उचित निर्णय
डा. रश्मि
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।
उठहु राम भंजहु भव चापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।
ठाढ़ भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराज लजाएँ।।
राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया और पृथ्वी के सभी वीर पुरुषों को आमंत्रित किया। जनक जी की सभा में उपस्थित इन बलशाली पुरुषों ने एकल प्रयास भी किया और फिर सामूहिक भी… लेकिन शिव धनुष को उठाना तो दूर, हिला तक न पाए। जनक यह सोचकर दुखी हो उठे थे कि अब मेरी पुत्री सीता अविवाहित ही रह जाएगी। उन्होंने क्षुब्ध मन से सबको ललकारते हुए कहा-“क्या यह धरती वीरों से खाली हो चुकी है जो कोई धनुष हिला तक नहीं सका?“ ज़ाहिर सी बात है कि कोई भी सक्षम वीर ऐसा सुनकर खुद को रोक नहीं पायेगा, सो लक्ष्मण भी खुद को रोक नहीं पाए। दशरथ के दो बलशाली बेटे जिस सभा में उपस्थित थे, उसी सभा को वीरों से रहित कह दिया गया था। लक्ष्मण के क्रोध को भाई ने स्नेह से शांत किया। अब विश्वामित्र जी ने इसे शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी से प्रभु राम को आज्ञा देते हुए कहा-“राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और जनक का दुख मिटाओ।“ गुरु की आज्ञा पाकर श्री राम ने उनके चरणों में सिर नवाया। राम के मन में न हर्ष था, न विषाद। वे अपने सहज स्वभाव से उठ खड़े हुए और गुरु की आज्ञा पूरी करने चल दिए।
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इन पंक्तियों में बहुत सारी गूढ़ बातें छुपी हुई हैं। अच्छा गुरु हमेशा जानता है कि उचित समय कौन-सा है? कौन-सा निर्णय कब लेना चाहिए? कौन-सा कार्य कब करना चाहिए? मुनि विश्वामित्र एक बार सभी को अपना प्रयास करने का अवसर दे देना चाहते थे। उन्हें विश्वास था कि उनके दोनों शिष्य सक्षम हैं और वे पहले प्रयास में ही सफल हो जाएंगे। ऐसे में यदि इन्हें पहले अवसर दे दिया गया तो यहां उपस्थित सभी लोगों के मन में यह मलाल रह जाएगा कि, ’हमें मौका नहीं मिला वरना हम भी कर दिखाते!’ यहां अनेक बातें गौर करने वाली हैं। गुरु उचित समय का मूल्य तो समझते ही हैं, साथ ही साथ उन्हें अपने शिष्यों की क्षमता का भी भली प्रकार ज्ञान है। यहां यह संदेश भी मिलता है कि शिष्य भी अपने गुरु की आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करता। उसे भी अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन वह अनुशासन का भी ध्यान रखता है। उसे लगता है कि यदि गुरु जी अब तक आज्ञा नहीं दे रहे हैं तो कोई उचित कारण अवश्य होगा, सही अवसर आने पर आज्ञा मिल ही जाएगी। किसी भी रिश्ते में इतना भरोसा होना बहुत ज़रूरी है।
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इन पंक्तियों में यह भी देखने को मिलता है कि गुरु का भरोसा अपने शिष्य के प्रति इतना दृढ़ है कि वे उसे सिर्फ प्रयास करने भर की आज्ञा नहीं देते, बल्कि धनुष भंग करने की आज्ञा सुना देते हैं। वे कहते हैं-जाओ और धनुष भंग करो। यहां शिष्य की सहजता का भी परिचय मिलता है। श्री राम सहज भाव से उठकर गुरु को प्रणाम करके आज्ञा पालन करने चल देते हैं। वे न तो खुशी से झूम उठते हैं और न ही अभिमान से ग्रस्त होते हैं। यहां तक कि जब तक गुरु की आज्ञा नहीं मिलती तब तक उन्हें कोई विषाद भी नहीं होता। किसी में इतना संयम होना भी एक विशिष्ट गुण ही है। इन पंक्तियों में अनेक सीख छुपी हुई हैं। जैसे-उचित समय पर निर्णय लेना, गुरु की आज्ञा का पालन करना, धैर्य और संयम से काम लेना, सभी को समान अवसर प्रदान करना, असीम विश्वास रखना, अपने शिष्यों की क्षमता का ज्ञान होना, अपनी वीरता पर उंगली न उठने देना, अभिमान न करना आदि।
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