…..जब कवि सम्मेलन में बच्चों ने कर दिया हूट!

डॉ कीर्ति काले

कवि सम्मेलन से पहले कितनी ही ड़ींगे हांक लो, कितने ही आदर्श बघार लो, लेकिन माइक के सामने खड़े होने पर तुरन्त कट टू कट फैसला हो जाता है। संचालक द्वारा कवि/कवयित्री को काव्यपाठ के लिए आमंत्रित करने से लेकर उसके उठ कर माइक तक जाने एवं आगे के बीस सेकंड तक श्रोता निर्णय कर लेते हैं कि इसे हिट करना है या हूट। कवि द्वारा माइक पर बोला गया पहला वाक्य सबसे महत्वपूर्ण होता है। कितनी ही जोड़-तोड़ कर लो, किसी का नाम जुड़वा दो, किसी का नाम कटवा दो लेकिन माइक पर खड़े होते ही सारे षड्यंत्र, सारे जोड़-तोड़ पीछे छूट जाते हैं। फिर आप होते हैं और श्रोता। जब भी किसी कवि को घमंड होने लगता है कि वह मंच का सर्वे सर्वा हो चुका है अथवा उसका तो नाम ही काफी है, उसे तो श्रोता सुनेंगे ही सुनेंगे, बल्कि सुनेंगे ही नहीं सिर आंखों पर बिठाएँगे तब समझिए उसके हूट होने का समय आ गया है। एक बार मुझे भी ऐसा घमंड हुआ था। उसी समय का मज़ेदार किस्सा सुनाती हूँ। राजस्थान में किशनगढ़ के पास एक कस्बा है अरांई। हास्य कवि श्री कमल महेश्वरी का निवास। श्री कमल महेश्वरी तब उदीयमान हास्य कवि थे। आज तो उदित होकर स्थापित हो चुके हैं। तब कवि सम्मेलनों में नए-नए ही आए थे। कमल जी ने अराँई में अपने संयोजन में एक कवि सम्मेलन आयोजित किया। सीमित साधनों में आत्मीयता पूर्वक उन्होंने देश के बड़े-बड़े कवियों को आमंत्रित किया। उनके आमंत्रण को स्वीकार करके मुम्बई से पंडित विश्वेश्वर शर्मा जी, जयपुर से श्री सुरेंद्र दुबे जी, नई दिल्ली से मैं यानी डॉ कीर्ति काले, रतलाम से श्री धमचक मुल्थानवी, शाहपुरा से श्री कैलाश मण्डेला, आलोट से श्री नन्द किशोर अकेला एवं अन्य सुनामधन्य कविगण यथा समय अरांई पहुँच गए। कमल जी का आत्मीय आतिथ्य आज भी मुझे याद है। बहुत मन से खान-पान एवं विश्राम की व्यवस्था कमल जी ने अपने साथियों के साथ मिलकर की थी। शाम को नियत समय पर कवि सम्मेलन प्रारम्भ हुआ। श्रोताओं में सबसे आगे बीस, पच्चीस छोटे-छोटे बच्चे बैठे थे। बच्चों के दांईं ओर पुरुष दीर्घा थी एवं बाईं ओर महिला दीर्घा थी। श्रोता संख्या में बहुत अधिक नहीं थे। वैसे भी अरांई जैसे छोटे कस्बे में इतने ही श्रोता अमूमन होते हैं। उन दिनों मेरी कविताओं एवं प्रस्तुति को श्रोता खूब सराह रहे थे। मैंने जितने भी कवि सम्मेलन उन दिनों किए सभी सुपर हिट रहे। कुछ नई कविताएं भी लिखी थीं उन दिनों जिन्हें श्रोताओं का भरपूर प्यार मिल रहा था। निरन्तर अच्छी प्रस्तुति देते-देते मैं थोड़ी सी घमंडी हो गई थी। मुझे लगने लगा था कि किसी भी परिस्थिति में अन्य कोई जमे या न जमे, मैं तो जमूंगी ही जमूंगी। कवि सम्मेलन प्रारम्भ हुआ। मुझसे पहले के सारे कवियों को श्रोताओं ने खूब पसन्द किया। सभी कवियों ने बिना गाए तहत में प्रस्तुति दी थी। उसके बाद जब मेरा क्रम आया और संचालक ने मेरा नाम काव्य पाठ के लिए पुकारा तो श्रोताओं ने स्वागत में उत्साहपूर्वक तालियाँ बजाईं।मैं गर्व से भरी, आत्मविश्वास से लबरेज अपने स्थान से उठकर बड़े माइक पर काव्य पाठ करने के लिए प्रस्तुत हुई। जैसा कि मैं करती हूं, वैसा ही सस्वर पाठ मैंने प्रारम्भ किया। अप्रत्याशित रूप से जो हुआ उसकी कल्पना भी नहीं की थी मैंने। मैं तो वैसा ही सुना रही थी, जैसा प्रत्येक कवि सम्मेलन में सुनाया करती थी, लेकिन यहाँ अरांई में तो गजब ही हो गया। श्रोताओं में आगे आगे जो बीस पच्चीस छोटे-छोटे बच्चे बैठे थे, उन्होंने संभवतः कवि सम्मेलन पहली बार सुना था। जैसे ही मैंने पहली पंक्ति सस्वर पढ़ी, वैसे ही मेरे पीछे-पीछे सारे बच्चे अपने हाथ जोड़कर पंक्ति को उसी स्वर, लय, ताल के साथ दोहराने लगे। मैं एकदम से हक्की बक्की रह गई। मैंने दूसरी पंक्ति सुनाई। दूसरी पंक्ति को भी बच्चों ने फुल वॉल्यूम में दोहराया। वे अपने विद्यालय में जब प्रार्थना करते होंगे, तब आगे खड़े हुए बच्चे द्वारा गाई गई पंक्तियों को दोहराते होंगे ऐसा मैं सोच रही हूँ। उन दिनों करगिल का युद्ध हुआ हुआ ही था। हमारे जांबाज सिपाहियों ने अपनी वीरता से हमारे देश को विजय श्री दिलाई थी। वातावरण में ओज हिलोरे ले रहा था। समय की नजाकत को भाँपते हुए मैंने वीर रस का गीत प्रारम्भ किया :
सीमा पर दुश्मन की गोली ने ललकारा है।
क्या सिंहों का देश कभी चूहों से हारा है।
इस पंक्ति के अंत में मैं हल्का सा आलाप लिया करती थी उन दिनों। जैसे ही मैंने पंक्ति सुना कर आलाप लिया, सारे बच्चों ने हाथ जोड़कर मेरे साथ आलाप लेना शुरू कर दिया। मैंने दोबारा से पंक्ति दोहराई, बच्चों ने फिर आलाप तान दिया। उसके बाद तो मैं जो भी सुना रही थी सारे बच्चे मेरा अनुसरण करते हुए आलाप खींचे जा रहे थे। मेरा असमंजस और बच्चों का भोलापन देखकर मंचस्थ सभी कवियों की हँसी छूट गई। हँसी तो मुझे भी आ रही थी। बच्चे बहुत मासूम थे। उन्हें पता ही नहीं चल रहा था कि वे मेरी कठिनाई का कारण बने हुए हैं। मेरा तो काव्य पाठ करना दूभर हो गया। उन छोटे-छोटे बच्चों ने अनजाने में ही सही मुझे जबरदस्त तरीके से हूट करके मेरे घमण्ड को चकनाचूर कर दिया। उस दिन मुझे समझ में आया कि प्रत्येक कवि सम्मेलन एक चुनौती होता है। कविताएँ भले ही वो ही हों लेकिन स्थान, समय, माइक, मंचस्थ कवि, श्रोता एवं परिस्थितियाँ हर बार बदल जाती हैं। इसलिए मंचीय कवि एवं कलाकार ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि राग, रसोई, पागड़ी बने तो बने, न बने तो न ही बने।

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