आजादी की जंग में पूरी जिंदंगी जेल में गुजारने वाली सुहासिनी दीदी को नहीं जानती युवा पीढ़ी

कोलकाता (हि.स.)। हम आजादी का 75वां महापर्व मनाने जा रहे हैं। अंग्रेजों की दासता से मुक्त होकर नई पीढ़ी आजाद वातावरण में सांस ले सके, इसके लिए अनगिनत लोगों ने अपनी कुर्बानी दी और कई तो ऐसे थे, जिन्होंने पूरी जिंदगी जेल में गुजार दी। उन्हीं में से एक नाम है सुहासिनी गांगुली का। क्रांति के आंदोलन के लिए ताउम्र कुंवारी रहीं। जिंदगी जेल में गुजर गई लेकिन अंग्रेजों के अत्याचार के सामने कभी सिर नहीं झुकाया।

सुहासिनी गांगुली का जन्म खुलना में हुआ था, ये शहर आज बांग्लादेश का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। उनकी पढ़ाई-लिखाई ढाका में हुई। हालांकि उनका पैतृक घर विक्रमपुर के एक गांव में था लेकिन उनको अध्यापिका की नौकरी कोलकाता के एक मूक बधिर बच्चों के स्कूल में मिल गई और करीब 20 साल की उम्र में 1924 में क्रांतिकारियों के शहर कोलकाता आने से उनकी जिंदगी का मकसद ही बदल गया। अपनी नौकरी के दौरान वह उन लड़कियों के संपर्क में आईं, जो दिन भर जान हथेली पर लेकर अंग्रेजी हुकूमत को धूल चटाने के ख्वाब दिल में लिए घूमती थीं।

क्रांतिकारियों के सबसे बड़े संगठन युगांतर से जुड़ गई थीं सुहासिनी

ऐसे में सुहासिनी गांगुली कैसे क्रांति के इस ज्वार से बच पातीं। बताया जाता है कि इन्हीं दिनों खुलना के ही क्रांतिकारी रसिक लाल दास के सम्पर्क में आने से वो क्रांतिकारियों से संगठन जुगांतर पार्टी से भी जुड़ गईं। एक और क्रांतिकारी हेमंत तरफदार के संपर्क में आने से उनके क्रांतिकारी विचार और मजबूत होते चले गए। उनकी बढ़ती सक्रियता और क्रांतिकारियों से मेलजोल अंग्रेजी पुलिस से छुपा नहीं रह पाया। सुहासिनी और उनके साथियों को भी समझ आ चुका था कि वे पुलिस की नजरों में आ चुके हैं। अब उनकी हर हरकत पर नजर रखी जा रही थी। वो जहां जाती थीं, किसी से भी मिलती थीं, कोई ना कोई उन पर नजर रख रहा होता था।

क्रांतिकारियों के लिए ठिकाना था उनका घर

उनका घर क्रांतिकारियों के लिए उसी तरह से ठिकाना बन गया था, जैसे भीकाजी कामा का घर कभी सावरकर के लिए था। हेमंत तरफदार, गणेश घोष, जीवन घोषाल, लोकनाथ बल जैसे तमाम क्रांतिकारियों को समय समय पर पुलिस से बचने के लिए उनकी शरण लेनी पड़ी। इंग्लैंड- फ्रांस की दोस्ती ने उनके लिए भी मुश्किलें पैदा कर दीं।

चमक-दमक से थीं दूर, केवल एक तस्वीर है मौजूद

हमेशा खादी पहनने वाली सुहासिनी आध्यात्मिक विचारधारा की थीं। देश को आजाद करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। उनके संपर्क में इतने क्रांतिकारी आए, जो उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित भी थे। एक की वो छद्म पत्नी तक बनकर रहीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपने परिवार, अपनी जिंदगी के बारे में नहीं सोचा, यहां तक कि देश की आजादी के बाद भी नहीं।

कोलकाता में हो गया था एक्सीडेंट, मिली गुमनाम मौत

मार्च 1965 की बात है, एक दिन जब वो कहीं जा रही थीं तो रास्ते में उनका एक्सीडेंट हो गया। उनको कोलकाता के पीजी हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया। आजादी के बाद देश क्रांतिकारियों से ज्यादा ताकतवर नेताओं का दीवाना हो चुका था। उनके इलाज में लापरवाही बरती गई। नतीजतन, वह बैक्टीरियल इन्फेक्शन का शिकार हो गईं और 23 मार्च, 1965 को स्वर्ग सिधार गईं। उसी दिन जिस दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी पर लटकाया गया था। हर साल 23 मार्च को शहीद दिवस मनाया जाता है और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तो याद किया जाता है लेकिन सुहासिनी को कोई याद नहीं करता।

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