अयोध्या, काशी और रामलीला

हेमंत शर्मा

पिछले दिन अयोध्या जाना हुआ। जनसत्ताई साथी भाई त्रियुग नारायण तिवारी के पत्रकारीय कर्म के पचास बरस पूरे हुए थे। इस जलसे में शामिल होने के लिए। एक ही जलसे में समाजवादी जयशंकर पाण्डेय मिले, तो लल्लू सिंह भी। सांसद लालजी वर्मा और अयोध्या के नए पोस्टर ब्वाय अवधेश प्रसाद भी मिले, तो राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के ट्रस्टी भी। कामरेड सूर्यकान्त पाण्डेय भी थे और कुछ कांग्रेसी मित्र भी। इन दिनों ऐसा जमावड़ा कम होता है। मेरे लिए समारोह का हासिल था एक तो कई पुराने मित्रों से मुलाक़ात हुई। यादें साझा हुई। दूसरे सड़क के किनारे धार्मिक किताबों की दुकान पर राधेश्याम रामायण मिली। बचपन लौट आया। स्मृतियों के कबाड़ पर बैठ गया। रामलीला का मौसम और राधेश्याम रामायण। बचपन में देखी रामलीलाएं रील की तरह ऑंखों के सामने से गुजरने लगीं। इस किताब का रावण अंगद संवाद याद आया “रे बानर तू कौन है? क्या है तेरा नाम। आया क्यूँ दरबार में, क्या है मुझसे काम?“ इलाहाबाद और लखनऊ में पूरे दशहरे सुना करता था। बनारस में रामलीला तो तुलसी के मानस के आधार पर ही होती थी। इस रामायण को पढ़ते ही रामलीला की गंध महसूस होने लगी। वैसे भी इन दिनों रामलीलाओं का मौसम चल रहा है। क्योंकि इसी रामायण के आधार पर देश के कई हिस्सों में रामलीलाएं होती थी। राधेश्याम रामायण की रचना बरेली के राधेश्याम कथावाचक ने की थी। इस ग्रन्थ में आठ काण्ड तथा 25 भाग है। इस रामायण में राम कथा का वर्णन इतना मनोहारी ढंग से किया गया है कि आप सुने तो सुनते रह जायेगें। यह रामायण हिन्दी, उर्दू, अवधी और ब्रजभाषा के आम शब्दों के अलावा एक विशेष गायन शैली में लिखी गयी है। अपनी भाषा और शैली के कारण राधेश्याम रामायण इतनी लोकप्रिय हुई कि राधेश्याम कथावाचक के जीवनकाल में ही इस ग्रन्थ की हिन्दी व उर्दू में दो करोड़ से ज़्यादा प्रतियां छपीं और बिकीं।
ये राम हैं कौन? जिनकी लीलाएँ लोगों को खींचती हैं। राम लोकमंगलकारी हैं। ग़रीब नवाज़ है। मर्यादा पुरूषोत्तम है। ईक्ष्वाकु वंश के राजा थे। इक्ष्वाकु मनु के पुत्र थे। इनके वंश मे आगे चल कर दिलीप, रघु, अज, दशरथ हुए। रघु सबसे प्रतापी थे। इसलिए वंश का नाम रघुवंश चला। रघुवंश के कारण ही राम को राघव, रघुवर, रघुनाथ भी कहा गया। महाराज दशरथ के तीन रानियॉं थी। लेकिन कोई पुत्र नहीं था। इसलिए उन्होने पुत्रेष्टि यज्ञ के लिए श्रृंगीमुनि को बुलाया। यज्ञ के आखिर में अग्नि से देव प्रकट हुए और दशरथ को खीर भेंट की। दशरथ ने खीर अपनी रानियों को खिलाया। आधी खीर कौशल्या को दिया, आधी कैकेयी को। दोनों ने अपने-अपने हिस्से की आधी खीर सुमित्रा को दी। नतीजतन कौशल्या ने राम को जन्म दिया, कैकेयी ने भरत को। सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न दो जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए। यही राम के होने की कहानी है।
अयोध्या राम की है। यहां कण कण में राम हैं। भाव की हर हिलोर में राम हैं। कर्म के हर छोर में राम हैं। राम यत्र-तत्र हैं। राम सर्वत्र हैं। जिसमें रम गए वही राम है। सबके अपने-अपने राम हैं। गांधी के राम अलग हैं। लोहिया के राम अलग। वाल्मीकि और तुलसी के राम में भी फर्क है। भवभूति के राम दोनों से अलग हैं। कबीर ने राम को जाना। तुलसी ने माना। निराला ने बखाना। राम एक ही हैं पर दृष्टि सबकी भिन्न। भारतीय समाज में मर्यादा, आदर्श, विनय, विवेक, लोकतांत्रिक मूल्यवत्ता और संयम का नाम है राम। आप ईश्वरवादी न हो, तो भी घर-घर में राम की गहरी व्याप्ति से उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम तो मानना ही पड़ेगा। स्थितप्रज्ञ, असंम्पृम्त, अनासक्त। एक ऐसा लोकनायक, जिसमें सत्ता के प्रति निरासक्ति का भाव है। जो जिस सत्ता का पालक है, उसी को छोड़ने के लिए सदा तैयार है। इसलिए रामलीलाओं के मौसम में अयोध्या रोमांचित करती है। अपना नाता अयोध्या और बनारस दोनों से रहा। दोनों रामलीला की धरती हैं। अयोध्या में त्रेता में राम लीला के जीवित स्थान थे तो बनारस में सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास ने इसे शुरू कराई। ’रामायण’ और ‘रामचरितमानस’ को पढ़कर रामकथा को समझने वाले लोग कितने होंगे, यह बहस का विषय हो सकता है। मगर रामलीलाओं को देखकर रामकथा घर-घर पहुंची, इसमें कोई दो राय नहीं। देश में रामलीलाएं कब शुरू हुईं, इसके कोई और प्रमाण नहीं मिलते। बनारस में सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास ने ही अपने रामचरितमानस पर रामलीलाएं शुरु कराई। दरअसल 1577 ईसवीं में गोस्वामी तुलसीदास ने जब लोकभाषा ‘अवधी’ में भगवान राम के चरित्र को उतारा, तो उनके सामने भारी समस्या थी कि उस किताब की मार्केटिंग कैसे हो? पुस्तक लोगों तक कैसे पहुंचे? पंडित और विद्वान पहले ही नाराज़ थे कि देव भाषा की जगह देवता का बखान लोकभाषा में। तब टी.वी., रेडियो और दूसरे प्रचार के साधन भी थे नहीं। छापाखाना भी नहीं था। केवल हस्तलिखित प्रतियां होती थीं। तो आखिर किस प्लेटफॉर्म के जरिए ‘रामचरितमानस’ आम लोगों तक पहुंचे? तुलसी के सामने यह समस्या थी।
इससे निपटने के लिए तुलसीदास ने जुगत निकाली। वे लोगों के बीच जाकर रामकथा गाकर सुनाने लगे और इसके लिए उन्होंने देशभर में, खासकर उत्तर भारत में रामलीला का मंचन करवाना शुरू किया। राम का चरित गाकर लोक में सुनाया जाने लगा। तुलसी की यह तरकीब हिट हुई। रामलीलाएं लोकप्रिय हुईं। कहते हैं, उस वक़्त रामलीलाएं शुरू कराने के पीछे तुलसीदास का एक उद्देश्य जनमानस में यह आत्मविश्वास भरना भी था कि जिस प्रकार राम के युग में रावण का अंत हुआ, वैसे ही अत्याचारी मुगल शासन का भी अंत होगा। तुलसीदास ने सबसे पहले यह प्रयोग खुद द्वारा स्थापित तुलसी अखाड़े में ‘रामचरितमानस’ के मंचन से शुरू करवाया। तुलसीदास जी ने इस काम में अपने मित्र मेघा भगत की मदद ली। मेघा भगत वाराणसी के कमच्छा इलाके में रहकर बच्चों को संस्कृत पढ़ाते थे। आनंद के लिए वे ‘वाल्मीकि रामायण’ के आधार पर रामलीला का मंचन भी करते थे। लेकिन संस्कृत की वह लीला आम लोगों में उतनी लोकप्रिय नहीं थी। तुलसीदास ने मानस के आधार पर रामलीला के मंचन का आग्रह मेघा भगत से किया। इसी जनश्रुति के आधार पर अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यास ‘मानस का हंस’ में मेघा भगत के एक सशक्त चरित्र को बुना है। मेघा भगत अपनी स्थितप्रज्ञता और भक्ति की एकनिष्ठता के कारण तुलसी के लिए श्रद्धास्पद ही नहीं, प्रेरणास्पद भी थे। तुलसी का सान्निध्य मेघा भगत के जीवन में एक मोड़ ले आता है। यहीं से वे अध्यापकीय वृत्ति से मुक्त होकर भक्ति-मार्ग की ओर चलते हैं।
मेघा भगत को काशी में रामलीला का जनक माना जाता है। पर उनके निजी जीवन के बारे में कोई ख़ास जानकारी नही है। बस इतना ही पता चलता है कि वे गोस्वामी तुलसीदास के परम मित्र थे। राम के सच्चे भक्त थे। उनके द्वारा शुरू की गयी रामलीला आज भी यथावत् हर साल होती है, जो ‘नाटी इमली की रामलीला’ के नाम से मशहूर है। ‘गौतम चंद्रिका’ के लेखक कृष्ण दत्त मिश्र ने मेघा भगत का जिक्र किया है- ‘कमला के मेघा भगत करि सुरधुनि नहान। तुलसी चरन पखारि गृह भजत राम धनुबान।’ आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने उनके संबंध में लिखा है कि वाराणसी में एक रामलीला ‘चित्रकूट की रामलीला’ अथवा ‘नाटी इमली की रामलीला’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। जनश्रुति है कि वाराणसी के चित्रकूट स्थान पर पहले ‘वाल्मीकि रामायण’ के अनुसार रामलीला होती थी। उसकी जगह तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ के अनुसार मेघा भगत ने ‘रामलीला’ का चलन किया।” वैसे बनारस की सबसे प्रसिद्ध रामनगर की रामलीला है। इसे काशी नरेश करवाते थे। कोई दो सौ साल पुरानी रामनगर की इस रामलीला की ख़ासियत होती है कि इसके दर्शक भी लीला के पात्र होते है। जो उसे जीते हैं। दस से पचास हज़ार लोग महीने भर बनारस से राम नगर जाते है। अंनत चतुर्दशी से शुरू होकर यह लीला शरद पूर्णिमा तक चलती है। लीला में महीने भर बनारसी दोपहर बाद ही रामनगर पहुंचते हैं। अहरा लगता है। (गोबर के उपले पर खाना बनाना) साफ़ा पानी लगता है। (नहाना धोना) इसे बनारसी बहरी अलंग की सैर भी कहते है।
देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी से शुरू हुई। इससे पहले ‘राम बारात’ और ‘रुक्मिणी विवाह’ के शास्त्र-आधारित मंचन ही हुआ करते थे। साल 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया। तब से रामनगर की लीला आज भी जारी है। राम नगर की यह लीला इस आधुनिक और विकसित समाज में भी बिना बिजली और लाउडस्पीकर के होती है। पैट्रोमैक्स और मशालों की रोशनी में होने वाली इस लीला पर 1965 के युद्ध में रोक के बादल मंडराए थे। पर लीला हुई पैट्रोमैक्स पर छाता लगाकर। ताकि ब्लैक आउट के दौरान रोशनी आसमान से दुश्मन के लड़ाकू जहाज़ों को न दिखे। रामनगर की रामलीला में सावन की कृष्ण चतुर्थी को गणेश पूजन के साथ पॉंच स्वरूपों (राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न) का चुनाव और नामकरण होता है। भादों शुक्ल चतुर्थी को द्वितीय गणेश पूजन के साथ चौक पक्की पर ‘रामचरितमानस’ के बालकांड के दोहे का पाठ शुरू होकर भादों शुक्ल त्रयोदशी तक 175 दोहों का पाठ होता है। भादों शुक्ल चतुर्दशी को ‘रावण जन्म’ से लीला का मंचन शुरू हो कुआर शुक्ल पूर्णिमा को ‘श्रीराम उपवन-विहार, सनकादिक-मिलन, पुरजनोपदेश’ के साथ संपन्न होती है। कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा को अनूठी जीवंत लीला ‘कोट विदाई’ का आयोजन होता है। इसमें रामलीला के पांचों स्वरूप एवं लीला के अन्य मुख्य पात्र काशीराज दुर्ग में पधारते हैं। काशीराज उनकी पूजा कर, भोग लगा दक्षिणा दे उनकी विदाई करते हैं। इस रामलीला के संवादों एवं पदों की रचना काष्ठजिह्वा स्वामी और महाराज रघुराज ने की है, जो रामचरितमानस के अनुसार है। सैकड़ों साल पहले लिखे इन संवादों में आज तक कोई बदलाव नहीं हुआ है। रामलीला के पॉंचो स्वरूपों का चयन हर साल होता है, जो रामनगर के बाहर के होते हैं, इन्हें एक महीने पहले से ही कठिन प्रशिक्षण दिया जाता है। शेष पात्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी भूमिका को जीते हैं। पात्रों को संवाद कंठस्थ कराया जाता है, बिना ध्वनि-विस्तारक यंत्र के वे ऊंचे स्वर में संवाद बोलने की ट्रेनिंग दी जाती हैं। लीला के प्रसंगानुसार ही लीला स्थल तय हैं, जैसे-अयोध्या, जनकपुर, पंपासर, चित्रकूट, पंचवटी, लंका आदि स्थायी तौर पर रामनगर में हैं, जो अब स्थानीय मुहल्ले बन गए हैं। रामलीला के पात्र वनवास के समय मूर्ति स्वरूप मुकुट धारण तो करते हैं, लेकिन उस पर काली पट्टी बांध दी जाती है, जो मुकुट का प्रतीकात्मक निषेध करती है। धनुष यज्ञ, शूर्पणखा की नाक काटने वाली लीला या लक्ष्मण शक्ति के दिन तोप से सलामी दी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि रामलीला मंचन के समय यहां दर्शक, दर्शक न होकर पात्र की भूमिका में आ जाते हैं, जैसे राम बारात में बाराती, वनवास के समय वनवासी व युद्ध के समय सैन्य भूमिका में। दर्शकों का अंदाज ही अलग होता है। काशी की गहरेबाजी, साफा-पानी, बहरी अलंग, खानपान व भंग सेवन को रामलीला के वक्त देखा जा सकता है।
सबसे पुरानी रामलीला मेघा भगत वाली ‘श्री चित्रकूट रामलीला समिति’ के पांच सौ बरस पूरे हो गए। इसके अलावा, मौनी बाबा की रामलीला, लाट भैरव की रामलीला और अस्सी की रामलीला का इतिहास चार सौ साल से ज्यादा पुराना है। श्री चित्रकूट रामलीला समिति की रामलीला शहर में आठ मुहल्लों में होती है। उस वक्त लीला स्थलों का चुनाव खुद मेधा भगत ने किया था। तब काशी में वन क्षेत्र अधिक था। चूंकि तुलसीदासजी हनुमान फाटक पर ही रहते थे, इसलिए उनके घर के आसपास के इलाके में लीला-स्थल बनाए गए। बड़ा गणेश में अयोध्या, ईश्वरगंगी कुंड में सुरसरि नदी, लोटादास टीला के पास भरद्वाज आश्रम, नई बस्ती में वाल्मीकि आश्रम, धूपचंडी चौराहे पर चित्रकूट, पिशाचमोचन में दंडकारण्य, चौकाघाट मैदान में लंका और धूपचंडी मैदान भरत-मिलाप स्थल के रूप में चिह्नित हैं। चित्रकूट रामलीला की ख़ासियत यह भी है कि यहां संवाद नहीं के बराबर होता है। इसके जगह ‘रामचरितमानस’ का पाठ होता है। अठारहवें दिन नाटी इमली के मैदान पर विश्व के सबसे कम समय के सबसे बड़े मेले ‘भरत मिलाप’ का आयोजन होता है। यह मेला बनारस के ‘लख्खा मेले’ के रूप में जाना जाता है। पांच से दस मिनट के इस नयनाभिराम दृश्य के लिए काशी नरेश के साथ ही लाखों लोग देश-विदेश से आते हैं। भरत-मिलाप के समय इसके सम्मान में काशी की दूसरी सारी रामलीलाओं को विराम दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि अयोध्या में स्वयं श्रीराम ने बाल रूप में ये धनुष-बाण मेघा भगत को दिए थे। यहां की रामलीला के संबंध में एक जनश्रुति यह है कि सन् 1868 में रामलीला मंचन के समय तत्कालीन पादरी मैकफर्सन ने हनुमान का किरदार निभा रहे पं. टेकराम भट्ट को उकसाया कि “महाकाव्य के अनुसार हनुमान सौ योजन लंबे समुद्र को लांघ गए थे। आप यह वरुणा नदी पार कर दो, तो हम मानेंगे, नहीं तो लीला बंद कर दी जाएगी।” यह सुन हनुमान बने पात्र ने श्रीराम से आज्ञा लेकर एक छलांग में वरुणा नदी पार कर दी। वरुणा नदी पार करने के बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए। उनका मुखौटा आज भी वरुणातट पर स्थित हनुमान मंदिर में सुरक्षित है।
‘लाट भैरव की रामलीला’ भी काशी की सबसे पुरानी रामलीलाओं में एक है। इसे ‘आदि रामलीला’ भी कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदास के समय (सन् 1543) में मेघा भगत द्वारा लाट भैरव की रामलीला की शुरुआत हुई। ‘काशीखंड’ के अनुसार यहां की लीला ‘वाल्मीकि रामायण’ पर आधारित होती थी, कुछ समय बाद ‘रामचरितमानस’ के अनुसार होने लगी। लीला के प्रसंगों के अनुसार इनका स्थान यहां भी नियत है। विश्वेश्वरगंज को अयोध्या, धनेसरा तालाब को सुरसरि, लाट भैरव को पंचवटी तथा गंगा-वरुणा के संगम के पार को लंका तथा इसी तरह अन्य कई स्थानों को प्रसंगानुसार लीला स्थल बनाया जाता है। यहां की लीला में तिथियों के साथ ही नक्षत्रों पर भी ध्यान दिया जाता है। पुनर्वसु नक्षत्र में ही ‘मुकुट पूजा’ की जाती है तथा विजयादशमी के श्रवण नक्षत्र में ही ‘रावण वध’ के प्रसंग का मंचन किया जाता है। श्रीराम के 14 वर्ष की वनवास लीला का प्रसंग 14 दिन में (तिथियों के अनुसार) पूरा किया जाता है और वनवास के प्रसंग के दौरान मूर्ति स्वरूपों को केवल फलाहार का ही भोग लगाया जाता है। मैंने अपने बचपन से काशी की इस अनमोल परंपरा को जगह-जगह फलीभूत होते देखा है।नौकरी की व्यस्तताओं के बीच अब मंचन देखने का वक्त तो नहीं मिल पाता है, मगर रामलीलाओं की याद इस मौसम में सताने लगती है। कभी-कभी यह भी अहसास होता है कि रामलीलाओं की शक्ति अपरंपार है। कुछ भी हो, कैसा भी हो, रामलीलाएं पीछा नहीं छोड़ती हैं। राम साध्य है, साधन नहीं। गांधी का राम सनातन, अजन्मा और अद्वितीय है। वह दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा नहीं है।जो आत्मशक्ति का उपासक प्रबल संकल्प का प्रतीक है। वह निर्बल का एक मात्र सहारा है। उसकी कसौटी प्रजा का सुख है। यह लोकमंगलकारी कसौटी आज की सत्ता पर हथौड़े सा चोट करती है-जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृपु अवस नरक अधिकारी। वे सबको आगे बढ़ने की प्रेरणा और ताकत देता है। हनुमान, सुग्रीव, जाम्बवंत, नल, नील सभी को समय-समय पर नेतृत्व का अधिकार उन्होंने दिया। उनका जीवन बिना हड़पे हुए फलने की कहानी है। वह देश में शक्ति का सिर्फ एक केन्द्र बनाना चाहते है। देश में इसके पहले शक्ति और प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केन्द्र थे। अयोध्या और लंका। राम अयोध्या से लंका गए। रास्ते में अनेक राज्य जीते। राम ने उनका राज्य नहीं हड़पा। उनकी जीत शालीन थी। जीते राज्यों को जैसे का तैसा रहने दिया। अल्लामा इकबाल कहते हैं, “है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं, उसको इमाम-ए-हिंद।” राम का जीवन बिल्कुल मानवीय ढंग से बीता। उनके यहां दूसरे देवताओं की तरह किसी चमत्कार की गुंजाइश नहीं है। आम आदमी की मुश्किल उनकी मुश्किल है। लूट, डकैती, अपहरण और भाइयों से सत्ता से बेदखली के शिकार होते हैं। जिन समस्याओं से आज का आम आदमी जूझ रहा है। कृष्ण और शिव हर क्षण चमत्कार करते हैं। राम की पत्नी का अपहरण हुआ तो उसे वापस पाने के लिए अपनी गोल बनाई। लंका जाना हुआ तो उनकी सेना एक-एक पत्थर जोड़ पुल बनाती है। वे कुशल प्रबंधक हैं। उनमें संगठन की अद्भुत क्षमता है। जब दोनों भाई अयोध्या से चले तो महज तीन लोग थे। जब लौटे तो एक पूरी सेना के साथ। एक साम्राज्य का निर्माण कर। राम कायदे कानून से बंधे हैं। उससे बाहर नहीं जाते। एक धोबी ने जब अपहृत सीता पर टिप्पणी की तो वे बेबस हो गए। भले ही उसमें आरोप बेदम थे। पर वे इस आरोप का निवारण उसी नियम से करते हैं, जो आम जन पर लागू है। वे चाहते तो नियम बदल सकते थे। संविधान संशोधन कर सकते थे। पर उन्होंने नियम कानून का पालन किया। सीता का परित्याग किया। जो उनके चरित्र पर धब्बा है। तो मर्यादा पुरुषोत्तम क्या करते? उनके सामने एक दूसरा रास्ता भी था, सत्ता छोड़ सीता के साथ चले जाते। लेकिन जनता (प्रजा) के प्रति उनकी जवाबदेही थी। इस रास्ते पर वे नहीं गए। इसलिए राम लीला आम लोगों को अपनी ओर खींचती हैं। जय जय…

(लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

कलमकारों से ..

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