चले गए रमता राम
हेमंत शर्मा
मैं उन्हें रमता राम कहता था। लोग उन्हें पंडित जी, गुरू जी कहते थे। दस्तावेज़ों में वे वीर विक्रम बहादुर मिश्र के नाम दर्ज थे। थे तो वह स्वतंत्र भारत के ब्यूरो चीफ। और तब थे जब लखनऊ में गिनती के अख़बार थे। लेकिन मुख्यमंत्री को कवर करने और राम किंकर जी की रामकथा को कवर करने के विकल्प में उनकी दिलचस्पी रामकिंकर जी और रामकथा में ज़्यादा रहती थी। धार्मिक और अध्यात्मिक खबरां को वे रमता राम के नाम से रिपोर्ट करते थे। इसलिए मैं उन्हें रमता राम जी ही कहता रहा। स्वतंत्र भारत से अवकाश लेने के बाद उन्होंने एक साप्ताहिक ‘जागिनी अभियान’ भी निकाला। उन्होंने मुझसे उसमें छद्म लेखन भी करवाया, क्योंकि मैं नौकरी करता था। अपने नाम से लिख नहीं सकता था। पंडित जी पत्रकारिता के संत थे। निखालिस। उधौ का लेना न माधो को देना। पत्रकारिता के लिए जब मैं लखनऊ पहुँचा, तो ढेर सारे मठ और मठाधीश थे जो किसी नए को देख आंखें तरेरते थे। ऐसे में पंडित जी का मुझे अभिभाकत्व मिला। पंडित जी पुराने स्कूल के मर्यादाओं से बंधे पत्रकार थे। जब उनके बेटे आशीष से उनके न रहने की दुखद सूचना मिली तो सन्न रह गया। एक रोज पहले ही तो पिता के सन्दर्भ में शरद पूर्णिमा पर लिखे मेरे लेख पर पंडित जी ने एक पैरे की प्रतिक्रिया भेजी थी। उस रोज उन्होंने फ़ेस बुक पर किसी की टिप्पणी पर लिखा “हेमंत शर्मा के विषय में आपका आकलन शत प्रतिशत सही है। मेरा उनका लखनऊ में अच्छा संपर्क रहा है। वे अच्छे लेखक के साथ साथ व्यक्ति भी बहुत अच्छे हैं। उनकी कलम लिखती ही नहीं, पाठकों को गुदगुदाती भी है।’ वाह रजा पंडित जी, मेरे बारे में अब यह कौन लिखेगा। इसे पढ़कर फ़ोन किया तो तय हुआ कि इस बार लखनऊ आना तो बिना मिले मत जाना। यह उनके जाने के रोज सुबह की बात है। अब जब लखनऊ जाऊंगा तो वह कोना ख़ाली रहेगा। अपनी पत्रकारिता को लंबी उम्र देकर रमता राम जी खुद विदा हो गए।
पंडित जी भले, सीधे और सज्जन व्यक्ति थे। गोस्वामी तुलसीदास उनके प्रिय थे। इतने प्रिय कि वे उनका जन्मस्थान भी अपने गांव के पास मानते थे। तुलसीदास की जन्मस्थली गोंडा जिले के सूकरखेत के पास सिद्ध करने के लिए उन्होंने बाक़ायदा अभियान चलाया था। उन्होंने गोंडा के सूकरखेत के पास एक राजापुर भी ढूँढ लिया था। जब मिलते थे, तो तुलसी पर सत्संग होता। जब फोन पर बात होती, तो मैं आपका सेवक कहते ही वह बोलते-बहुत पाजी हो और वह ठहाका लगा हंसते। यों तो उनके साथ मेरी सैकड़ों यात्रा होगी, पर उनके साथ मुंबई की यात्रा यादगार है। भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक थी। वहीं अटल जी अध्यक्ष चुने गए थे। पंडित जी भी गए थे। मैं और बृजेश शुक्ल भी थे। बृजेश को भी पंडित जी स्नेह करते थे। हमने यह संकल्प लिया कि पंडित जी को मुंबई के दर्शन कराना है। जब खबरों से फुर्सत मिलती तो रात को हम पंडित जी को घुमाने निकलते और तीनो मुंबई दर्शन के लिए निकल पड़ते। मुंबई दर्शन के दौरान मैं उन्हें जूहू बीच से लेकर फ़िल्मों की शूटिंग दिखाने तक ले गया। बीच पर तमाम ऐसे दृश्य उन्हें नागवार लगते जो समुद्र तट में अक्सर देखने को मिलते हैं। मैं जान बूझकर उन्हें उसी ओर ले जाता। पंडित जी कहते, तुम बहुत पाजी आदमी हो। मुझे धर्म से च्युत कर दोगे। मैं मज़े लेता, अरे पंडित जी! इतना कमज़ोर धर्म है आपका। लौटते समय हमने एक कविता लिखी। मेरे जीवन की पहली कविता थी। कहीं होगी। लम्बी कविता है। उस पर फिर कभी। ‘अहो गुरु जी क्या-क्या देखा। लोक का कचरा समुद्र में देखा। समुद्र का कचरा तट पर देखा। बिना बंदर के बान्द्रा देखा।’ आदि आदि। और फिर वह कविता बहुत दिन तक गाई और सुनाई जाती रही। पंडित जी भी इस कविता को सुनकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने एक लेख लिखा जो स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुआ कि लोग अपना कचरा समुद्र में फेंक देते हैं लेकिन समुद्र उसे स्वीकार नहीं करता और वह उस कचरे को उठाकर बाहर फेंक देता है। उनका जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है। रमता राम अब नही बोलेगें। अलविदा पंडित जी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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