जमीन फाड़कर निकला था मां का मुख, कहीं रक्त चढ़ाकर माता काे प्रसन्न करने की है परम्परा
– नवरात्र पर विशेष : मां के भक्तों द्वारा आजादी के लिए तरकुलहा देवी की चरणों में दी जाती थी बलि
– श्वेत वस्त्रधारी महिला पल भर में हो जाती थी ओझल, अब मां के रूप में होती है पूजा
गोरखपुर (हि.स.)। शारदीय नवरात्र सोमवार से शुरू हो गए। देवी मां को प्रसन्न करने के लिए भक्तों ने विभिन्न प्रकार से पूजा पाठ करना शुरू कर दिया है। किसी ने नौ दिनों तक व्रत रखा है और कलश स्थापना की है तो किसी ने केवल पहले और अंतिम दिन व्रत रखकर मां की अर्चना में अपनी भक्ति समर्पित कर दी है। हालांकि भक्तों और व्रतियों ने पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की और आस्था का यह सिलसिला नौ दिनों के लिए शुरू हो गया है।
मां काली मंदिर : जमीन फाड़कर निकला था मां का मुखड़ा
गोरखपुर रेलवे स्टेशन से महज एक किलोमीटर दूर गोलघर के उत्तरी छोर पर मौजूद मां काली मंदिर काफी पुराना है। मां काली की कृपा का शोर शहर के अलावा आसपास के जिलों में भी है। देवी स्थल के स्थापित होने को लेकर मान्यता है कि यहां मां काली का मुखड़ा जमीन को फाड़कर निकला था। यहां हर दिन उमड़ने वाली श्रद्धालुओं की भीड़ इस देवी स्थान के प्रति लोगों की गहरी आस्था की गवाही देता है।
बुढ़िया माई मंदिर : श्वेत वस्त्रधारी महिला पल भर में हो जाती थी ओझल
गोरखपुर जिला मुख्यालय से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कुसम्ही जंगल में बुढ़िया माई का मंदिर है। इसके बारे में मान्यता काफी रोचक है। कहते हैं कि लाठी का सहारा लेकर चलने वाली एक चमत्कारी श्वेत वस्त्रधारी वृद्धा के सम्मान में इस मंदिर को बनाया गया है। कहते हैं कि जंगल के इस क्षेत्र में पहले थारु रहते थे। वे जंगल में ही तीन पिंड बनाकर वनदेवी की पूजा-अर्चना करते थे। थारुओं को अक्सर पिंड के आस-पास एक बूढ़ी महिला दिखाई देती थी, हालांकि वह कुछ ही पल में आंखों से ओझल हो जाती थी।
गूरम समय माता मंदिर : द्वापर युग से है अस्तित्व
गोरखपुर-सोनौली मार्ग पर गोरखपुर मुख्यालय से 25 किमी पर पीपीगंज-फरदहनि मार्ग के पंचगांवा-फरदहनि गांव के मध्य 200 मीटर उत्तर मां गूरम समय का मंदिर है। मान्यता के अनुसार द्वापर युग में यहां यह सिंघोर वन था। अज्ञातवास के समय पांडवों ने यहां विश्राम किया था। पिंडी बनाकर यहां मां गूरम समय की पूजा-अर्चना किया था। एक दंतकथा के अनुसार लगभग 200 वर्ष पहले थारुओं ने एक ही रात में 33 एकड़ का पोखरा खोद कर टीला बनाया और उस के 25 फीट की ऊंचाई पर मंदिर का निर्माण किया। मिट्टी का हाथी बनाया और पूजा-पाठ शुरू की थी। वट वृक्षों से घिरे हुए इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1995-96 में श्रद्धालुओं ने कराया था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व विधायक फतेहबहादुर सिंह के प्रयास से मंदिर का सुंदरीकरण कराया गया है।
तरकुलहा देवी मंदिर : अंग्रेजों का सिर काटकर चढ़ाते थे क्रांतिकारी
तरकुलहा देवी मंदिर गोरखपुर जिला मुख्यालय से लगभग 22 किलोमीटर देवरिया रोड पर फुटहवा इनार के पास मौजूद है। मंदिर की कहानी चौरीचौरा तहसील क्षेत्र के विकास खंड सरदारनगर अंतर्गत स्थित डुमरी रियासत के बाबू शिव प्रसाद सिंह के पुत्र व 1857 के अमर शहीद बाबू बंधू सिंह से जुड़ी है। कहा जाता कि बाबू बंधू सिंह तरकुलहा के पास स्थित घने जंगलों में रहकर मां की पूजा-अर्चना करते थे। देशभक्त बंधु सिंह द्वारा आजादी के लिए अंग्रेजों का सिर काटकर मां के चरणों में चढ़ाया जाता था। यहां चैत्र रामनवमी से एक माह का मेला लगता है। यह पुरानी परंपरा है, लेकिन अब वहां सौ से अधिक दुकानें स्थायी हैं और रोज मेले का दृश्य होता है। लोग पिकनिक मनाने भी यहां जाते हैं। मुंडन व जनेऊ व अन्य संस्कार भी स्थल पर होते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर लोग बकरे की बलि देते हैं।
बांसगांव दुर्गा मंदिर : रक्त चढ़ाने की है परम्परा
जिले के बांसगांव तहसील कस्बे में स्थित मां दुर्गा के मंदिर में रक्त चढ़ाने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। इस परंपरा के अंतर्गत श्रीनेत वंश के 12 दिन के नवजात से लेकर 100 साल के बुजुर्ग तक का रक्त चढ़ाया जाता है। मान्यता है कि जिन नवजातों के ललाट (लिलार) से रक्त निकाला जाता है, वे इसी मां की कृपा से प्राप्त हुए होते हैं। श्रद्धालुओं का मानना है कि यहां मांगी हुई हर मुराद पूरी होती है। कोई भी भक्त माता के दरबार से निराश नहीं लौटता है। नवमी के दिन रक्त चढ़ाने की परंपरा है। इस मंदिर में नवरात्रि के पूरे नौ दिन भक्तों की भारी भीड़ जुटती है।
आमोद