इस देश ने तालिबान शासन को दे दी मान्यता, क्या हैं इसके मायने?

नेशनल डेस्क

नई दिल्ली। तालिबान ने 15 अगस्त यानी बीते रविवार को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। इससे पूरे देश का कंट्रोल उसके पास आ गया है। राष्ट्रपति अशरफ गनी अफगानिस्तान छोड़ चुके हैं। इसके एक दिन बाद चीन ने औपचारिक तौर पर तालिबान शासन को मान्यता भी दे दी। चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने कहा कि चीन अफगान लोगों को अपना भाग्य तय करने के अधिकार का सम्मान करता है। वह अफगानिस्तान के साथ दोस्ताना और सहयोगी संबंध बनाना चाहता है। इससे पहले चीन ने 28 जुलाई को संकेत दिए थे कि वह अफगानिस्तान में तालिबान शासन को मान्यता दे सकता है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने तियांजिन में तालिबान के नौ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की थी। इस मुलाकात में तालिबान का सह-संस्थापक और डिप्टी लीडर मुल्ला अब्दुल गनी बरादर भी मौजूद था। कूटनीतिक स्तर पर मान्यता देने का क्या मतलब है? चीन के इस कदम का क्षेत्रीय स्थिरता पर क्या असर होगा? भारत में तालिबान को कूटनीतिक मान्यता देने को लेकर किस तरह की बातें हो रही हैं? आइए इसे विस्तार से समझते हैं :

कूटनीतिक मान्यता क्या है?

एक तरह से यह कूटनीतिक रिश्ते बनाने का पहला पड़ाव है। एक संप्रभु और स्वतंत्र देश जब किसी दूसरे संप्रभु या आजाद देश को मान्यता देता है तो उन दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्तों की शुरुआत होती है। मान्यता देना या न देना, राजनीतिक फैसला है। कूटनीतिक रिश्ते बनते हैं तो दोनों देश इंटरनेशनल कानून को मानने और उसका सम्मान करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। मान्यता देने की कार्यवाही सिर्फ इस घोषणा से ही पूरी हो जाती है कि एक सरकार किसी और सरकार से रिश्ते बनाने के लिए तैयार है। नई सरकार को जब अन्य सरकारों से यह मान्यता मिल जाती है तो उसके लिए अपनी आजादी, अस्तित्व और बातचीत के लिए डिप्लोमेटिक चैनल्स और इंटरनेशनल कोर्ट का इस्तेमाल करना आसान हो जाता है। कूटनीतिक मान्यता का मतलब होता है कि दोनों देश विएना कन्वेंशन ऑन डिप्लोमेटिक रिलेशंस (1961) में तय किए गए विशेषाधिकारों और जिम्मेदारियों को स्वीकार करते हैं। इसके तहत दोनों देशों के अधिकारियों को एक-दूसरे के यहां कुछ विशेष अधिकार दिए जाते हैं। दूतावास या उच्चायोग की सुरक्षा करना उनकी जिम्मेदारी हो जाती है। वैसे तो यह मान्यता परमानेंट होती है, पर बदलते हालात में सरकारें इसमें बदलाव कर सकती हैं। अगर कोई देश किसी दूसरे देश की सरकार को मान्यता नहीं देता तो उस देश के साथ सभी तरह के कूटनीतिक रिश्तों को खत्म कर दिया जाता है। न तो उसके डिप्लोमेट्स उस देश में रहते हैं और न ही कोई बातचीत होती है।

कूटनीतिक मान्यता नहीं मिलने का किसी देश पर क्या असर होता है?

अगर किसी देश में सरकारों को मान्यता नहीं मिलती तो वह देश इंटरनेशनल ट्रीटी में शामिल नहीं हो सकते। इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म पर उन्हें अपनी बात रखने का मौका नहीं मिलता। उनके कूटनीतिक प्रतिनिधि विदेशों में लीगल एक्शन से छूट नहीं पा सकते हैं। वे किसी और सरकार के सामने या विदेशी अदालतों में प्रोटेस्ट या प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं। जब यह माना जाता है कि कोई सरकार अपने देश में विदेशी हितों को सुरक्षित रखने में नाकाम रही है या इंटरनेशनल स्तर पर जवाबदेही पूरा नहीं कर पा रही है तो उसके अन्य देशों से रिश्ते खराब हो सकते हैं। सैन्य विद्रोह या बगावत को भी उस समय मान्यता मिलती है जब वहां की नई सरकारें यह सुनिश्चित करती हैं कि इंटरनेशनल लेवल पर वह जिम्मेदारी निभाने को पूरी तरह तैयार हैं। बर्मा को ही लें। वहां छह महीने पहले सैन्य विद्रोह हुआ था। सेना ने वहां प्रशासन पर कब्जा कर रखा है। समानांतर सरकार भी चल रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई सरकार को मान्यता नहीं है और वह डिप्लोमेटिक चैनल्स के जरिए ज्यादा से ज्यादा देशों से मान्यता हासिल करने की कोशिश कर रही है।

तालिबान को इंटरनेशनल बिरादरी से कूटनीतिक मान्यता मिलेगी या नहीं?

1996 में अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सउदी अरब ने ही मान्यता दी थी। इस बार हालात बदले हुए हैं। यह संकेत देता है कि इस बार कई देश तालिबान को मान्यता देने की तैयारी में हैं। चीन ने तो तालिबान शासन को मान्यता देने में जरा भी देर नहीं की। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अब तक अफगानिस्तान मसले पर दो मीटिंग कर चुका है। दोनों ही मीटिंग में यह संकेत निकलकर आया कि ताकत के साथ जनता पर थोपी गई सरकार को मान्यता नहीं दी जाएगी। यूके और नाइजर तो सीधे-सीधे यह बात कह चुके हैं। अफगानिस्तान में तीन लाख सैनिकों की फौज ने जिस तरह तालिबान के आगे हथियार डाले हैं, यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर भी 1990 के दशक के मुकाबले आसान रहा है। तालिबान भी इंटरनेशनल कम्युनिटी के सामने यही दिखाने का प्रयास कर रहा है कि ट्रांसफर ऑफ पॉवर में हिंसा नहीं हुई है। इस तरह उसे इंटरनेशनल कम्युनिटी से डिप्लोमेटिक मान्यता मिलने की उम्मीद बढ़ गई है। मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि सितंबर में न्छ में अफगानिस्तान और म्यांमार के डिप्लोमेटिक रिकग्निशन पर कोई फैसला हो सकता है। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में प्रोफेसर गुलशन सचदेवा के मुताबिक अफगानिस्तान का नया सिक्योरिटी और इकोनॉमिक आर्किटेक्चर पिछले 20 साल से पूरी तरह अलग होगा। चीन, पाकिस्तान, रूस और ईरान जैसे देशों का प्रभाव बढ़ेगा और अमेरिका का कम होगा। चीन और पाकिस्तान ऐसी स्थिति में तालिबान के कंट्रोल वाले अफगानिस्तान में भारत के एंगेजमेंट को कम करने की कोशिश करेंगे।

क्या भारत भी तालिबान के शासन को मंजूरी दे सकता है?

इस समय कुछ भी कहना मुश्किल है। जून में कतर के एक अधिकारी के हवाले खबरें आई थी कि भारत भी तालिबान के संपर्क में है। निश्चित तौर पर इसका उद्देश्य अफगानिस्तान में भारत के निवेश को सुरक्षित रखना था। भारत सरकार ने इन खबरों का खंडन नहीं किया। भारत की कूटनीति पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों ने इस कदम का स्वागत किया था। भारत साफ कह चुका है कि वह अफगानिस्तान के लोगों के साथ है। उनकी भलाई के लिए आगे भी काम करता रहेगा। सचदेवा कहते हैं कि अब तक भारत की अफगानिस्तान से जुड़ी कूटनीति को अमेरिका से जोड़कर देखा गया है। यह एक बड़ी गलती भी है। इसका फायदा चीन और पाकिस्तान जैसे देश अमेरिका और भारत का प्रभाव कम करने में उठा सकते हैं।

क्या कोई ऐसा देश है जिसे भारत ने कूटनीतिक मान्यता नहीं दी है?

नहीं। राज्यसभा में इस सवाल के जवाब में सरकार ने 22 सितंबर 2020 को कहा था कि ऐसा कोई देश नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों को भारत ने कूटनीतिक मान्यता दे रखी है। भारत के विदेशों में 197 मिशन/पोस्ट और 3 रिप्रेजेंटेटिव ऑफिस काम कर रहे हैं। यानी, भारत की स्थिति साफ है कि अगर न्छ में अफगानिस्तान के नए शासन को मंजूरी मिलती है तो वह भी तालिबान को मान्यता दे सकता है।

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