए-गुल’ के लिए उन्हें 1958 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ भी दिया गया। उनका दिल और दिमाग़ पर क़ाबू नहीं रह गया था। उन्हें दो बार पुनः दिल का दौरा पड़ा और आक्सीजन पर रखे गए। नींद की दवाओं के बावजूद रात रात-भर नींद नहीं आती थी। जिगर साहब आखि़री समय में बहुत धार्मिक हो गए थे, किंतु मजहबी कट्टरता से हमेशा दूर रहे। साल 1960 के शुरुआत में ही उनको अपनी मौत का अंदाजा हो गया था। इस कारण वह अपने लोगों को बतौर यादगार कुछ न कुछ देने लगे थे। शायरी की दुनिया में कहीं ‘देशप्रेमी शायर’ तो कहीं ‘मोहब्बतों का शायर’ जैसे नामों से विख्यात जिगर मुरादाबादी 9 सितंबर, 1960 को जन्नत के लिए प्रस्थान कर गए। गोंडा में उनकी आरामगाह (कब्र) होने के साथ ही यादगार के रूप में उनके रहने वाले मोहल्ले तोपखाना का बदलकर जिगरगंज कर दिया गया। उनकी याद में गोंडा में जिगर मेमोरियल इंटर कॉलेज भी है। जिगरगंज मोहल्ले में स्थित उनकी मज़ार आज भी उनके चहेतों और साहित्य प्रेमियों के लिए किसी तीर्थस्थान से कम नहीं है। इस वर्ष भी सै. इरफान मोईन व शेख शम्स के संयोजन ने सोमवार को जिगर मेमोरियल इंटर कालेज प्रांगण में जिगर साहब की याद में एक आल इंडिया मुशायरा आयोजित किया गया है, जिसमें कई नामचीन शायर शामिल होंगे। गोंडा के किसी शायर ने उन्हें याद करते हुए कहा है :

हाई तो बहुत मिलते कोई हायर नहीं मिलता।
आज के दौर की कविता में वह फायर नहीं मिलता।
शायर तो हजारों हैं, गिनाऊं नाम कितनों का,
‘जिगर’ जैसा जिगर वाला कोई शायर नहीं मिलता।।

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